Monday, March 19, 2018

कवि केदारनाथ सिंह को श्रद्धाँजलि


"तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह ?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?"
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1989-90 की बात होगी। जेएनयू के भारतीय भाषा विभाग में यह तय करने के लिए प्रोफेसरों की मीटिंग हो रही थी कि किसके पीएचडी गाइड कौन होंगे। जिस कमरे में मीटिंग हो रही थी उसके बाहर मैं प्रोफेसर केदारनाथ सिंह की प्रतीक्षा कर रहा था क्योंकि वे अबतक नहीं पहुंचे थे। उन्हें देखते ही मैंने उनके चरण-स्पर्श करते हुए कहा: सर, मुझे अपने अंदर पीएचडी के लिए ले लीजियेगा, नहीं तो यह रहा मेरा घर वापसी का टिकट और वो रही मेरी बेडिंग।
केदार जी छुटते ही बोले: बेवकूफ कहीं के! 18 लोग मेरे अंदर काम कर रहे हैं, सबका नाम भी याद नहीं। कैसे तुम्हें अपने साथ (पीएचडी के लिए) ले पाऊँगा।
शाम को लिस्ट निकली तो मेरा नाम उन दो लोगों में था जिनके लिए केदार जी ने हामी भरी थी। लेकिन यह जानकारी तो मुझे ब्रह्मपुत्र हॉस्टल के मेस में उनलोगों से मिली जो केदार जी के साथ काम करना चाहते थे लेकिन मेरे सौभाग्य से वे वंचित रह गए थे। इनमें से एक ने ईर्ष्यावश तंज करते हुए कहा था: सर के साथ तो कोई शोधछात्र इस बार है नहीं, दोनों ही छात्राएँ हैं। मैंने कहा, सब कह रहे हैं मैं भी उनके साथ हूँ। फिर उसने कहा: ठीक तो है, तुम भी तो 'चंद्रकांता' ही हो। उन दिनों दूरदर्शन पर प्रसारित "चंद्रकांता संतति" सीरियल का बड़ा ज़ोर था।
वैसे ही एक वाक़या मेरी पीएचडी के टॉपिक का है। मैं 1857 के ग़दर के दौरान लोकगीतों की भूमिका पर काम करना चाह रहा था। वे बोले, यह काफ़ी समय लेनेवाला विषय है, कोई ग्रुप इस पर काम करे तो अच्छा। तुम बिहारी हो, शिवपूजन सहाय भी एक आकाशधर्मी बिहारी  संपादक-पत्रकार थे। उनपर काम नहीं हुआ है, तुम उनकी साहित्यिक पत्रकारिता पर काम करो। इसके पहले एमफिल में वे मुझसे शिवपूजन सहाय के ही उपन्यास पर काम करवा चुके थे, टॉपिक था,'देहाती दुनिया का समाजशास्त्रीय अध्ययन'।
अक्सर लोग कहते थे कि केदार जी शोध में सख़्ती नहीं करते, इसलिए उनके साथ पीएचडी करनेवालों की लंबी लाइन रहती है। मेरा अनुभव उलट था। उन्होंने मुझसे आधा दर्जन बार सिनोप्सिस लिखवायी फिर जाकर उसे पास किया। आज जब 24 साल बाद उस थीसिस को देखता हूँ तो लगता है उसमें से वे झाँकते हुए से कह रहे हों: अगर तुमसे इस टॉपिक पर काम नहीं करवाया होता तो मेरी श्रद्धाँजलि तुम इस तरह लिख पाते!
सर, असल बात यह है कि अगर आपने मुझसे इस टॉपिक पर काम नहीं करवाया होता तो मैं चाहे और जो बन जाता, पत्रकारिता और जनसंचार का यूनिवर्सिटी प्रोफेसर तो नहीं ही बन पाता।
कवि केदारनाथ सिंह सामनेवाले को अपने अध्ययन-चिंतन की गुरुता का अहसास नहीं होने देते थे। बिल्कुल पानी की तरह किसी के भी साथ घुलमिल जाते थे। वे ऐसे शिक्षक थे जिनकी क्लास से बाहर निकलते हुए लगता था मानों पढ़ाये गए विषय पर कितना जानना बाक़ी है, और तो और उस विषय पर  कितना शोध होना बाक़ी है। उनकी हर क्लास में कम-से-कम 4 पीएचडी टॉपिक ज़रूर निकल सकते थे।
पाश्चात्य साहित्य, ख़ासकर अमेरिकी कविता पर उनकी गहरी पकड़ थी। वाल्ट व्हिटमैन उनके प्रिय कवियों में थे, विशेषकर अपनी छंदमुक्त कविताओं के लिए। कविता के अर्थ को सिर्फ उसे पढ़ने की शैली से परत दर परत कैसे खोला जाता है, इसमें उन्हें महारत हासिल थी। उनसे निराला की तीन कविताएँ पढ़ने का सौभाग्य मिला था---'वह तोड़ती पत्थर', 'सरोज स्मृति' और 'राम की शक्ति-पूजा'। लगता था मानों निराला की संवेदनशीलता केदार जी द्वारा कवितापाठ से मूर्तिमान हो रही हो। इसके बाद हमें कविता पढ़ना आ गया।
जिस युग की वे ऊपज थे, वह सोवियत क्रान्ति के बाद साम्यवादी विचारधारा के दबदबे का दौर था।लेकिन कोई भी विचारधारा उनके साथ दबंगई नहीं कर सकती थी क्योंकि उनके संवेदना-मंच पर हमेशा न जाने कितनी सौंदर्य-दृष्टियाँ अठखेलियाँ कर रही होती थीं। तभी सोवियत संघ के विघटन के बाद जब विचारधारा-ग्रस्त साहित्यकारों में श्मशान सी मुर्दनी छा गई थी, वे एक यूरोपीय कवि को याद करते हुए कह सके थे:
"विचारधाराएँ सारी मुरझा गईं हैं/
जीवनवृक्ष निरंतर हरा है"।
साल 1993, पटना की बात है। लालू प्रसाद का मसीहाई करिश्मा अपने चरम पर था। केदार जी को 'दिनकर सम्मान' मिला था। सम्भव है इसमें बिहार के जानेमाने साहित्यकार और रेणु साहित्य के मर्मज्ञ डॉ रामवचन राय की भूमिका रही हो। बहरहाल मंच पर जब पुरस्कार ग्रहण करने की बारी आई तो उन्होंने मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के हाथ मिलाने की पहल का जवाब 'दूर से नमस्कार' करके ही दिया था। ऐसी भी सख़्त हो सकती थी कवि केदारनाथ सिंह की कोमलता। इसके पहले ही उनसे बातचीत में मुझे इस बात का आभास हो गया था कि बिहार में आर्थिक विकास ठप सा हो जाने से वे दुःखी थे।
बिहार से उन्हें ख़ास लगाव था। छपरा जिले (शायद मशरक थाना) के एक गाँव में उनका ननिहाल था। बड़े गर्वभाव से कहते थे: मैं भी आधा बिहारी हूँ। मेरे नाम से यहाँ अभी भी ज़मीन है। सम्भव है बिहार के प्रति इसी लगाव ने उन्हें अपने एकमात्र पुत्र सुनील कुमार सिंह की शादी पटना के एक परिवार में करने के लिए प्रेरित किया हो। अपनी दो पुत्रियों का विवाह भी उन्होंने बिहार में किया था।
वे जब भी बिहार आते, कोई न कोई साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत की 'ख़बर' जैसी चीज़ उनके पास होती थी। एक बार कहने लगे: ईरान से बाहर फ़ारसी का दूसरा सबसे बड़ा कवि एक बिहारी था। उनका नाम था,'बेदिल अज़ीमाबादी ' जिन्होंने रोज़ी-रोटी की तलाश में पटना छोड़ते हुए कहा था:
"पटना नगरी छार दिहिन
अब बेदिल चले बिदेस"।
मैंने पूछा था: सर, ईरान से बाहर फ़ारसी के सबसे बड़े कवि कौन हैं? उनका जवाब था, अमीर ख़ुसरो।
आधिकारिक तौर पर तो उनका जन्मवर्ष 1934 है लेकिन असल में वे नवम्बर 1932 में पैदा हुए थे। पहले गाँव के स्कूल के प्रधानाध्यापक अपने अंदाज़ से छात्र-छात्राओं के जन्मदिन लिख देते थे। इस लिहाज से केदार जी 85 साल 4 महीने के होकर गए हैं। लेकिन ऐसे लोग जाते-जाते वक़्त की रेत पर न जाने कितने रूपों में कौन-कौन से निशान छोड़ जाते हैं, यह तो ख़ुदा जाने।
अगर कोई मुझसे यह पूछे कि तुम अपने प्रोफेसर के बारे में 2-3 लाइनों में कुछ ऐसा कहो जो उनको मूर्तिमान कर दे, तो मैं कहूँगा कि 'अगर शिशु-सुलभ जिज्ञासा और कौतुहल से लबरेज़ कोई बुजुर्ग दिखें तो समझना वे कोई और नहीं, कवि केदारनाथ सिंह ही हैं'। आकस्मिक नहीं है कि जब गोरखपुर में पडरौना-स्थित एक कॉलेज में वे प्राचार्य थे तो एक विवाद को सुलझाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों के लोगों ने उन्हें ही अपना पंच माना था। यही अंतर था उनमें और अल्लामा इक़बाल में जो एक तरफ़ लिखते हैं,'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा' तो दूसरी तरफ़ दिलों में 'पाकिस्तान' की नींव भी रखते चले:
हो जाए ग़र शाहे ख़ुरासान का इशारा
सज़दा न करूँ हिंद की नापाक ज़मीन पर।
इसके बरअक्स केदार जी की 1983 में लिखी कविता 'सन् 47 को याद करते हुए' की ये पंक्तियाँ तो देखिये:
"तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाजार से सुर्मा बेचकर
सबसे अखीर में लौटने वाले नूर मियाँ
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?
"तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हें याद है शुरू से अखीर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़-घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गये थे नूर मियाँ?
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं
पाकिस्तान में?
"तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह ?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?"
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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नोट: कवि केदारनाथ सिंह को 2013 के ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर मेरे लिखे आलेख का लिंक:

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