Friday, December 30, 2016

मानसिक ग़ुलामों को भी आज़ाद ख़याल शायर ग़ालिब इतना क्यों भाते हैं?

मानसिक ग़ुलामों को भी आज़ाद ख़याल शायर ग़ालिब इतना क्यों भाते हैं?


फेसबुक मित्र सुश्री Saira Qureshi ने याद दिलाई कि आज ग़ालिब का जन्मदिन  है। फिर क्या था मैं 19 वीं सदी के हिन्दुस्तान की यात्रा पर निकल पड़ा। जो देखा वो क्या था?
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कल्पना करिये एक जहाज़ की जो डूबने को अभिशप्त है और जिसपर सवार लोग निराश-हताश हैं कि अब क्या, डूबना तो है ही। ग़ालिब इसी जहाज़ और इसके यात्रियों के ऐसे शायर हैं जो घनघोर स्वाभिमानी, करुणामय और प्रतिभावान है। वे दर्द को आनंद तक ले जाते हैं और उसके सामने एक व्यक्ति के रूप में घुटने नहीं टेकते। लेकिन इसीलिए हमारे मानसिक ग़ुलाम बुद्धिजीवी वर्ग को ग़ालिब (भीषण रूप से आज़ाद ख़याल होने के बावजूद) इतना भाते हैं।
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यह दीगर बात है कि इस आज़ाद ख़्याली के बावजूद समाजी ज़िन्दगी का कोई वैकल्पिक सपना जो कबीर और नज़ीर में है वो ग़ालिब में अनुपस्थित है जबकि ग़ालिब का समाज अंतिम साँसे लेता हुआ समाज है, विकल्प के लिये तरसता समाज है क्योंकि 1857 की क्रान्ति हो चुकी है, अवाम ने अपनी तड़प दर्ज़ कर दी है लेकिन पढ़ुआ वर्ग अपनी मानसिक ग़ुलामी से बाहर आने को तैयार नहीं। ग़ालिब इस वर्ग की त्रासद स्थिति के प्रखर आलोचक भी हैं और प्रतिनिधि भी। ग़ालिब की यही ताक़त उन्हें कालबद्ध और कालजयी दोनों बनाती है।
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अभी भी एजाज़ हुसेन और दिनकर द्वारा उनपर लिखी टिप्पणियों की रौशनी में और इस रौशनी से बाहर जाकर भी उन्हें समझने की कोशिश कर रहा हूँ। सबसे बड़ी चुनौती उनके पाठकों के मन को डिकोड करने की है। कुछ-कुछ ऐसे जैसे जो लोग यहूदियों को पसंद करते हों वे हिटलर को भी पसंद करें या जो लोग गाँधी को पसंद करते हों वे दंगे भी फैलायें।
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फिर भी जो बात आईने की तरह साफ़ है वो यह कि नज़ीर अकबराबादी को छोड़ "वली से ग़ालिब तक किसी में भी अन्याय के विरोध की उमंग नहीं है" और ज्यादातर पर अकबर इलाहाबादी का यह व्यंग्य फिट बैठता है:

पेट मसरूफ़ है क्लर्की में,
दिल है ईरान और टर्की में।
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क्या यह आकस्मिक है कि उर्दू शुअरा नज़ीर और अकबर को ऊँचे पाये का शायर नहीं मानते? एक और ख़याल आ रहा है कि 20वीं सदी के मध्य में हिन्दुस्तान को आज़ादी मिलने, इसके मजहब के आधार पर बँटवारे (पाकिस्तान निर्माण) और 21 वीं के शरुआती दौर के पाकिस्तान के मानस तथा हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों को समझने के लिए 1750 से 1950 के बीच की उर्दू भाषा और उसके साहित्य की दिशा-दशा(चाल-चरित्र) का अध्ययन बड़ा दिलचस्प होगा। साहित्य के इस समाजशास्त्रीय अध्ययन पर फिर कभी।


27.12.16

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