Sunday, July 26, 2015

सुरेश भट्टः ...ना काहू से बेटी बिअहिहौं



नवभारत टाइम्स (पटना) के दिनों में एक-दो बार उनको देखा था।नया-नया था वहाँ । ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत! क्योंकि मैं पत्रकारिता संस्थान से पढ़कर आया था और ज्यादातर लोग जीवन के संघर्षों के विश्वविद्यालय से तपकर आये थे। शायद इसीलिए भट्ट जी के बारे में मौखिक परम्परा से वह सब नहीं जान सका जो अभी-अभी नवेंदु कुमार जी के पोस्ट और उस पर टिप्पणियों को पढ़कर जाना है।लेकिन उनको पहचानने में क्षण भर भी नहीं लगा।यह थी उनकी शख्सियत-गुजरते हुए भी आसपास के लोगों पर  ऐसा असर छोड़ देना जो दूर तक और देर तक  रंग लाए ।ऐसे लोग मोमबत्ती की तरह जलते और मिटते हुए दूसरों को रौशन करते हैं।
अगर उन्हें नीचे यानी मधुर जलपान रेस्तराँ में चलने के लिए सामने वाले को कहना पड़ता था , इसका मतलब यह कि बिहारी मध्यवर्ग 1990 के दशक का अपहरण उद्योग डिजर्व करता था।
हम अपने हीरो के मरने का क्यों इंतज़ार करते हैं? इसलिए कि उनकी बौद्धिक, सामाजिक, राजनीतिक पूँजी पर हाथ साफ कर सकें? विधवा विलाप और रुदाली करते हुए यह साबित करना कि हम तो बर्बाद हो गए? चारों तरफ 'अंधकार छा गया' जैसा कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद नवभारत टाइम्स ने अपने बैनर हेड में कहा था?
आज ये सारे पोस्ट पढ़ते हुए श्रद्धांजलि शिल्पी शिवपूजन सहाय बहुत याद आए । वे हर ऐसी मौत पर सर धुनते , समाज को कोसते-से और फिर समाज की तरफ से माफी मांगते से प्रतीत होते थे।
असीमा भट्ट की पोस्ट तो एक तरह से क्रूर, सत्ता-भीरु और बहुभाँति लोलुप समाज के चाल-चलन और भवितव्य की ओर ईशारा करते हैं।अनिल सिन्हा ने अपने 'हीरो' के प्रति मराठी समाज की श्रद्धा का हवाला देकर इस बात को और पुष्ट ही किया है। नवेन्दु जी ने पृष्ठभूमि देकर हम जैसों को समृद्ध किया है।

कबीर के 'मन लागे मेरो फक़ीरी में' के साथ तुलसी के 'ना काहू से बेटी बिअहिहौं' के बिना आजीवन-कार्यकर्ता सुरेश भट्ट जी का  व्यक्तित्व पूरा नहीं होता क्योंकि उन्होंने ने अपनी बीबी-बच्चों की जिम्मेदारी पूरे ठसक के साथ समाज को सौंप दी थी। जड़ परंपराओं को ठेंगा दिखाते हुए ।

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