"पटना नगरी छार दिहिन अब बेदिल चले बिदेस"..
"पटना नगरी छार दिहिन अब बेदिल चले बिदेस'...
बिहार से निकल आज दिल्ली के 'विहारों' में बसे लगभग 50 लाख प्रवासियों की टीस पर मानों 250 साल पहले लिखी यह पंक्ति कितनी सटीक बैठती है।अपना घर-बार गली-मोहल्ला छोड़ परदेस का रुख करनेवालों के दर्द और सपनों को बयां करती यह लाइन मानों महाकाव्यात्मक गहराई लिए हमें निमंत्रण दे रही है:
खड़ी बोली की कोई ऐसी लाइन हो तो दिखाओ!
■
जानकार कहते हैं कि यह पंक्ति मगही की कविता का हिस्सा है जिसे 18वीं सदी में फ़ारसी के बहुत बड़े शायर बेदिल ने रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली रवाना होने के पहले लिखी-कही थी।
■
दिल्ली तब भी 'बेदिल' की ना हुई, दिल्ली आज भी बेदिल के हमवतनों से दूर है। लेकिन दिल्ली से आशनाई तब भी थी, आज भी है। दिल्ली के पास दिल नहीं है, इसीलिए इसे दिलवाले चाहिएँ। दिल्ली दिल देती नहीं , दिल को भकोसती है। इसके बाद भी आप बच जाएँ तो आप बहुत बड़े दिल-वाले हैं, हिम्मती हैं।
■
बेदिल ने भी हौसला नहीं छोड़ा। प्रगति मैदान के पास मटकापीर के सामने उनकी मज़ार है।बिहारियो, कभी मत्था टेक अइयो।
30।8।16
बिहार से निकल आज दिल्ली के 'विहारों' में बसे लगभग 50 लाख प्रवासियों की टीस पर मानों 250 साल पहले लिखी यह पंक्ति कितनी सटीक बैठती है।अपना घर-बार गली-मोहल्ला छोड़ परदेस का रुख करनेवालों के दर्द और सपनों को बयां करती यह लाइन मानों महाकाव्यात्मक गहराई लिए हमें निमंत्रण दे रही है:
खड़ी बोली की कोई ऐसी लाइन हो तो दिखाओ!
■
जानकार कहते हैं कि यह पंक्ति मगही की कविता का हिस्सा है जिसे 18वीं सदी में फ़ारसी के बहुत बड़े शायर बेदिल ने रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली रवाना होने के पहले लिखी-कही थी।
■
दिल्ली तब भी 'बेदिल' की ना हुई, दिल्ली आज भी बेदिल के हमवतनों से दूर है। लेकिन दिल्ली से आशनाई तब भी थी, आज भी है। दिल्ली के पास दिल नहीं है, इसीलिए इसे दिलवाले चाहिएँ। दिल्ली दिल देती नहीं , दिल को भकोसती है। इसके बाद भी आप बच जाएँ तो आप बहुत बड़े दिल-वाले हैं, हिम्मती हैं।
■
बेदिल ने भी हौसला नहीं छोड़ा। प्रगति मैदान के पास मटकापीर के सामने उनकी मज़ार है।बिहारियो, कभी मत्था टेक अइयो।
30।8।16
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home