Tuesday, February 9, 2016

फ़ाज़ली ने अपनी शायरी को अरबी-फ़ारसी की ठूँसा-ठूँसी से मुक्त रखा

निदा #फ़ाज़ली की #शायरी की सादगी वली #दक्कनी जैसी है। लगता है कोई कान में धीरे से बहुत मार्के की बात कह गया है जो दिमाग से ज्यादा दिल पर असर करती है:

कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता।

हिन्दी-उर्दू के चोंचले से ऊपर अपने लिए एक ग़ुलाबी ज़ुबान की जो इमारत उन्होंने गढ़ी उसका गाड़ा और मिट्टी उन्होंने #अरबी-फ़ारसी से कम और लोक भाषाओं से ज़्यादा  लिया था।

इस तरह वे #ग़ालिब से ज़्यादा #नज़ीर अकबराबादी और मीर से जुड़ते हैं।एक ऐसा शायर जो #गंगा_जमुनी तहजीब की सीमाओं को अपनी बहुसांस्कृतिक रुझान से #कावेरी और #गोदावरी तक ले जाता है।

ऐसे लोग जब जाते हैं तो उनके पाठकों का वही हाल होता है जो माँ-बाप के न रहने टुअर संतानों का।
अब्बा जान, हम आपको बहुत मिस करेंगे।

आपको लेकर थोड़ी परेशानी भी है क्योंकि आप ठहरे ख़ुदाबंद और  ऊपर तो 'हूर-बाज़ अल्लावालों' ने आजकल कब्जा सा जमा लिया है।इतना तो पक्का है कि वहाँ आपको मन नहीं लगेगा।
#NidaFazli #Faazli #NidaFaazli

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home