महाभारत 2.0
हज़ारों साल से यह भूमि एक और महाभारत के लिए तरस रही है। पहले महाभारत के बाद उपनिषद् ग्रंथों, महावीर और बुद्ध का अमृत मिला था तो इस बार भी अमृत निकलेगा ही। मनुष्यता-विरोधी इस्लाम, साम्यवाद और उपभोक्तावाद तो अब भीषण वैश्विक महाभारत से ही परास्त होगा जिसकी पदचाप भारत समेत कई अन्य देशों में साफ़-साफ़ सुनाई देने लगी है।
भला हो 'चीनी वुहान वायरस' का जिसके चलते साम्यवाद और इस्लाम के गठजोड़ का पर्दाफाश हो सका और दुनिया कोरोना-जिहाद को जान और समझ पाई। दूसरी तरफ़ वैश्वीकरण ने आग में घी की तरह काम करते हुए उपभोक्तावाद की परोपजीवी
विकृति को भी उजागर कर दिया है। इसका प्रमाण है विकसित देशों का अपने भोग की ग़ैर-जरूरी पर सस्ती चीज़ों के लिए चीन पर भीषण रूप से निर्भर होना।
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दिलचस्प है कि यूरोप और अमेरिका जहाँ उपभोक्तावाद पर सवार चीनी कोरोना वायरस के ज़्यादा शिकार हैं वहीं भारत उस कोरोना-वायरस से जूझ रहा है जो जिहाद पर सवार है और जिसे सेकुलरवाद एवं कम्युनिज़्म का पूरा समर्थन है।
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जाहिर है कि यूरोप और अमेरिका की बदहाली के लिए उनकी भोग संस्कृति जिम्मेदार है तो भारत की बदहाली के लिए यहाँ की हिंदू-द्वेषी और भारत-तोड़क विचारधाराओं का गठजोड़। सनद रहे कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। भारत के विभाजन और बाद में उसके आर्थिक-सांस्कृतिक पतन के लिए भी यही गठजोड़ जिम्मेदार था।
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आज अंतर सिर्फ यही है कि रेडियो-टीवी-अख़बार नियंत्रित एकतरफा जनसंचार को मोबाइल-इंटरनेट सोशल मीडिया पर सवार गहन अन्तर्वैयक्तिक संचार (Intensive Interpersonal Communication) ने अपदस्त कर दिया है। किसी के लिए किसी अन्य के बारे में कुछ भी ढँका-छुपा नहीं है। घृणा के स्रोतों की अब वैश्विक पहचान हो जाने से विभाजन रेखा बहुत स्पष्ट हो चुकी है। कालनेमियों की कलई खुल गई है और अपने राष्ट्र रूपी राम के प्रति समर्पित करोड़ों हनुमान गदा-प्रहार के लिए उतावले हो रहे हैं।
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उपरोक्त घृणा के स्रोतों की पहचान और उसके इलाज के लिए जनमानस में पैदा हुई बेचैनी को समकालीन कालनेमी-गिरोह असहिष्णुता और घृणा का नाम देकर जनमानस को दिग्भ्रमित करने का षड्यंत्र कर रहा है जो स्वाभाविक ही है। इसी षड्यंत्र का हिस्सा है घृणा के स्रोतों (इस्लाम, साम्यवाद) की आलोचना के बजाय घृणा की पहचान करानेवाले बुद्धियोद्धाओं-बुद्धिवीरांगनाओं और उनके मंचों (फेसबुक, ट्विटर) को नियंत्रित करने की साज़िश।
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महाकवि दिनकर याद आ रहे हैं:
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।
तो सवाल यह नहीं कि कोरोना-उत्प्रेरित वैश्विक महाभारत होगा या नहीं बल्कि यह कि अपार सृजन की संभावनाओं वाले इस आसन्न महायुद्ध में हम कहाँ होंगे? सृजन का मार्ग प्रसस्त करते समय के सनातन बुलडोज़र पर सवार होंगे या उसके सामने खड़े होंगे? यहाँ तटस्थता का एकमात्र अर्थ होगा: सामूहिक आत्महत्या।
भला हो 'चीनी वुहान वायरस' का जिसके चलते साम्यवाद और इस्लाम के गठजोड़ का पर्दाफाश हो सका और दुनिया कोरोना-जिहाद को जान और समझ पाई। दूसरी तरफ़ वैश्वीकरण ने आग में घी की तरह काम करते हुए उपभोक्तावाद की परोपजीवी
विकृति को भी उजागर कर दिया है। इसका प्रमाण है विकसित देशों का अपने भोग की ग़ैर-जरूरी पर सस्ती चीज़ों के लिए चीन पर भीषण रूप से निर्भर होना।
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दिलचस्प है कि यूरोप और अमेरिका जहाँ उपभोक्तावाद पर सवार चीनी कोरोना वायरस के ज़्यादा शिकार हैं वहीं भारत उस कोरोना-वायरस से जूझ रहा है जो जिहाद पर सवार है और जिसे सेकुलरवाद एवं कम्युनिज़्म का पूरा समर्थन है।
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जाहिर है कि यूरोप और अमेरिका की बदहाली के लिए उनकी भोग संस्कृति जिम्मेदार है तो भारत की बदहाली के लिए यहाँ की हिंदू-द्वेषी और भारत-तोड़क विचारधाराओं का गठजोड़। सनद रहे कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। भारत के विभाजन और बाद में उसके आर्थिक-सांस्कृतिक पतन के लिए भी यही गठजोड़ जिम्मेदार था।
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आज अंतर सिर्फ यही है कि रेडियो-टीवी-अख़बार नियंत्रित एकतरफा जनसंचार को मोबाइल-इंटरनेट सोशल मीडिया पर सवार गहन अन्तर्वैयक्तिक संचार (Intensive Interpersonal Communication) ने अपदस्त कर दिया है। किसी के लिए किसी अन्य के बारे में कुछ भी ढँका-छुपा नहीं है। घृणा के स्रोतों की अब वैश्विक पहचान हो जाने से विभाजन रेखा बहुत स्पष्ट हो चुकी है। कालनेमियों की कलई खुल गई है और अपने राष्ट्र रूपी राम के प्रति समर्पित करोड़ों हनुमान गदा-प्रहार के लिए उतावले हो रहे हैं।
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उपरोक्त घृणा के स्रोतों की पहचान और उसके इलाज के लिए जनमानस में पैदा हुई बेचैनी को समकालीन कालनेमी-गिरोह असहिष्णुता और घृणा का नाम देकर जनमानस को दिग्भ्रमित करने का षड्यंत्र कर रहा है जो स्वाभाविक ही है। इसी षड्यंत्र का हिस्सा है घृणा के स्रोतों (इस्लाम, साम्यवाद) की आलोचना के बजाय घृणा की पहचान करानेवाले बुद्धियोद्धाओं-बुद्धिवीरांगनाओं और उनके मंचों (फेसबुक, ट्विटर) को नियंत्रित करने की साज़िश।
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महाकवि दिनकर याद आ रहे हैं:
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।
तो सवाल यह नहीं कि कोरोना-उत्प्रेरित वैश्विक महाभारत होगा या नहीं बल्कि यह कि अपार सृजन की संभावनाओं वाले इस आसन्न महायुद्ध में हम कहाँ होंगे? सृजन का मार्ग प्रसस्त करते समय के सनातन बुलडोज़र पर सवार होंगे या उसके सामने खड़े होंगे? यहाँ तटस्थता का एकमात्र अर्थ होगा: सामूहिक आत्महत्या।
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