Sunday, August 7, 2016

गाँधी-हत्या के लाभार्थी: घोषित राष्ट्रवादी, काँग्रेसी और अंग्रेज़

एक औसत सरकारी राष्ट्रवादी के डीएनए में क्या है यह जाने बिना असल राष्ट्रवादियों को बड़ी निराशा होगी जैसा कि मोदी जी के कल(6अगस्त 2016) के 'टाउन हॉल' के बाद होता दिख रहा है।

तो एक औसत सरकारी या घोषित राष्ट्रवादी के लक्षण क्या हैं?
आप इन तीन पैमानों पर उसे परखिये यानी यह पता करिये कि वह
1. बुद्धिविरोधी,
2. बुद्धिवंचित या
3. बुद्धिवंचक
या किसी दो का मिलाजुला रूप है कि नहीं?
फ़िर यह पता करिये उसमें किस लक्षण का आधिक्य है। एक बात पक्की है कि वह हर हाल में बुद्धिविलासियों या बुद्धिपिशाचों यानी सेकुलर-लिबरल-कम्युनिस्टों से ईर्ष्या करता है और मन ही मन उनके जैसा बनना चाहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो उसके जैसे लोग अपने बीच के सावरकर जैसे बुद्धिवीरों की विरासत को आगे बढ़ाते न कि सत्ता में आने के बाद वह मूर्खता करते जो वाजपेयी ने एक विदेशमंत्री (1977-80) के रूप में इन्दिरा गाँधी की बलुचिस्तान नीति को मटियामेट करके किया। इसी के बाद पाकिस्तान ने भारत को ख़ालिस्तान और कश्मीर में जबर्दस्त दख़ल का तोहफ़ा दिया था।

इसके मूल में है मानसिक ग़ुलामी जनित बौद्धिक कायरता।भारत इसलिए ग़ुलाम नहीं हुआ था कि यहाँ योद्धाओं की कमी थी, बल्कि इसलिए कि यहाँ के बौद्धिक (सामान्यतः ब्राह्मण ) और श्रेष्ठ (सेठ या बनिया) तबके को कायरता की हद तक अहिंसा का रोग लग गया था। पता करिये कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अविभाजित बंगाल में विद्रोह की अगुआई करनेवाले ज़्यादातर किस समुदाय से आते थे? क्रांतिकारी सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन छेड़नेवाले किन समुदायों से आते थे?
विवेकानन्द, अरविन्द घोष, रासबिहारी बोस, नेताजी, राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण सरीखे लोग पारम्परिक बौद्धिक समुदाय (ब्राह्मण) से क्यों नहीं थे?

पिछले दो हज़ार सालों में शंकराचार्य के बाद अखिल भारतीय देसी रणनीतिक सोच रखनेवाला कौन हुआ? गाँधी को छोड़ शून्य बटा सन्नाटा है। बौद्धिक कायरता की हद देखिये कि वे नेताजी का काँग्रेस से निकाला जाना बर्दाश्त कर लेते हैं; उनकी मृत्यु की झूठी ख़बर देनेवाले, संविधान में धारा 370 घुसेड़नेवाले और सेना को चीनी हमले के पहले निःशस्त्र कर देनेवाले नेहरू को सर आँखों बिठाते हैं, लेकिन भारत के लिए लंबा सपना देखनेवाले रणनीतिक दृष्टिसम्पन्न गाँधी के विचारों की हत्या कर डालते हैं।
सो कैसे?

गाँधी हर चीज़ को भारतीय दृष्टि से देखते थे जो तन से भारतीय और मन से ग़ुलाम नेहरू को एकदम पसंद नहीं था।नेहरू की आँखों के काँटा हो गए गाँधी जब उन्होंने कहा कि कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। गाँधी न तन से कायर थे न मन से। भारतीय आभिजात्य की मानसिक ग़ुलामी और बौद्धिक कायरता के मद्देनज़र उन्होंने अहिंसा को एक स्ट्रैटेजिक औज़ार की तरह इस्तेमाल किया था। ऐसा नहीं होता तो 1942 में वे 'करो या मरो' का नारा क्यों देते?

भारत के एक राष्ट्रवादी नाथुराम गोडशे ने
 इस आकाशधर्मी रणनीतिकार की हत्या क्यों की? इसलिए नहीं कि वह कायर था या उसे अपनी जान का डर था बल्कि वह हिन्दू-बौद्धिक कायरता का अप्रतिम उदाहरण था जो जाने-अनजाने अंग्रेज़ों और उनके मानसिक ग़ुलाम पिट्ठू नेहरू के हाथों का खिलौना बन गया क्योंकि वह भी नाक के आगे देखने में असमर्थ था; उसे पाकिस्तान से आती हिंदुओं की लाश तो दिख रही थी लेकिन यह नहीं दिख रहा था कि अंग्रेज़ों और अभिजात वर्ग की मदद से नेहरू भारत और भारतीयता की ही हत्या करने में लगे हैं। इस लिहाज से गोडशे समेत ज़्यादातर राष्ट्रवादी जमात के लोग इस्लामी और बर्तानवी अत्याचार की प्रतिक्रिया में पैदा हुए अन्धविरोधी थे न कि आधुनिक भारत को निर्माण करने की देसी दृष्टि को लेकर आगे बढ़नेवाले नेता।वैसे गोडशे ने तीन ही गोलियाँ चलायी थीं तो चौथी कहाँ से आ गई? यानी गाँधी को मारने का पक्का इंतज़ाम था।

गाँधी की मौत के बाद देसी बौद्धिक राष्ट्रीयता वैसे ही टूअर हो गई थी जैसे आज वह छली गयी महसूस कर रही है। यह समझने के लिए ख़ुद से यह सवाल
पूछिये कि गाँधी की मौत से किसको फायदा हुआ?

1. अंग्रेज़ों को जिनकी रगरग से गाँधी वाकिफ़ थे और जिन्हें अपने मनमाफ़िक टट्टू दल को सत्तानशीन करने का पूरा मौका मिल गया;

2. नेहरू को जिन्होंने अंग्रेज़ों की मदद से अपने प्रतिद्वंदियों को रास्ते से हटाया और काँग्रेस को एक फैमिली बिज़नेस में तब्दील कर दिया(नेशनल हेराल्ड मामले को इसी सन्दर्भ में देखना उचित है);

3. भारत के स्वदेशी उद्योग की जगह कांग्रेस- पोषित चुनिंदा घरानों को जिन्होंने लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने में कांग्रेस की मदद की;

4. सोवियत संघ और चीन के पैसों पर पलनेवाले कम्युनिस्टों को जिन्होंने जेएनयू जैसे शीर्ष शिक्षण संस्थानों पर काबिज़ हो नयी पीढ़ी के मन में भारत और भारतीयता के प्रति गर्व के बदले शर्म की भावना भर दी; और,
5. बुद्धिविरोधी राष्ट्रवादियों को जिन्हें पंजाब और बंगाल से किसी तरह जान बचाकर दिल्ली पहुँचे हिन्दुओं में पैठ बनाने का मौका मिल गया।

सवाल उठता है कि आज़ादी के समय तो ऑफिसियल राष्ट्रवादियों की बौद्धिक कायरता और नेहरू की मानसिक ग़ुलामी ने मिलकर भारत की राष्ट्रीयता का गला घोंटा था लेकिन आज?■

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