Monday, April 15, 2019

असली समस्या आज़म ख़ान है या उसकी इस्लामी सोच ?

'ग़ाज़ी' आज़म ख़ान की कोई ग़लती नहीं है। इस्लाम के अनुसार काफ़िर औरतें माले ग़नीमत होती हैं जैसे युद्ध में जीते घोड़े-हाथी-सोना-चाँदी। इन औरतों को सेक्स ग़ुलाम बनाने से लेकर बाज़ार में सब्ज़ी-भाजी की तरह बेंचना हलाल है और यह सब एक तरह का जिहाद है जिसके बिना 72 हूरों और 28 कमसिन लौंडों वाली ज़न्नत का टिकट नहीं मिलता।
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याद कीजिए कि आईएसआईएस (दाएश)  के ख़लीफ़ा अबु अल बग़दादी के मुजाहिदों ने कैसे यज़ीदी लड़कियों और औरतों के साथ बलात्कार किया, उन्हें  बंदी बनाया और निर्वस्त्र करके खुलेआम बाज़ारों में बेचा। इन लड़कियों के खरीददार भी पक्के मुसलमान थे, इस कृत्य पर गगनभेदी चुप्पी बरतनेवाले भारत समेत दुनियाभर के लोग भी मुसलमान थे क्योंकि उन्हें पता था कि बग़दादी के लोग जो भी कर रहे थे उसमें कुछ भी इस्लाम-विरोधी नहीं था।
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यही वजह है कि भारत के मुस्लिम बुद्धिजीवी या मुल्ले सब आज़म ख़ान द्वारा जया प्रदा के मानमर्दन पर चुप हैं या खुलकर उसका बचाव कर रहे हैं। यह चुप्पी या बचाव भी एक तरह का जिहाद ही है।
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इसलिए सवाल यह नहीं है कि आज़म ख़ान ने काफ़िर औरत जया प्रदा के अंतर्वस्त्रों के बारे में क्या कहा है बल्कि यह कि उसने ऐसा क्यों कहा है?
तात्कालिक कारण तो यह जान पड़ता है कि आज़म ख़ान के मुसलमान वोटर उसके उपरोक्त बयान पर ख़ुश हुए होंगे कि चलो काफ़िरों के राज में कोई तो सच्चा मुसलमान है जो एक जानीमानी काफ़िर अभिनेत्री के बारे में इस्लाम-सम्मत बयान दे रहा है। ऐसे ख़ुश वोटर आज़म पर वोटों की बारिश तो करेंगे ही।
लेकिन असली कारण यह है कि आज़म ख़ान के मुँह से वही बोल निकला है जो बचपन से उसे एक मुसलमान के रूप में सिखाया गया है। फ़िर इसमें आज़म ख़ान की क्या ग़लती?
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हिन्दू या ईसाई माता-पिता के बच्चों को किसी मुसलमान परिवार में छोड़ दिया जाए जहाँ उन्हें यह सिखाया जाए कि काफ़िर औरतें माले ग़नीमत होती हैं तो वे भी आज़म खान के ही बोल बोलेंगे।
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याद है इंग्लैंड की उस शादीशुदा मुस्लिम युवती का इंटरव्यू जो आईएसआईएस में भर्ती होने के लिए सीरिया चली गई थी? वह भी वहाँ जिहाद के लिए गई थी और उसका जिहाद था आईएसआईएस लड़ाकों को सेक्स-सेवा प्रदान करना। उसने क्या कहा था? यही न कि यज़ीदी लड़कियों के साथ जो भी हुआ वह हलाल यानी उचित था!.
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शायद इन्हीं बातों के मद्देनज़र डॉ वफ़ा सुल्तान ने कहा है कि 'क़ुरआन पढ़ने के बाद भी मुसलमान बने रहनेवाले मानसिक रोगी होते हैं'। ऐसे में किसी आज़म खान या बग़दादी को दोष देना अनुचित है। असली समस्या तो इस्लाम है, बेचारे आज़म और बग़दादी तो उसके महज शिकार हैं।
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चीन ने तो आधिकारिक तौर पर इस्लाम को एक बीमारी कहा है और 10 लाख से ज़्यादा उईगर मुसलमानों को ईलाज के लिए पुनर्वास शिविरों में प्यार से रखा है। और हाँ, इस बीमारी के मुख्य स्रोत क़ुरआन को प्रतिबंधित किये जाने की भी ख़बर है।
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आज दुनियाभर में 150 करोड़ से ज़्यादा 'आज़म ख़ान' हैं। चीन ने तो सिर्फ कुछेक करोड़ को ही रोगमुक्त करने की ठानी है। लेकिन शेष दुनिया के लोग भी क्या चीन के अनुभव से कुछ सीख लेंगे?
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नोट: मीम-भीम के झंडावरदारों को इस मुद्दे पर बाबा साहेब अम्बेडकर की किताब THOUGHTS ON PAKISTAN जरूर पढ़नी चाहिए। वे कहते हैं कि मुसलमानों का BROTHERHOOD सिर्फ मुसलमानों के लिए है न कि पूरी दुनिया के लिए। संदेह न मिटे तो अल तक़ैय्या (दीन सम्मत झूठ)के इस्लामी सिद्धान्त पर भी गूगल कर लेना चाहिए।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

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