Wednesday, September 23, 2015

कोई ‪गैरमुसलमान‬ ‪‎ईमानदार‬ हो सकता है या नहीं?

प्रश्नः
गुँजन सिन्हा जी का अगला सवाल है: चूँकि ईमानदारी की अवधारणा ‪#‎इस्लाम_सापेक्ष‬ है, कोई ‪#‎गैर_मुसलमान‬ ‪#‎ईमानदार‬ हो सकता है या नहीं?
उत्तर:
वह तो हो ही सकता है तभी हम दोनों एक-दूसरे को ईमानदार मानते हैं (भले ही कहे न!) लेकिन यह मानना व्यवहारतः हमारे अलग ‪#‎साँस्कृतिक_संदर्भ‬ के कारण ‪#‎सनातनी‬ या ‪#‎धार्मिक‬ (‪#‎कर्तव्यनिष्ठा‬ ) के अधिक करीब है।
‪#‎चोला‬ ‪#‎अरबी‬ है पर ‪#‎आत्मा‬ ‪#‎भारतीय‬ है।
वैसे ही जैसे ‪#‎सेकुलरिज़म‬ को, जो महज कुछ सौ साल पुराना है, हम ‪#‎धर्मनिरपेक्षता‬ (जो ‪#‎सुहागरात‬ में ‪#‎रक्षाबंधन‬ के ‪#‎गीत‬ गाने का एक उदाहरण है) और ‪#‎पंथनिरपेक्षता‬
का समानार्थी मानते हैं लेकिन आचार में वह ‪#‎सर्वपंथ_समभाव‬ है क्योंकि यही हमारे साँस्कृतिक संदर्भ में स्वीकार्य है।

लेकिन धर्मनिरपेक्षता तो एक ऐसी अवधारणा है जो न सिर्फ सेकुलरिज़म का भीषण रूप से गलत अनुवाद है बल्कि अव्यावहारिक है क्योंकि आप और हम अपने ‪#‎धर्म‬ (‪#‎कर्तव्य‬ या ‪#‎गुण‬) से कैसे ‪#‎निरपेक्ष‬ हो सकते है?

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