Thursday, August 11, 2016

दलित चिंतक तो दलित ही रहेगा चाहे आप जो कर लीजिये

दलित चिंतक तो दलित ही रहेगा चाहे आप जो कर लीजिये; सोये हुये को जगाया जा सकता है, सोने का नाटक करनेवाले को नहीं। जब दमित बने रहने में फ़ायदा हो तो कोई क्योंकर मुक्त होना चाहेगा? हींग लगे न फिटकिरी और रंग चोखा।इसलिये सोने का नाटक करनेवाले के बजाय सोये हुए यानी शूद्रों को जगाइये तो पूरा देश जगेगा।
*
दलित अंग्रेज़ों की अनैतिक मानस संताने हैं जबकि शूद्र भारत माता के जिगर के टुकड़े जिनके चलते यह देश दो हज़ार सालों तक (अंग्रेज़ों के आने के पहले) दुनिया का आर्थिक सुपरपावर था। (सन्दर्भ: डॉ Tribhuwan Singh और
डॉ सोलंकी की फेसबुक वाल।)
*
ग़ज़नी के भांजे सालार मसूद की एक लाख की फौज को बहराइच(उत्तरप्रदेश) में धूल चटानेवाले (1034 ईस्वी) महाराज सुहलदेव पासी भी शूद्र ही थे। लेकिन न सेकुलर इतिहासकार उन्हें पसन्द करते हैं न दलित बुद्धिजीवी। अपनों से ऐसी बेरुखी क्यों? उसी प्रकार संत कबीर दास(जुलाहा) या संत रविदास (मोची) के नाम पर दलित चिंतक असहज से हो जाते हैं।

संत कबीर अपने को 'राम का कुत्ता' कहते थे जबकि दलित चिंतक दुर्गा को सगर्व और सक्रोध 'सेक्स वर्कर' कहते हैं। दूसरी ओर इतिहास पुरुष भगवान ईशा मसीह की कुआँरी माँ मैरी पर एकदम चुप रहते हैं। उनकी यह चुप्पी माता मैरी के प्रति आदर भाव के कारण नहीं बल्कि एक साज़िश के तहत है क्योंकि अगर ऐतिहासिक कुआँरी मैरी आदरणीया देवी हैं तो  'मिथकीय दुर्गा' 'सेक्स वर्कर' कैसे हो सकती हैं?
*
बकौल Sumant Bhattacharya , सनातन में चूँकि कोख पर नारी का अधिकार है इसलिए ईशा मसीह की माँ हमारे लिए स्वाभाविक तौर पर दैवीय हैं।इसके लिए हमें किसी अमेरिकी-यूरोपीय विश्वविद्यालय, ईसाई मिशनरी या मोमिन-पोषित स्कालरशिप और विदेशयात्रा की जरूरत नहीं है।

ऐसा लगता है कि बेचारे कबीर या रविदास का विरोध समाज की कुरीतियों से था, अपने सनातनी समाज और देश से नहीं, इसलिये दलित चिंतक उनको घास नहीं डालते। वे करोड़ों लोगों के पथ-प्रदर्शक थे और हैं; वे दलित नहीं मुक्त थे, इसलिये करोड़ों लोगों की मुक्ति के कारक बने। बाबा साहेब अम्बेडकर का परिवार भी कबीरपंथी था।
*
कबीर की बुनकरी और रविदास की चर्मकारी उनके भरण-पोषण के लिए काफ़ी थी, इतना कि शहंशाहों के ताज उनके सामने हाज़िरी बजाएँ। लेकिन हमारे दलित चिंतक पता नहीं क्यों ताज देखते ही लार टपकाने लगते हैं; और न सिर्फ़ आज बल्कि पीढ़ी- दर-पीढ़ी दलित बने रहना चाहते हैं।
इससे यह भी जाहिर होता है कि दलितापा एक मानसिक स्थिति है जिसका सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है जैसे कि  जेहादियों का शिक्षा और समृद्धि से।

सवाल उठता है कि जो शौक से या पेशेवर दमित-वंचित-कुचलित-कुंठित है वह चिंतक कैसे हो सकता है ? जो ख़ुद सत्ता और धन की गिरफ़्त में है वो किसी और को मुक्ति कैसे दिला सकता है? ऐसे लोगों के लिए ही कबीर कहते थे:

"माया का गुलाम गिदर क्या जाने बंदगी"।
*
कबीर ने यहाँ गीदड़ की उपमा ही क्यों दी? इसलिये कि दूसरे जानवरों की मेहनत से अर्जित भोजन पर चतुर-धूर्त गीदड़ अपना हाथ साफ करता है; वह श्रम के सौंदर्य का नहीं बल्कि काहिली और धूर्तता का प्रतीक है।
*
इसका कोई यह अर्थ न लगाए कि कबीर ने 500 साल पहले ही आज के दलित चिंतकों को लक्षित करके कुछ कहा होगा।वे वैसे भी भविष्यवक्ता नहीं बल्कि भविष्यद्रष्टा और भविष्यनिर्माता थे क्योंकि उन्हें अपने श्रम पर पूरा भरोसा था; वो तो उनके समकालीन 'सियार' थे जिनके जीवन का सूत्रवाक्य था:
'माले मुफ़्त दिले बेरहम'।

जो भी हो, 'दलित' की अवधारणा का गर्भधारण उनलोगों ने किया जो अभी भी मानते हैं कि मानव-जन्म ही पाप का फल है और जिस पाप से दुनिया को मुक्ति दिलाना हर ईसाई (ख़ासकर गोरे) का फर्ज़ है। राम जाने उसी फर्ज़ के चक्कर में बेचारे अबतक न जाने कितना फर्जीवाड़ा कर चुके हैं; पाप से मुक्ति और स्वर्ग की चाहत जो न कराये!
*
एक बात साफ है कि दलित चिंतक भले ही सलीबफरोशों के साथ मायामोह में चिपके हों पर  'सलीब का बोझ' उठाना उन्हें मंज़ूर नहीं।वे धम्मचक्र की शरण में जाना पसंद करते हैं ताकि  जीवनभर वे घोषित तौर पर दमित-कुंठित-वंचित-दुःखी-प्रताड़ित बने रहें और श्रम को हेय मानने के बावजूद श्रमिकों के नाम पर मलाई मारते रहें।
*
एक जन्मजात ईसाई मित्र का कहना है: बॉस, अपुन का ईसा मसीह तो बेलाग्ग बोलता है ऊँट भले ही सूई के छेद से निकल सकता लेकिन पैसावाला तो एकदम हैवन(स्वर्ग) के अंदर नहीं जाने सकता।फिर तुम्हारा मालदार दलित चिंतक ईसाई बनने का फालतू का टेंशन काहे को लेगा।
*
पर ऐसा कोई लोचा हिन्दू या बौद्ध धर्म में एकदम नहीं है।फिर पद-पैसा-विदेशयात्राबाज़ दलित चिंतक भाईलोग ईसाई बनकर स्वर्ग की अपनी सीट क्यों गवाएँ!

जाने क्यों 'ढोल-गवाँर' मार्का संत तुलसीदास की खलवंदना की एक चौपाई पर अपन के घासलेट दिमाग की सूई मानों अटक गई है:
गुन अवगुन जाने सब कोई।
जो जेहि भावे निक तेहि सोई।।
(गुण-अवगुण की पहचान रहते हुए भी लोग वही काम करते हैं जिसमें उनका मन लगता है।)
मिसाल के तौर पर शराब-गाँजा-चरस के दुष्परिणामों को जानते हुए भी लोग इसलिये उनका सेवन करते हैं क्योंकि ऐसा करना उन्हें भाता है।

नोट: चूँकि दलितापा निहित स्वार्थवश एक ओढ़ी हुई नकली मानसिक अवस्था है, यह अब किसी ख़ास जात और मजहब तक सीमित नहीं रही। मनरेगा और इस तरह के अनेक कार्यक्रमों ने हर जात-मजहब में 'दलित' पैदा करके ख़ासकर कृषि को अपूर्णीय क्षति पहुँचाई है।
*
दलितापा का यूरोपीय शिकार बना यूनान। कैसे? कुछ आप भी बोलिये।

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home