Wednesday, September 23, 2015

कलाम मुसलमान होने के बावजूद राष्ट्रीय हैं,यह एक अप्रिय सत्य है

* ऐसा अक्सर कहा जाता है कि बँटवारे के बावजूद मुसलमानों ने यहाँ रहने का फैसला किया, इसलिए उनपर किसी तरह का संदेह अनुचित और विभाजनकारी है। तार्किक रूप से यह  बात सोलह आने सही लगती है।
* इसलिए केन्द्रीय मंत्री डा. #महेश_शर्मा का यह कहना कि डा. #अब्दुल_कलाम #मुसलमान होते हुए भी #राष्ट्रवादी हैं, एक गैरजिम्मेदाराना और आहत करने वाला बयान है।
* लेकिन तब यानी बँटवारे के समय वस्तुगत स्थिति क्या थी और आज उसमें क्या तब्दीली आई है, इसके उत्तर उपरोक्त तार्किकता की पोल खोलते प्रतीत होते हैं।
*अगर आज एक औसत पढ़ा-लिखा मुसलमान औरंगजेब को दिल से और कलाम को दूर से सलाम करता है तो फिर इसमें क्या गलत है  अगर एक मंत्री ने कह दिया कि कलाम मुसलमान होने के बावजूद राष्ट्रीय है।यह एक सत्य है  जो अप्रिय है।बस, और कुछ नहीं ।
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* मजहब के आधार पर देश दो हिस्सों में बँटा था।भारी खून_खराबा हुआ। नरसंहार वहाँ ज्यादा हुए थे जहाँ मुसलमान ज्यादा थे क्योंकि जिन्ना ने उन्हें  'सीधी_कार्रवाई' का फतवा दिया था।
* और, बिहार और उत्तर प्रदेश के खाते-पीते और
 शिक्षित_मुसलमानों के बड़े तबके ने नवसृजित पवित्र भूमि यानी #पाकिस्तान का रुख किया था।
* बचे कौन? मुट्ठी पर शिक्षित-समृद्ध और ज्यादातर वो जो कहीं अपरिचित दूर देश जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।फिर भी पवित्र भूमि की कसक ज्यादातर के मन में तब भी थी और अब भी है।
* इसी कसक का पूरा लाभ उठाते हैं राजनेता उनका भयादोहन कर।
* बहरहाल, यह सब जानते हुए बहुमत ने  मुसलमानों को स्वीकारा ,  यह इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मुसलमानों के एक बड़े तबके ने भारत में रहना स्वीकार किया क्योंकि इस स्वीकार में लाचारगी ज्यादा है और स्वेच्छा कम।

यह बात तीन बातों से ज्यादा साबित हुई।
* मुसलमानों ने अलग पहचान यानी #पंथनिरपेक्ष राष्ट्र में अपनी पंथीय यानी #इस्लामी_पहचान को संविधान में मान्यता दिलवाई और #समान_नागरिक_संहिता का विरोध किया।

* 1980 के दशक में जब #शाहबानो केस में औरतों को संविधान की मूल भावना के तहत गुजारा भत्ता देने का
सुप्रीम_कोर्ट का फैसला आया तो मुसलमान सड़क पर उतर आये और संसद से कोर्ट के आदेश के खिलाफ कानून पारित करवा लिया।यानी मुस्लिम महिलाओं को देश की बाकी महिलाओं के बराबर अधिकार देने का विरोध किया और संविधान के रास्ते समाज_सुधार का एक मौका गँवाया।
* दूसरे, #कश्मीर के बहुमत मुसलमानों ने #आतंकवादियों को मूक समर्थन दिया #हिन्दुओं को वहाँ से भगाने के जेहाद में।क्यों, पूरे देश में यही एक क्षेत्र है जहाँ उनको लगा कि देर-सबेर इस्लामी शासन लागू किया जा सकता है।

* इसके बावजूद किसी भी हिन्दू बहुल राज्य से मुसलमानों को हत्या, लूट और अपहरण की धमकी देकर कश्मीर की तर्ज पर नहीं भगाया गया है।

* तीसरी बात, यह सर्वज्ञात है कि दिल्ली सल्तनत से लेकर मुगलिया शासन के दौरान हजारों #मंदिर राजाज्ञा से तोड़े गए लेकिन आजादी के लगभग सात दशक बाद भी हिन्दुओं के तीन तीर्थ स्थलों-काशी, मथुरा और अयोध्या-के मंदिर परिसरों में मंदिरों को तोड़कर बनाई #मस्जिदें बरकरार हैं और मुसलमान नेतृत्व ने मामलों के हल को हर स्तर पर उलझाया है।
इन तीनों बातों के मद्देनजर कुछ और प्रवृत्तियों पर भी गौर करना जरूरी है।
* औसत शिक्षित मुसलमान के लिए #खुसरो, #रहीम, #अकबर, #दारा शिकोह,  अब्दुल कलाम और
#आरिफ_मोहम्मद_खान आदर्श नहीं हैं क्योंकि वे #उदार और #समावेशी हैं।
तो फिर कौन उनके आदर्श हैं?
*मथुरा-काशी के मंदिरों के ध्वंश को सुनिश्चित करनेवाला #औरंगजेब--
जिसने दशवें सिख #गुरू_तेगबहादुर की आरे से चीरकर इसलिए हत्या करवा दी थी कि उन्होंने इस्लाम कबूलने से इनकार कर दिया था;
*#दाऊद_इब्राहीम --
जो 1993 के #मुंबई_बम_धमाकों का मास्टर माइंड था और जो फिलवक्त पाकिस्तान में रह रहा है;
*#ओवैशी और #आज़म--
जिनका एकमात्र एजेंडा है मुसलमानों की बुनियादी अलग #मजहबी_पहचान को बनाए रखने के लिए समाज सुधार और हमाहंगी की संभावनाओं को पंक्चर करना।
* ऐसा नहीं कि हिन्दुओं में आजम और ओवैशी नहीं हैं लेकिन वे मुख्यधारा के नेता नहीं हैं क्योंकि गैरमुसलमानों का #मध्यवर्ग मुखर है जबकि मुसलमानों ने मध्यवर्ग को उभरने ही नहीं दिया है।
* इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं में  'मुसलमान' जरूर पैदा होना शुरू हो गए हैं जो सिर्फ नाम के हिन्दू लगते हैं लेकिन उनकी सोच मजहबी ज्यादा और #सनातनी या #धार्मिक कम लगती है । यानी उनमें #सर्वपंथ_समभाव से ज्यादा मजहबी विशिष्टता की जबरदस्ती  तलाश का भाव है क्योंकि उनके  समावेशी स्वभाव को एक कमजोरी के रूप में परोसा गया है और हिन्दू होने पर शर्म करना सिखाया गया है।
* इस कारण एक औसत पढ़ा-लिखा हिन्दू अपने को बौद्धिक दुनिया में #मनोवैज्ञानिक_अल्पसंख्यक जैसा महसूस करता था जो कि देश और समाज के लिए ख़तरनाक संकेत है ।
* आजतक इन बातों पर कभी भी बड़े स्तर पर विमर्श को बढ़ावा नहीं होने दिया गया, वजह थी #वोटबैंक की राजनीति।
लेकिन आज #संचार_तकनीक ने सबको सबकुछ उपलब्ध करा दिया है और लोग सबकुछ समझ-बूझ कर सवाल पूछ रहे हैं जिनके जवाब #सेकुलरबाज़ #राजनीतिज्ञों के पास नहीं हैं ।

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