Thursday, August 11, 2016

क्रांति की आउटसोर्सिंग

(क्या आप इस पोस्ट का शीर्षक देने की कृपा करेंगे?)

संता: प्राजी, क्रान्ति क्या होती है?
बंता: बहुत बड़ी चीज़ होती है।इसमें असली क्रांतिकारियों और ग़रीबों की बलि चढ़ती है।
संता: कुछ समझा नहीं!
बंता: सबसे पहले रूस में क्रान्ति हुई जहाँ 1917 से 1960 के बीच दो करोड़ से ज़्यादा लोगों की बलि देनी पड़ी।
संता: और चीन में?
बंता: अरे हाँ, रूस के अनुभव से प्रेरित होकर चीन ने चार करोड़ का आँकड़ा पार कर लिया।
संता: और भारत में कभी क्रान्ति हुई कि नहीं?
बंता: कॉमरेडों ने सब रूस और चीन के भरोसे छोड़ा हुआ था।हालाँकि चीन की लाल सेना ने तो 1962 में कोशिश भी की थी।
संता: रूस से कोई मदद?
बंता: वहाँ वालों ने अब क्रान्ति के धन्धे को ही राम राम कर दिया है।
संता: तो भारत वाले ख़ुद ही क्यों नहीं क्रान्ति कर लेते?
बंता: यहाँ वाले शुभ-लाभ में भरोसा रखते हैं।
संता: मतलब?
बंता: वे आउटसोर्सिंग की फिराक़ में हैं।
संता: चीन के अलावा कोई और आउटसोर्सिंग सेंटर है क्या?
बंता: हैं तो कई लेकिन अमेरिका, सऊदी अरब और  पाकिस्तान प्रमुख हैं।
संता: पूंजीवादी देश अमेरिका और इस्लामी देश पाकिस्तान-सऊदी अरब साम्यवादी क्रान्ति करायेंगे?
बंता: इस्लामी देश इस्लामी क्रान्ति का ठेका लेते हैं लेकिन अमेरिका जहाँ कहीं जिस किसी क्रान्ति में फ़ायदा दिख जाए उसी की सुपारी ले लेता है; खासकर सोवियत संघ के पतन के बाद क्रान्ति बरपा करने की अमेरिकी चुनौती बढ़ गई है और बिज़नेस भी। पिछले 30 सालों में अफगानिस्तान, इराक़ और सीरिया में इस्लामी क्रान्ति क्या अमेरिकी मदद के हो सकती थी?
संता: ख़ैर ये बताओ कि भारत में पहले भी आउटसोर्सिंग हुई थी क्या?
बंता: बिल्कुल।
संता: जैसे?
बंता: मोहम्मद ग़ोरी, महमूद ग़ज़नी, बाबर,  नादिरशाह और अँगरेज़ आख़िर क्यों पधारे थे!
संता: लेकिन ये सब तो हमलावर थे।
बंता: भारत-व्याकुल लोग तो 1962 के चीनी सद्प्रयास को भी भारत पर हमला कह देते हैं।

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