Thursday, August 27, 2015

जातिविरोध या सवर्ण विरोध: जो रोगिया को भावे, सो वैदा फरमावे



#जातिप्रथा का विरोध का संवैधानिक आधार तो मजबूत है लेकिन जमीन पर इसका मतलब है सिर्फ #ऊँची_जातियों या #सवर्णों_का_विरोध, #जाति_विभेद का विरोध नहीं।

इस कारण यह नकारात्मक ज्यादा है, सकारात्मक कम।छोटी लाइन की जगह बड़ी लाइन खींचने के बजाए यह बड़ी लाइन को प्रतिकार और बदले की भावना से छोटा करना चाहती है।
इस कारण हम #नव_सवर्ण पैदा कर रहे हैं जो सवर्णों के सभी 'दुर्गुणों ' से लैश हैं  यानी #जाति_मुक्त समाज में उनकी कोई रुचि नहीं।
यह एक #संविधान_पोषित #आभिजात्यीकरण (Sanskritization) है जो संविधान की मूल भावना की ही चोर दरवाजे से हत्या कर रहा है।
इस पूरी प्रक्रिया को सही मानने का मतलब है कि पारंपरिक जातिप्रथा और आधुनिक संविधान-पोषित #जातिवाद दोनों ही समाज की जरूरत हैं तभी तो विरोध सवर्णों का हो रहा है, उस सिस्टम का नहीं जिससे ये सवर्ण पैदा हुए।
कल जब नव-सवर्ण पारंपरिक सवर्णों को विस्थापित कर #नव_अवर्ण बना देंगे तब नव-अवर्णों तथा लाभ-वंचित पारंपरिक अवर्णों का एक नया गठबंधन खड़ा होगा जो शुद्ध आर्थिक लाभ के लिए नव-सवर्णों का विरोध करेगा।
जातिजनित विभेद के खिलाफ खड़ा होना इनका मुख्य एजेंडा नहीं होगा बैनर पर यही सब लिखा होगा।
सही मायने में ऊपर-ऊपर जाति-विरोध और अंदर-अंदर जाति-जनित लाभों से प्रेम ---#भारत और #इंडिया दोनों के #दोहरेपन का अनुपम उदाहरण है ।
और हाँ , इसे हमें अपना अनआॅफिशियल  #राष्ट्रीय_चरित्र मानने में देर नहीं करनी चाहिए!
असली बात यह है कि जात-जाति के मामले में हमारी स्थिति उस मलेरिया पीड़ित मरीज की तरह है जो नहीं चाहता कि वह पूरी तरह इस बुखार से छुटकारा पाए । हर छह महीने पर उसे बुखार होता है और वह ईलाज के नाम पर छुट्टी लेकर घर बैठ जाता है।डाक्टर को तो इससे लाभ ही है ।
इसको कहते हैं:
'जो रोगिया को भावे, सो बैदा फरमावे' ।

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