Sunday, November 23, 2014

दलित-पिछड़े नेता और कबीर

दलित-पिछड़े नेताओं/बुद्धिजीवियों/समाजसुधारकों  में किसी को कबीर जैसी स्वीकार्यता खुद अपने ही समाज में क्यों नहीं मिली?

नोट: मित्र कौशल किशोर की धारदार टिप्पणी

चंद्रकांत जी हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के पहले कबीर की हूँ स्वीकार्यता हिंदी समाज में कितनी थी ? जोतिबा फुले को अगर आप मात्र पिछड़े समाज का सुधारक न की व्यापक हिन्दू समाज का सुधारक मानते हैं तो उनकी स्वीकार्यता तो है ।डॉ राम मनोहर लोहिया को पता नहीं आप किस खांचे का और उनकी प्रसिद्धि आप किनमें पाते हैं।कर्पूरी ठाकुर को किनका नेता और उनकी प्रसिद्धि किनके बीच पाते हैं। कांशी राम पर आपको क्या कहना है ? क्या इनकी प्रसिद्धि गैर दलितों में थी और क्या मायावती उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की मुख्यमंत्री नहीं थी । और अखिलेश यादव और मुलायम यादव किनके बुते सत्ता में हैं और इनकी प्रसिद्धि किनके बीच है ? तमिलनाडु में आज किनको इतिहास पुरुष माना जाता है और किनको लोक स्मृति से विस्मृत कर दिया गया है ?

दूसरी बात कबीर की लोकप्रियता बनाम तुलसी दास की लोकप्रियता ! इन तबकों की बातें छोड़िये । अगर कबीर जैसा व्यक्तित्व पिछले 500 सालों में दो चार भी ही गए होते तो ब्रितानिया की बजाय सारे संसार पे हिन्दुस्तान की हुकूमत होती । सोचने वाली बात तो ये है के हिन्दुस्तान में कबीर के बाद कबीर जैसा कोई हुआ भी ?अगर नहीं तो क्यों नहीं। ज्ञान के नाम पर रट्टू तोतों की फ़ौज़। संस्कृत के नाम पे सत्यनारायण स्वामी की कथा। और ये रट्टू तोते बन गए संस्कृत के महापंडित । पिछले एक हज़ार सालों में संस्कृत में अगर कुछ सार्थक लिखा गया तो वह था  कंठभरणम और वो भी हज़ार साल पहले । उसके बाद अगर कुछ लिखा भी तो कोकशास्त्र के नए संस्करण । तो ये तो कुल बौद्धिक उपलब्धि है पिछले 1000 साल की । भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने अशोक और गौतम बुद्धा और नालंदा महाविद्यालय और तक्षशिला को खोज कर हमें दिखाया । और तो और संस्कृत वांगयमे से पर्चे करवाया । नहीं तो ये पांडा पुरोहित रूपी रट्टू तोतों की कैद में मरणासन्न था ।

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