औरत के जिस्म की नींव पर खड़ा है इस्लामी राज्य का सपना
■ औरत के जिस्म की नींव पर खड़ा है ख़िलाफ़त यानी इस्लामी राज्य का सपना। औरत के शरीर पर औरत का पूरा अधिकार हुआ नहीं कि बग़दादी और मसूद अज़हर दो कौड़ी के भी नहीं रह जाएँगे।
■ इसलिये तीन तलाक़ के मुद्दे पर मुल्ले और अल्लाह के बन्दे सब चुप हैं। चाहे क़ुरान हो या हदीस, कहीं से भी और किसी भी हवाले से औरत की ग़ुलामी को बचाये रखना इन लोगों के लिए जरूरी है। वोटबाज़ सेकुलर-वामी नेता भी इनके साथ हैं जबकि यह उनके सिद्धांतों के खिलाफ है क्योंकि वे मजहब को राज्य से अलग मानते हैं। लेकिन वोट का लालच जो न करा दे।
■ 60 बरस से ज़्यादा की और चार बेटियों वाली शाहबानो को गुजाराभत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश (1985?) को संसद से कानून बनवाकर निरस्त करवाना न सिर्फ लोकतंत्र का भद्दा मज़ाक था बल्कि यूरोप से उधार लिये गए सेकुलरिज्म के संकल्प का भी।
■ शायद इन्हीं अर्थों में महात्मा गाँधी ने बर्तानवी संसद को "वेश्या" का ख़िताब दिया था। वोटबाज़ नेता सही मायने में एक वेश्या के चरित्र की शुचिता के सामने कहीं नहीं टिकते क्योंकि वह तो अपनी आजीविका के लिये अपने जिस्म को वैसे ही बेचती है जैसे कोई कारीगर अपनी दक्षता को; परन्तु वह अपनी आत्मा को गिरवी नहीं रखती और न ही अपने देशहित का सौदा करती है। लेकिन वोटों के सौदागर तो अपने तात्कालिक हित के लिये खुद अपने और देश के भविष्य को दाँव पर लगा देते हैं।
■ एक वामपंथी मित्र ने लिखा है कि (जिस तरह क़ुरान-हदीस संविधान के खिलाफ हैं वैसे ही) मनुस्मृति भी संविधान-विरुद्ध है। यह तो तय है कि इस मित्र ने मनुस्मृति नहीं पढ़ी है। फिर भी अगर यह मान लें कि मनुस्मृति संविधान-विरुद्ध है तो हिंदुओं ने तो मनुस्मृति की ऊँची सत्ता को त्याग संविधान की सत्ता को कब का सर्वोच्च मान लिया। जिसे लोकतंत्र से डर लगता था उस तबके ने जिन्ना साहेब के कौल पर जिहाद की सीधी कार्रवाई की और मजहब के आधार पर देश बना लिया और उसका नाम रखा: पाकिस्तान। सवाल उठता है कि हिन्दुस्तान किस वजह से नापाक हो गया था कि पाकिस्तान बनाने की जरुरत आन पड़ी?
■ कोई यह न सोचे कि यह और ऐसी अन्य पोस्ट मुसलमान मित्रों को समझाने के लिये है। यह तो बस उनके और सेकुलर नेताओं के बारे में गाफिल काफ़िरों को आगाह करने के वास्ते एक काफ़िर का बौद्धिक प्रयास भर है।
10।10
■ इसलिये तीन तलाक़ के मुद्दे पर मुल्ले और अल्लाह के बन्दे सब चुप हैं। चाहे क़ुरान हो या हदीस, कहीं से भी और किसी भी हवाले से औरत की ग़ुलामी को बचाये रखना इन लोगों के लिए जरूरी है। वोटबाज़ सेकुलर-वामी नेता भी इनके साथ हैं जबकि यह उनके सिद्धांतों के खिलाफ है क्योंकि वे मजहब को राज्य से अलग मानते हैं। लेकिन वोट का लालच जो न करा दे।
■ 60 बरस से ज़्यादा की और चार बेटियों वाली शाहबानो को गुजाराभत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश (1985?) को संसद से कानून बनवाकर निरस्त करवाना न सिर्फ लोकतंत्र का भद्दा मज़ाक था बल्कि यूरोप से उधार लिये गए सेकुलरिज्म के संकल्प का भी।
■ शायद इन्हीं अर्थों में महात्मा गाँधी ने बर्तानवी संसद को "वेश्या" का ख़िताब दिया था। वोटबाज़ नेता सही मायने में एक वेश्या के चरित्र की शुचिता के सामने कहीं नहीं टिकते क्योंकि वह तो अपनी आजीविका के लिये अपने जिस्म को वैसे ही बेचती है जैसे कोई कारीगर अपनी दक्षता को; परन्तु वह अपनी आत्मा को गिरवी नहीं रखती और न ही अपने देशहित का सौदा करती है। लेकिन वोटों के सौदागर तो अपने तात्कालिक हित के लिये खुद अपने और देश के भविष्य को दाँव पर लगा देते हैं।
■ एक वामपंथी मित्र ने लिखा है कि (जिस तरह क़ुरान-हदीस संविधान के खिलाफ हैं वैसे ही) मनुस्मृति भी संविधान-विरुद्ध है। यह तो तय है कि इस मित्र ने मनुस्मृति नहीं पढ़ी है। फिर भी अगर यह मान लें कि मनुस्मृति संविधान-विरुद्ध है तो हिंदुओं ने तो मनुस्मृति की ऊँची सत्ता को त्याग संविधान की सत्ता को कब का सर्वोच्च मान लिया। जिसे लोकतंत्र से डर लगता था उस तबके ने जिन्ना साहेब के कौल पर जिहाद की सीधी कार्रवाई की और मजहब के आधार पर देश बना लिया और उसका नाम रखा: पाकिस्तान। सवाल उठता है कि हिन्दुस्तान किस वजह से नापाक हो गया था कि पाकिस्तान बनाने की जरुरत आन पड़ी?
■ कोई यह न सोचे कि यह और ऐसी अन्य पोस्ट मुसलमान मित्रों को समझाने के लिये है। यह तो बस उनके और सेकुलर नेताओं के बारे में गाफिल काफ़िरों को आगाह करने के वास्ते एक काफ़िर का बौद्धिक प्रयास भर है।
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