'क्या होना चाहिए' बनाम 'क्या संभव है'
इस्लाम और साम्यवाद आतंकवाद के पर्याय क्यों?
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सवाल मनुष्य को बदलने का उतना नहीं है जितना कि वह किसी खास देशकाल में जो भी है जैसा भी है उसका कैसे उसकी और समाज की बेहतरी के लिए उपयोग हो। यानी क्या होना चाहिए से ज़्यादा ज़रूरी है यह जानना कि क्या सम्भव है जो पहले से बेहतर है। यह तभी संभव होगा जब मनुष्य के लालच (अर्थ, काम) को उतनी ही स्वीकृति मिलेगी जितनी की उसके कर्त्तव्य और त्याग को (धर्म, मोक्ष)।
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मनुष्य को बदल डालने के चक्कर में साम्यवाद और इस्लामवाद दोनों आतंकवाद का पर्याय बन गए हैं जबकि पूँजीवाद हर संकट के बाद और मजबूत होकर उभरता है।
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साम्यवाद स्खलित हो चुका है, फेल हो चुका है और भारत के जमे हुए साम्यवादी भारत-विरोधी ताक़तों और देशों के एजेंट बनकर रह गए हैं।जो ईमानदार हैं लेकिन बुद्धिवीर नहीं वे बुद्धिपिशाच और बुद्धिविलासी कॉमरेडों के लिए कामधेनु-भीड़ से ज़्यादा कुछ भी नहीं।
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दूसरी तरफ इस्लामवादी पूरी दुनिया में अपनी आख़री लड़ाई लड़ रहे हैं।आज भी उनके हाथ में छठी सदी की तलवार है जबकि जिनको को वे हलाल करना चाहते हैं उनके पास दुनिया भर के ज्ञान-विज्ञान की असीमित ताक़त है।
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एक तरफ़ तलवार लेकर खड़े 160 करोड़ साम्यवादी-इस्लामवादी हैं तो दूसरी तरफ़ 600 करोड़ जीवन-वादी जो मनुष्य के सभी नैसर्गिक गुणों को सहज स्वीकार एक बेहतर समावेशी दुनिया बनाने की ज़िद के साथ एक हाथ में ज्ञान की मशाल तो दूसरे में आत्मरक्षार्थ अत्याधुनिक हथियार का रिमोट लिये खड़े हैं।
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सवाल यह नहीं है कि जीत किसकी होगी बल्कि सवाल यह है कि यह भीषणतम विश्वयुद्ध कब होगा और उसमें हम कहाँ खड़े होंगे। एक बात जो पक्की है वह यह कि मनुष्य को उसकी नैसर्गिक ताक़त और कमज़ोरियों से विलग करनेवाली तलवार को खण्ड-खण्ड होकर बिखर जाना है।
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सवाल मनुष्य को बदलने का उतना नहीं है जितना कि वह किसी खास देशकाल में जो भी है जैसा भी है उसका कैसे उसकी और समाज की बेहतरी के लिए उपयोग हो। यानी क्या होना चाहिए से ज़्यादा ज़रूरी है यह जानना कि क्या सम्भव है जो पहले से बेहतर है। यह तभी संभव होगा जब मनुष्य के लालच (अर्थ, काम) को उतनी ही स्वीकृति मिलेगी जितनी की उसके कर्त्तव्य और त्याग को (धर्म, मोक्ष)।
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मनुष्य को बदल डालने के चक्कर में साम्यवाद और इस्लामवाद दोनों आतंकवाद का पर्याय बन गए हैं जबकि पूँजीवाद हर संकट के बाद और मजबूत होकर उभरता है।
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साम्यवाद स्खलित हो चुका है, फेल हो चुका है और भारत के जमे हुए साम्यवादी भारत-विरोधी ताक़तों और देशों के एजेंट बनकर रह गए हैं।जो ईमानदार हैं लेकिन बुद्धिवीर नहीं वे बुद्धिपिशाच और बुद्धिविलासी कॉमरेडों के लिए कामधेनु-भीड़ से ज़्यादा कुछ भी नहीं।
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दूसरी तरफ इस्लामवादी पूरी दुनिया में अपनी आख़री लड़ाई लड़ रहे हैं।आज भी उनके हाथ में छठी सदी की तलवार है जबकि जिनको को वे हलाल करना चाहते हैं उनके पास दुनिया भर के ज्ञान-विज्ञान की असीमित ताक़त है।
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एक तरफ़ तलवार लेकर खड़े 160 करोड़ साम्यवादी-इस्लामवादी हैं तो दूसरी तरफ़ 600 करोड़ जीवन-वादी जो मनुष्य के सभी नैसर्गिक गुणों को सहज स्वीकार एक बेहतर समावेशी दुनिया बनाने की ज़िद के साथ एक हाथ में ज्ञान की मशाल तो दूसरे में आत्मरक्षार्थ अत्याधुनिक हथियार का रिमोट लिये खड़े हैं।
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सवाल यह नहीं है कि जीत किसकी होगी बल्कि सवाल यह है कि यह भीषणतम विश्वयुद्ध कब होगा और उसमें हम कहाँ खड़े होंगे। एक बात जो पक्की है वह यह कि मनुष्य को उसकी नैसर्गिक ताक़त और कमज़ोरियों से विलग करनेवाली तलवार को खण्ड-खण्ड होकर बिखर जाना है।
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