Friday, April 15, 2016

बाबा साहेब अंबेडकर के नाम खतः 1-2-3

बाबा साहेब,
जय भीम जय भारत!
पता नहीं क्यों आज (14 अप्रैल) आपकी याद आते ही बाबू बालमुकुन्द गुप्त के 'शिवशंभो के चिट्ठे' भी याद या गए सो थोड़ी बूटी छानी और चढ़ा ली।फिर होश ही नहीं रहा कि आपको खत लिखने के पहले कंठ लंगोट (टाई) बाँध लें।
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इसी चक्कर में एक और ब्लंडर हो गया।आप समझ ही गए होंगे कि भाँग की जगह अगर शराब पी होती तो अभी अंग्रेज़ी में लिख रहे होते और आपको वीर सावरकर की मदद से  हिन्दी में लिखी पाती पढ़ने की नौबत नहीं आती।
लेकिन मुझे विश्वास है कि लार्ड मैकाले हमें हिन्दी में खत लिखने और आपको पढ़वाकर सुनने की गलती के लिए माफ कर देंगे क्योंकि वे तो काले अंग्रेज़ों के लिए भगवान ईशू की तरह हैं और ईशू तो कन्फेशन के बाद हजार गलतियाँ भी माफ कर देते हैं।
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पार्ट-1:
खैर अब आते हैं मुद्दे पर।यह पाती पाती कम और स्वयंभू दलित चिंतकों की चुगली ज्यादा है।आप तो जानते ही हैं कि आजकल ई भाई लोग आपको भारत के एकमात्र संविधान -निर्माता के रूप में मार्केट कर रहा है जबकि संविधान सभा की अंतिम बैठक (26 नवंबर 1949? ) को संबोधित करते हुए आपने साफ-साफ स्वीकार किया था कि आपका मुख्य काम संविधान-सभा द्वारा स्वीकृत बातों को कागज पर उतारना था, उस संविधान सभा की बहसों को ठोस रूप देना था जिसके पहले  सभापति डा सच्चिदानंद सिन्हा और दूसरे तथा अंतिम सभापति डा राजेन्द्र प्रसाद थे।
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मुझे तो डर लग रहा है कि जैसे पंडित वीर जवाहरलाल ने गाँधी जी से टोपी लेकर गाँधीवाद को टोपी पहना दी, नागार्जुन ने संस्कृत में बौद्ध धर्म को लिखकर भगवान बुद्ध को देशनिकाला दे दिया वैसे ही कहीं ई चिंतक भाई लोग आपकी विशालकाय मूर्तियाँ बनाकर आपके काम को जय-भीमिया न दे।चेलों ने किसको छोड़ा है कि आपको छोड़ेंगे।
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पार्ट-2:
आप पूछेंगे कि नेहरू जी ने गाँधीवाद को कैसे टोपी पहनाई क्योंकि वे तो गाँधी जी के स्वघोषित उत्तराधिकारी थे? तो सुनिए आगे का हवाल।आपके जमाने में ही नेहरू जी के बेटी-दामाद 'गाँधी' हो गए थे।फिर नाती राजीव और संजय भी गाँधी हुए तथा परनाती राहुल गाँधी।इतना ही नहीं, राॅबर्ट वाड्रा से शादी के बावजूद प्रियंका गाँधी प्रियंका वाड्रा के रूप में नहीं जानी जातीं।इस तरह नेहरू जी के गाँधी परिवार ने काँग्रेस को फैमिली बिजनेस पार्टी बना दिया।लो हो गई काँग्रेस भंग!
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आपको याद होगा कि आजादी के बाद नेहरू जी की किसी हरकत से आहत होकर बापू ने कहा था कि काँग्रेस को भंग कर देना चाहिए। अब आपको समझ आ गया होगा कि नेहरू जी ने कितनी उदारता और निष्ठा से बापू की अंतिम इच्छा पूरी की।
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आज के दलित चिंतक भी गाँधी के उत्तराधिकारी पंडित वीर जवाहरलाल से काफी प्रेरित लगते हैं।आपकी हर बात को ब्रह्मवाक्य मानते हैं।कहते हैं बाबा साहेब सब पढ़ चुके थे, हमें अब उसपर अमल करना है, पढ़ने-लिखने और ठोकने-ठेठाने-जाँचने-परखने का अभी टाइम नहीं है!
उनका चले तो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कानून में संशोधन करवा कर आपकी कही बातों पर तर्क-वितर्क को प्रतिबंधित करवा दें--एक दम कुराने पाक के आयतों की तरह।लोग तो दबी जुबान से यह कहने भी लगे हैं कि दलित आलोचक वो होते हैं जो अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते।
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बाबा साहेब, दलित चिंतकों की आज की दिशा के लिए एक हद तक आप भी जिम्मेदार हैं।आप अगर ईसाई या मुसलमान हो गए होते तो ये बखेरा ही नहीं खड़ा होता।आपने हिन्दू धर्म से राम-राम कर बौद्ध धर्म क्यों अपनाया? आप कहेंगे: धर्म से धर्म में जाना स्वाभाविक है न कि मजहब या रिलीजन में क्योंकि धर्म कर्तव्य और बुद्धि-विवेक पर आधारित है जबकि रिलीजन-मजहब खास किताबों पर।लेकिन यहाँ तो आपके ऑफिशियल चेले अपनी बौद्धिकता को ताक पर रख मोसल्लम ईमान के साथ विवेक और तथ्य से आँखें मूँद भारतीयता को तारतार करनेवाले इवांजेलिस्ट गिरोहों की गोद में जा बैठे हैं।
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आज पादरियों और मुल्लों का मतांतरण सिंडिकेट आपसे बदला ले रहा है।जब वे थैली भर-भर कर लाइन लगाये खड़े थे कि आप उनके रिलीजन या मजहब की शरण में जाएँ और उनके बताये रास्ते से ही हैवेन या ज़न्नत का रुख करें तब आपने निर्वाण के रास्ते को चुनकर उनका अपमान किया।आज वे सूद समेत आपसे ही क्यों पूरे देश से बदला ले रहे हैं।ऐसा सूँघनी मंत्र फूँका है कि आपके चेले उनकी थैली के थाले से चिपक गए हैं।आलम यह है कि इस देश के हर मुद्दे पर निष्कर्ष उनके होते हैं और दस्तखत दलित चिंतकों के।
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पार्ट- 3
पिछले दिनों मनुस्मृति जलानेवाले मित्रों से यूँ ही जानकारी के लिए पूछ लिया कि आपमें कितनों ने इस ग्रंथ को जलाने के पहले पढ़ने का कष्ट उठाया है? जवाब मिला कि इस बावत बाबा साहेब ने जो फरमाया वह फुल-एंड-फाइनल है, कोई 'भूलचूक लेनीदेनी' नहीं है।
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मैंने सोचा अब अपन ही कुछ देह हिलायें तो बात बने।पंजाब-हरियाण हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश
एम. रामा जोइस की पुस्तक Ancient Indian Laws (Universal, 2003)में उल्लिखित निम्न श्लोक पर नज़र पड़ी तो मैं भौंचक रह गया:
"परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ ।
धर्म चाप्यपिसुखोदर्कं लोकविक्रुष्टमेव च ।।"
(मनुस्मृति-IV, 176)
(धर्म विरुद्ध धनार्जन और कामना त्याज्य है, धर्म के वे नियम भी त्याज्य हैं जिनसे कुछ लोगों को दुःख होता हो या जनाक्रोश फैलता हो।)
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इससे यह साबित होता है कि यह श्लोक तो मनुस्मृति का मूल-वाक्य है जो इसके किसी भी नियम को मानवीय-सामाजिक-राजनैतिक आधार पर बदलने की छूट देता है!
ऐसा अनेक बार हुआ है कि संसद में पास कानून को सर्वोच्च न्यायालय असंवैधानिक करार देता है या फिर संविधान में ही सौ से अधिक संशोधन हो चुके चुके हैं। इससे क्या पूरा संविधान फालतू हो गया? संसद के बनाये सारे कानून फालतू हो गए? समय के साथ बेकार हो गए कुछ नियमों के आधार पर  अगर मनु स्मृति को जलाना तार्किक है तो भारतीय संविधान को तो जलाना भी एकदम तार्किक होगा, हमारे एकमात्र 'संविधान निर्माता' डा साहेब!
क्या आपका ध्यान इस ओर एकदम नहीं गया था?
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यह तो समझ में आता है कि आपको संस्कृत सीखने का अवसर नहीं मिला और मूल किताबों को आप नहीं पढ़ पाए।फिर आपके राजनैतिक जीवन की भी अपनी व्यस्तताएँ कम नहीं रही होंगी।सो आपको मूलतः एम ए शेरिंग सरीखे मतांतरण के भूखे ईसाई पादरियों के भ्रष्ट अनुवादों पर निर्भर रहना पड़ा।इलाहाबाद के डा त्रिभुवन सिंह ने अपने अद्यतन शोधों (www.tribhuvanuvach.blogspot.in) से यह साबित किया है कि '... जात,जाति, वर्ण, सवर्ण, अवर्ण,शूद्र, वर्णाश्रम, जातिप्रथा, छुआछूत आदि मामलों में डा अंबेडकर ईसाई मिशनरियों के फर्जी अनुवादों के जाल में फँस गए'।
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लेकिन बाबा साहेब, तबतक तो आपके गौरांग महाप्रभु लाॅर्ड मैकाले द्वारा भारत में अधिष्ठित देववाणी अंग्रेज़ी में भी कुछ किताबें आ गईं थीं {The Case for India (Durant, 1930) ; India in Bondage (Sunderland, 1929)} जो भारत के न सिर्फ आर्थिक और राजनैतिक बल्कि सामाजिक अधोपतन (जातिप्रथा, छुआछूत, अशिक्षा आदि) में भी अंग्रेज़ी हुकूमत और ईशाई मिशनरियों की साजिशी भूमिका का पर्दाफाश करती थीं-ऐसी साजिश जिसके तहत हिन्दू समाज को छुआछूत और ऊँचनीच के लिए वैसे ही जिम्मेदार ठहराया गया जैसे किसी बलात्कार-पीड़िता के माँ-बाप को यह कहा जाए कि 'लड़के तो बलात्कार करेंगे ही, आपकी गलती है कि आपने लड़की पैदा ही क्यों की'!
यानी 'घोड़ा खुला है घोड़ी बाँधकर रखो'।
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आपको शायद याद हो कि इन किताबों को बरतानवी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था।वैसे भारत-दुर्दशा पर 1904 में मराठी मूल के सखाराम देउस्कर द्वारा लिखित बाँग्ला पुस्तक  'देशेर कथा' की 13000 प्रतियाँ 1908 तक बिक चुकी थीं यानी आज के मुहावरे में बेस्ट सेलर! इसे भी 28 सितंबर 1910 को जब्त  कर लिया गया जिसकी खबर 30 सितंबर 1910 को 'हितवाद' समेत सिर्फ दो अखबारों में छपी।
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संभव है प्रतिबंधित होने के कारण और गौरांग महाप्रभुओं को नाहक नाराज न करने के उद्देश्य से आपने इन किताबों पर अपनी नज़र फेरना उचित नहीं समझा हो।यह भी संभव है कि दुनिया के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों से उच्चतम शिक्षा (कोलंबिया से कानून और लंदन से अर्थशास्त्र में पी.एच डी) हासिल करने के बावजूद खुद छुआछूत का शिकार होने के कारण पैदा आक्रोश का आपके चिंतन पर असर पड़ा हो।और, स्वाभाविक रूप से दो सौ साल में पैदा हुई स्थिति को सुदूर अतीत पर आपने प्रत्यारोपित कर दिया और तब के बुद्धिजीवी वर्ग यानी ब्राह्मणों को इसके लिए जिम्मेदार माना।
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लेकिन बाबा साहेब, आजादी से कुछ सालों पहले (1940) अपनी पुस्तक Thoughts on Pakistan और आजादी के बाद में मतांतरण-लोभी पादरी-मुल्लों की थैलियों पर लात मारकर आपने साबित किया कि आपमें देश-दुनिया की स्वतंत्र समझ रखने की न सिर्फ क्षमता थी बल्कि उस पर अमल करने का नैतिक साहस भी।ऐसा लगता है कि जैसे-जैसे अंग्रेज़ी शासन के दिन करीब आते गए वैसे-वैसे आपका पैनापन बढ़ता गया।
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फिर भी डा साहेब, यह बात एकदम हजम नहीं होती कि 2 फरवरी 1838 को बरतानवी संसद में लाॅर्ड मैकाले के भाषण की प्रति आपके हाथ न लगी हो जिसमें उसने साफ-साफ कहा था कि भारत की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक-नैतिक समृद्धि को तहस-नहस किए बगैर इस देश को ज्यादा समय तक गुलाम नहीं रखा जा सकता; और यह महान उद्देश्य भारत की भाषाओं की जगह अंग्रेज़ी को थोपकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
फिर भी आपने अंग्रेज़ी को 'पितृभाषा' का दर्जा दिया?
 वैसे मेरा मन कहता है कि आपने इसमें भी कुछ अच्छा सोचा होगा।आप 64 विषयों के मास्टर के अलावा दो पी.एचडी समेत आठ डिग्रियों के धारक जो थे!
(जारी...)

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