Sunday, July 12, 2015

आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे...


आज मैं दो लोगों को धन्यवाद देना चाहता हूँ: Sumant Bhattacharya और अजित सिंह को।

दादा यानी सुमंत भट्टाचार्य ने दद्दा यानी अजित सिंह ‪#‎iamajisingh‬ से मेरा फेसबुक पर परिचय कराया। तो दादा हुए ' गुरू' और दद्दा हुए 'गोबिन्द' जिनके बेबाक विचारों से आशना हुए बिना रहा नहीं जा सकता । नहीं प्रभावित होने की सिर्फ एक शर्त है जिसका बयान 1973 के दिनों हमारे पड़ोसी गांव की एक दादी करती थी:

जे जेतना पढ़ुआ उ ओतना भड़ुआ...

मैं पढ़ुआ नहीं हूँ इस पर इसलिए विश्वास करना चाहिए कि मुझे इसे डिकोड करने में 40 साल लग गए। मैं तो बुद्धि के जंगल में विलास करनेवाले जेंटलमैन लोगों की जमात से बाहर खड़ा भारतीय आसमान को टुकुर-टुकुर देखता और अचंभित 'बुद्धू' हूँ जो अज्ञानतावश अपने को बुद्ध से जोड़ बैठता है।

क्योंकि बुद्धि का लगभग ठेका ही सेकुलर जमात को आधिकारिक तौर पर मिल गया, अब इस जन्म में मेरा खाक भला होगा। कहते भी हैं न कि --
आखिरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे...

लेकिन अपने देश और यहाँ के नागरिकों पर मेरा मुसल्लम ईमान है और संविधान की आत्मा के ऊपर कुछ भी नहीं मानता । यही हमारी सामूहिक और सार्वजनिन धार्मिक उपलब्धि है और ग्रंथ भी । पर पढ़ुआ लोग तो इसे मानने से रहे।शायद उन्हीं की शान में एक घोर 'साम्प्रदायिक' कवि तुलसीदास कह गए हैं:
बचन बज्र जेहि सदा पियारा , सहस नयन परदोष निहारा I

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