Wednesday, October 7, 2015

हँसुआ के लगन आऽ खुरपी के बिआह... सुहागरात के समय रक्षाबंधन के गीत...


"... ये किसी #राजपूत के घर न खाते है न पानी पीते हैं क्योंकि वे जानवरों का बध करते हैं खाने के लिए, #गाय को छोड़कर क्योंकि गाय #अबध्य है और कोई उसको खा नहीं सकता ..."
17 वीं सदी के #फ्रांसीसी जवाहरात व्यापारी और यात्री
#Tavernier के यात्रा-वृत्तांत से उद्धृत, साभार Dr Tribhuwan Singh  की फेसबुक वाल से ।
यह वर्णन #मुग़लकाल में #वैश्यों का है ।
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#वेदों और मुगलकाल में जमीन आसमान का फर्क है।
वेदों के समय #अर्थव्यवस्था के केन्द्र में #कृषि नहीं थी तो #गोमांस_भक्षण आम बात थी।लेकिन #उपनिषदों तक आते-आते #अहिंसा पर जोर देना , खासकर गाय के संदर्भ में, बहुत जरूरी हो गया था।आकस्मिक नहीं है कि अहिंसा वादी धर्म के दोनों प्रवर्तक --#महावीर और #बुद्ध-- #क्षत्रिय थे जो जमीनी हकीकत से ज्यादा जुड़े थे। इतना ही नहीं, उपनिषदों में तो राजर्षि भरे पड़े हैं।
लेकिन #ब्राह्मणों की दाद देनी पड़ेगी कि कैसे #समाजहित में उन्होंने गोवध को न सिर्फ #अधार्मिक माना बल्कि उसको अपने जीवन में बरता भी।
जो लोग गोवध का विरोध करते थे उन्होंने माँसाहार पूरी तरह नहीं त्यागा लेकिन गोमाँस भक्षण करनेवाले ब्राह्मणों ने किसी भी तरह के माँसाहार को अपने जीवन से बाहर कर दिया क्योंकि उन्हें समाज और अर्थव्यवस्था की पूरी चिंता थी।धीरे-धीरे बात #धार्मिक_आचार से जुड़ गई ताकि उसपर अमल आसान हो सके।
#अहिंसा के सबसे बड़े प्रवर्तक महात्मा बुद्ध की मृत्यु खूनी बवासीर से हुई थी और खूनी बवासीर का कारण था #भिक्षा में मिले अधपके #सूअर के माँस का भक्षण।
नियम के अनुसार जो भिक्षा मिले उसे खाना जरूरी था।सो 80 बरस की उम्र में भी संघ आचार का पालन करने के लिए बुद्ध ने सब कुछ जानते हुए और जीवन का खतरा मोल लेते हुए माँसाहार किया।
तो बात संदर्भ की है, सिर्फ वेदों की नहीं।#इतिहास से
#देशकाल पर विचार के बिना कुछ भी सार्थक और संदर्भवान नहीं निकाला जा सकता।
खबरिया #मीडिया और #सेकुलरबाज़ #बुद्धिविलासी जो कह रहे  हैं उसके लिए एक #भोजपुरी लोकोक्ति है:
'#हँसुआ_के_लगन_आऽ_खुरपी_के_बिआह'।

यानी #सुहागरात के समय #रक्षाबंधन के गीत!

17 वीं सदी में भारत पूरी दुनिया की आय के एक-चौथाई का उत्पादक है और इस उत्पादन के केन्द्र में कृषि है और इस कृषि के लिए गाय आज के हिसाब से मेकैनिकल और इलैक्ट्रिकल दोनों उर्जा का पर्याय थी।ऐसे में गोकशी तो अर्थव्यवस्था और समाजव्यवस्था दोनों के लिए आत्महत्या जैसी बात होती।
ज्यादातर मुसलमान शासक मतांध जरूर थे लेकिन वे यहाँ के होकर रह गए थे और बेवकूफ नहीं थे कि अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार लें ।
अंग्रेज़ों को भारत की अर्थव्यवस्था और समाजव्यवस्था दोनों का सोद्देश्य विनाश करना था सो उन्होंने विधिवत गोकशी शुरू करायी।फिर यहाँ के गुलाम बुद्धिविलासी और सेकुलर-वामपंथी अपने आकाओं के ब्रह्मवाक्य को कैसे अपने जीवन में नहीं उतारते?
वे तो यह भी छिपाते रहे कि अंग्रेज़ जब आये थे तो भारत की आय पूरी दुनिया की आय का 25 फीसदी थी  और जब गये तो 2 फीसदी से भी कम थी।
और इस सेकुलर-वामी अर्थशास्त्री गिरोह ने इस स्थिति को 1990 तक बनाए रखा परिणाम हुआ भारतीय लोगों की उद्यमिता का  अंग्रेज़ों की तरह घोर अपमान और उपेक्षा ।

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