Thursday, December 22, 2016

जेहादियों की गोद में बैठे वामपंथी?

जेहादियों की गोद में बैठे वामपंथी?

जेएनयू के चुनाव परिणाम अगर वामपंथियों के पक्ष में जाते हैं तो यह बात निस्संदेह साबित होगी कि भारत-विरोध जेएनयू के समाज विज्ञान-भाषा-साहित्य-अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्रों के डीएनए में है और जिसकी जेनेटिक रिइंजिनीअरिंग ज़रूरी है। लेकिन यही बात पूरे देश के विश्वविद्यालयों पर लागू होती है क्या?

जनसमर्थन या वोट अगर एकमात्र पैमाना हो तो हिटलर और लालू को भी सही मानना पड़ेगा। कॉमरेड चंद्रशेखर और चंदाबाबू के तीन बेटों के हत्यारोपी  शहाबुद्दीन को भी सही मानना पड़ेगा।

और तो और, दिल्ली विश्वविद्यालय में 'सांप्रदायिक' ताक़तों की जीत को देश के मूड का बड़ा मानक मानना पड़ेगा क्योंकि वहाँ लगभग ढाई लाख छात्र हैं जबकि जेएनयू में मुश्किल से दस हज़ार। 'दस हज़ार ने चुने गद्दार और ढाई लाख ने खुद्दार' क्या खूब नारा बनेगा! वैसे यह भी सच है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में धनबल का जबर्दस्त इस्तेमाल होता है और वहाँ देशतोड़क विचारधारा को तवज़्ज़ो नहीं दी जाती।

हवाल यह है कि इसी दस हज़ार छात्रों वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अमेरिका में आईएसआई एजेंट फ़ई के बार-बार मेहमान बने और उसके बदले में सारे तथ्यों को ताक पर रखते हुए उन्होंने फ़रमाया: कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है।
ऐसे विश्वविद्यालय के डीएनए की पड़ताल ज़रूरी हो जाती है। आख़िर बलात्कारियों से लेकर भारत की बर्बादी के नारे लगानेवालों के समर्थन तक इसी या इस जैसे विश्वविद्यालय में क्यों?

एक दिलचस्प बात यह भी है कि जेएनयू में देश की बर्बादी के जिन नारों से पूरा देश दुःखी और अचंभित हुआ, वह जेएनयू के लिए आम बात है।
◆अफ़ज़ल की तीसरी बरसी पर ही जिहादी गोद में बैठे वामियों का देश को पता लग सका।
◆इसके पहले देश-विरोधी मुशायरे में दो सैनिकों की वहाँ पिटाई हो चुकी थी।
◆चीन के थिअनमान स्कवेयर में अप्रैल 1989 में 20000 छात्रों पर टैंक चलाने की घटना को पूँजीवादी साज़िश करार दिया जा चुका था।
◆छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा सीआरपीएफ के दर्ज़नों जवानों की हत्या पर जश्न मनाया जा चुका था।          ◆नेताजी को जापान के सम्राट तोजो का कुत्ता कहनेवाली पार्टी सीपीआई के कन्हैया कुमार को छात्रसंघ का अध्यक्ष चुना जा चुका था।
◆ बांग्लादेश की हिन्दू छात्रा से बलात्कार करनेवाले मुसलमान प्रोफेसर के पक्ष में वामपंथी गिरोह अपनी चट्टानी एकता साबित कर चुका था।
◆आज वहाँ उन शिक्षक और छात्रों दबदबा है जिनके आकाओं ने भारत पर चीनी हमले को "पूरब से आती लाल किरण" कहकर स्वागत किया था; और वे ही लोग कश्मीर-केरल-बंगाल की आज़ादी का राग अलापनेवाले जेहादियों से अपनी गोदभराई करवा रहे हैं।

असली चुनौती यह नहीं है कि जेएनयू के वामपंथी शिक्षक और छात्र जेहादियों की गोद में जाकर बैठ गए हैं। सवाल यह है कि वामपंथियों और जेहादियों में समानता क्या है और क्यों है? जेएनयू की घटनाएँ तो महज लक्षण (Symtom) हैं, असली बीमारी तो कुछ और ही है जिसकी जड़ में जेएनयू की स्थापना के उद्देश्य और वहाँ के शिक्षक तथा उनके द्वारा बनाये सिलेबस हैं।और वह बीमारी है आलोचनात्मक पढ़ाई के नाम पर भारत-विरोध और बहुसंख्यक-विरोध की अकुंठ स्वीकृति।
10।9

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