Thursday, December 22, 2016

क्या संघियों की पहचान गालियों से ही होती है?

क्या संघियों की पहचान गालियों से ही होती है?

गालियों पर चर्चा हो और गालियों के मनोविज्ञान पर न हो तो यह एकदम अवैज्ञानिक बात होगी। गाली सबसे ज़्यादा मजदूरों में चलती हैं तो क्या उन्हें निम्न श्रेणी का इंसान मान लिया जाए? ऐसा तो नहीं कि वे इतने पीड़ित हैं कि प्रतिकार के लिये उनके पास गालियों के सिवा और कुछ बचा ही नहीं है?
अब बात संघियों की। वे निस्संदेह ईमानदार लोग हैं और आज के सन्दर्भ में तो देशभक्ति के पर्याय से हैं। समाज सेवा और देसी शिक्षा में संघ के टक्कर का कोई संगठन है तो मुझे जानकार खुशी होगी।
फिर वे क्यों और किस बात से पीड़ित हैं कि गालियाँ देने लगे?
अव्वल तो सब ऐसा हो ही नहीं सकते। जो हैं वे हिन्दू बहुमत की पीड़ित अल्पसंख्यक मानसिकता के शिकार हैं। क्या भारत का बहुमत हिन्दू अल्पसंख्यक मानसिकता का शिकार नहीं बना दिया गया है पिछले 1000 सालों में?
इसके बावजूद किसी को अगर जिद हो कि गाली ही संघियों की पहचान है तो कोई क्या करे? सब कुछ जानते हुए भी लोग सिगरेट-दारू-गाँजा-चरस-हफीम के आदी हो जाते हैं कि नहीं?

बाबा तुलसीदास कह गए हैं:

भल अनभल जाने सब कोई।
जे जेहि भाव नीक तेहि सोई।।
(अच्छे-बुरे की जानकारी सब को होती है लेकिन व्यक्ति करता वही है जो उसे रुचता है यानी वह अपने स्वभाव के अनुकूल काम करता है।)

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