Wednesday, July 1, 2015

मीर और फैज़ का भी तो कुछ लगता हूं...



संकल्प लिया था कि अब मांस-मछली खाना बंद.मेरी मां ने बाबूजी(मेरे पिता) को उनके गुजरने के कुछ सालों पहले तुलसीदास का हवाला देते हुये धमकाया था: 'मांस-मछ्ली जो करे आहारा, चौंसठ जनम गिद्ध अवतारा '. बाबूजी बात मान गये थे. आखिर मैं भी उनका बेटा हूँ.

पर पुरानी दिल्ली की गलियों में कल  इफ्तार के दौरान जब बाणभट्ट की तरह आवारा घूम रहा था तो बाबूजी के साथ-साथ मीर याद आये,और फिर तारी हो गये फैज़.मैंने सोचा कि अगर मैं ईया(मां) और  बाबूजी का बेटा हूँ तो मीर और फैज़ का भी तो कुछ लगता हूँ. तो चचा मीर ने अगर कभी कहीं '...तर्क़ इस्लाम' किया और फैज़ ने पाकिस्तान की जेल में '...इस्लाम से तौबा किया' तो मुझे भी तो कुछ छोडना होगा. सो हमने भी अपना जनेऊ उतार फेंका और आव देखा ना ताव,सीना तान घुस गये करीम में.

कसम खुदा की मियां, नथुने फुलने लगे जब भांति-भांति के गोश्त के पकवान की सुगंध आक्सीजन से भी ज़्यादा प्राणवायु लेकर अंदर जा रही थी. समय कम था सो हमने सिर्फ गोश्त मुगलाई और खमीरी रोटी से ही काम चलाया.बाहर निकलते  हुये कश्मीर के शालीमार बाग की पंक्तियां याद आईं:
ज़मीनपर गर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है...

अली मर्दान खान का लिखा शंकर का भजन भी याद आने लगा:
...आज मैंने सपने में शंकर को देखा...

शिवरात्रि के दिन के कश्मीरी प्रसाद (कलेजी-भात) की याद कर दिल-दिमाग भींगने लगा. सोते-सोते गोश्त के करीमी-स्वाद के साथ-साथ कम्बख्त 'दीर्घतमा' ( बिहार के एक वैदिक ऋषि) की ऋचा का मुख्यांश भी याद आया:

एकोसद्विप्रा बहुधा वदंति...

फिर सपने में याद आये गोएथे:

विचारधारायें सारी मुर्झा गयी हैं , जीवन-वृक्ष निरंतर  हरा है...

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