Wednesday, July 15, 2015

किसी बातचीत में गाली का प्रयोग कहाँ तक और क्यों स्वीकार्य होना चाहिए?


(अजित सिंह #iamajitsingh की पोस्ट को लेकर Saurabh Shekhar​  से संवाद I)

Saurabh Shekhar अपनी बात के पक्ष में तर्क देने से कोई दिक्कत नहीं है, मगर एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि ये भारतीय परंपरा के ध्वजवाहक बिना गालियों के अपनी बात क्यों नहीं रख पाते। मन में इतनी घृणा रख कर क्या कोई संवाद संभव है?

Chandrakant P Singh हमारी आपकी तरह गाली न देनेवालों को इसका समाज-मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिए नहीं तो हम सब बड़ी तेजी से (मोबाइल और इंटरनेट के कारण) निरर्थक हो जाएंगे।वैसे भी भारत का बुद्धिजीवी अपनी बुद्धिविलासिता और बौद्धिक कायरता के कारण मसखरे जैसी स्थिति को प्राप्त करता नजर आता है। 1973 की बात है।हमारे पड़ोसी गांव की दादी कहती थी:
जे जेतना पढुआ उ ओतना भड़ुआ।

गाली की भाषा का एक मतलब तो साफ है:
ईमानदारी और तिरस्कृत होने का भाव या फिर जल्दबाजी जैसे टीवी या फिल्म स्टूडियो खासकर टेक्नीशियनों के बीच।

Chandrakant P Singh वैसे मैं गाली से ज्यादा विषयवस्तु पर ध्यान देना उचित समझूंगा।और हां, 1991 में मैं गालियों की सार्थकता पर पीएचडी करने की सोच रहा था!

Saurabh Shekhar अंतरंग बात-चीत के दौरान या लोकजीवन में जिन गालियों का प्रयोग होता है उनमे हिंसा का नहीं अनौपचारिकता और बेबाकी का स्वर होता है। मगर फेसबुक पर आप एक सुचिंतित पोस्ट लिखते हैं और उसमें ऐसे सुभाषित का प्रयोग करते हैं तो विपरीत विचार वाले के प्रति गहरी नफरत और असहिष्णुता के अलावा कुछ भी जाहिर नहीं होता, यह हर विषयवस्तु को ढक लेता है।

Chandrakant P Singh अब 'अश्वगंधा' का ये सांसद क्या करेंगे? घोड़े से जोड़ेंगे। यह और कुछ नहीं शुद्ध कुपढ़ होने का प्रमाण है।

फिर गालियां बनी हैं तो क्यों बनी हैं? निश्चत रूप से यह पढुओं की सर्जनात्मकता की कुवत से बाहर है। ये तो 'भाखा' निर्माण करनेवाले तथाकथित अनपढ़ लोगों की मानस-फैक्ट्री से निकलती हैं और 'पढ़ुआ' लोगों द्वारा वैसे ही इस्तेमाल की जाती हैं जैसे अंधेरी सुनसान जगह पर किसी लड़की को देख कोई सभ्यसमाजी गाना गाए:

आज मचल जाए तो हमें ना बचइयो...

Saurabh Shekhar आप ठीक कह रहे हैं, तमाम बौद्धिक स्पेस पर अपढ़ जैसे छाते चले जा रहे हैं, वह दिन दूर नहीं जब नए से नए यौन रूपक गढ़ना ही सर्जनात्मकता की कसौटी बनेगी।
Saurabh Shekhar सांसद महोदय तो अपने अन्य सखाओं, सत्तधारी और सत्ताच्युत, की तरह राजनीति कर रहे हैं,उसकी क्या मीमांसा की जाये।

Chandrakant P Singh यह तो एक हद तक इस तरह की पोस्ट के पाठक का मसला ज्यादा है और पोस्टकार का कम। लालू प्रसाद जी 1990 के दशक में कैसी भाषा का इस्तेमाल करते थे: भुरा बाल साफ करो, वगैरह।असली मुद्दा लक्षित श्रोता है, न कि कोई भी। अब न हरि अनंत हैं न उनकी कथा!

Saurabh Shekhar लालू प्रसाद जी के साथ साथ उनकी भाषा का पर्याप्त मान-मर्दन किया जा चुका है,अब क्या दक्षिणपंथी विद्वजन किसी लालू जैसे मसखरे से प्रेरणा ग्रहण करेंगे?

Chandrakant P Singh मैं लालू जी को आजादी के बाद के सफलतम वक्ताओं में एक मानता हूँ। बिहार और देश के कुपढ़ बुद्धिविलासियों ने उन्हें सिर्फ जाति के चश्मे से देखा।लेकिन बाहरवालों ने उनके साथ ज्यादा न्याय किया है।

Saurabh Shekhar वक्ता ही क्यों मेरी नज़र में वे सफलतम नेताओं में से एक हैं। सत्ता तंत्र को सामाजिक विस्तार देने में उनकी भूमिका अचूक रही है। फेस वैल्यू पर तो उन्हें सिर्फ सवर्ण मीडिया और द्विज पार्टियों ने लिया।

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