Thursday, May 14, 2020

मानवता का संदेश देनेवाली क़ुरआन की एक आयत का सच


"हमने इस्राइल की संतानों (यहूदियों) के लिए कह  दिया था कि हत्या के अपराधियों और अराजकता फैलानेवालों को छोड़ अगर किसी एक का भी क़त्ल किया तो मानों सभी लोगों (यहूदियों) का क़त्ल कर दिया और अगर किसी एक की भी ज़िन्दगी बचायी तो समझो सभी (यहूदियों) की ज़िन्दगी बचायी।
" फिर उनके (यहूदियों के) पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर पहुँचे। इसके बावजूद उनमें (यहूदियों में) बहुत से लोग ज़मीन पर ज़्यादतियाँ (अराजकता) करते रहते रहे।" (क़ुरआन: सूरा 5, आयत 32)
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पहले उपरोक्त आयत की एकदम स्थूल अर्थ की बात की जाए। एक तो यह आयत (5:32) यहूदी ग्रंथ 'तलमुद' में संकलित
अंश 'मिदराश' के एक हिस्से की सीधी फोटोकॉपी है और यह क़ुरआन में भी मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि यहूदियों के लिए ही सीधे अल्लाह द्वारा कही गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि भले यह आयत मुसलमानों को 'संबोधित' है लेकिन उनसे 'संबंधित' नहीं है जिस कारण इस आयत के 'तथाकथित मानवीय अंश' पर अमल करने के लिए मुसलमान बाध्य नहीं हैं। इसी आयत (5:32) का दूसरा हिस्सा उपरोक्त अर्थ को और बल प्रदान करता है जिसमें यहूदियों के लिए अल्लाह कहते हैं:
फिर उनके (यहूदियों के) पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर पहुँचे। इसके बावजूद उनमें बहुत से लोग ज़मीन पर ज़्यादतियाँ (अराजकता) करते रहते रहे।
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अब उपरोक्त आयत के बारीक अर्थ पर बात करते हैं। मान लीजिए कि आयत 5:32 मुसलमानों के लिए भी बाध्य है तो इस आयत में किसी की हत्या करनेवाले के साथ-साथ अराजकता (फ़ितना) फैलानेवाले के लिए भी मौत की सज़ा की बात कही गई है और जिस बात पर इस्लामी देशों के मुसलमान अमल भी करते हैं। अब असली सवाल यह है कि 'अराजकता' का मान्य इस्लामी अर्थ क्या है?
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क़ुरआन की आयतों और अवधारणाओं के अर्थ को लेकर सुन्नियों में दो किताबों की सर्वाधिक मान्यता है। एक है 'तफ़्सीर-इब्न-कथिर' और दूसरी है 'तफ़्सीर-इब्न-अब्बास'। पहली किताब के अनुसार अल्लाह के आज्ञा की अवमानना यानी 'इस्लाम को नहीं अपनाना' ही अपने आप में अराजकता फैलाने जैसा है तो दूसरी के अनुसार 'मूर्तिपूजा करना' अराजकता फैलाना है। इतना ही नहीं, दूसरी किताब (तफ़्सीर-इब्न-अब्बास) ने तो उपरोक्त आयत (5:32) के छिपे अर्थ को खोलकर रख दिया है:
"हत्या, भ्रष्टाचार और मूर्तिपूजा के अपराधी के अलावा अगर किसी ने अन्य की हत्या की तो मानों उसने पूरी मानवता की ही हत्या कर दी।"(Peter Townsend, पृष्ठ 233)
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उपरोक्त किताबों 'तफ़्सीर-इब्न-कथिर' और 'तफ़्सीर-इब्न-अब्बास' में क़ुरआन की आयत 5:32 की प्रस्तुत व्याख्याओं की पुष्टि इस आयत के ठीक बाद की उस आयत (5:33) से भी होती है जो मानवता का तथाकथित सन्देश देनेवाली आयत (5:32) से अविभाज्य रूप से जुड़ी है और जिसे 'इस्लाम में मानवता' के पैरोकार  लोग अक्सर उद्धृत नहीं करते क्योंकि यह मुसलमानों को सीधे-सीधे संबोधित भी है और उनसे संबंधित भी:
"जो लोग अल्लाह और उनके रसूल के खिलाफ युद्ध करते हैं या अराजकता फैलाते हैं, वे क़त्ल किये जाएँ या सूली पर चढ़ाए जाएँ या उनके
विपरीत दिशाओं में एक-एक हाथ-पाँव  काट दिए जाएँ (दायाँ हाथ और बायाँ पाँव/दायाँ पाँव और बायाँ हाथ) या उन्हें देशनिकाला दिया जाए। यह तो इस दुनिया में उनको मिलने वाली सज़ा है। मृत्यु के बाद दूसरी दुनिया में उनको और भी भीषण सज़ा मिलेगी।" (क़ुरआन: सूरा 5, आयत 33)
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ज़ाहिर है कि आधिकारिक  इस्लामी स्रोतों के अनुसार 'अराजकता' और 'इस्लाम में अविश्वास' दोनों दो बातें नहीं हैं और एक मुसलमान के लिए किसी ग़ैर-मुसलमान की हत्या करना एक वैध इस्लामी कृत्य है क्योंकि इस्लाम में अविश्वास असल में अराजकता फैलाने जैसा ही है और अराजकता फैलाने की इस्लामी सज़ा क़त्ल भी है। इसीलिए मदरसों के सिलेबस में 'काफ़िर वाजिबुल क़त्ल' (इस्लाम को न मानने वाले की हत्या वैध) की अवधारणा का केंद्रीय महत्व है।
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उपरोक्त संदर्भों से यह भी स्पष्ठ है कि आयत 5:32 में मानवता का संदेश का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि एक मुसलमान के लिए हर उस मुसलमान का जीवन अमूल्य है जिसने किसी मुसलमान की हत्या न की हो। इस सिद्धांत की पुष्टि सर्वाधिक आधिकारिक हदीस 'सहीह बुख़ारी' से भी होती है: "अल्लाह के रसूल ने कहा: मुझे आदेश मिला है कि मैं लोगों से तबतक युद्ध करूँ जबतक वे यह न कह दें कि 'अल्लाह के सिवा किसी को भी पूजित होने का कोई अधिकार नहीं है'। अगर वे ऐसा कह दें और वैसे ही प्रार्थना करें जैसे हम करते हैं, वैसे ही काबा का रुख करें और ज़िबह करें जैसे हम करते हैं तो उनका जीवन और धन हमारे लिए अपने जीवन जैसा ही अमूल्य है।" (सहीह बुख़ारी 1:8:387)
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'सहीह बुख़ारी', 'तफ़्सीर-इब्न-कथिर' और 'तफ़्सीर-इब्न-अब्बास' जैसे आधिकारिक स्रोतों की व्याख्याओं की पुष्टि ख़ुद क़ुरआन की सूरा 9 की उस आयत (9:5) से भी  होती है जो बहुत बाद में यानी पैग़म्बर की मृत्यु (632 ई) से सिर्फ दो बरस पहले (630 ई) में नाज़िल हुई: फिर, जब हराम के महीने बीत जाएँ तो मूर्तिपूजकों को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो; और उन्हें पकड़ो, उन्हें घेरो और हर संभव जगह में उनपर घात लगाकर बैठो। फ़िर यदि वे प्रायश्चित करें और नमाज़ क़ायम कर लें (इस्लाम को स्वीकार लें) और ज़कात (इस्लामी दान) दें तो उनका मार्ग छोड़ दो। निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दयावान है। (क़ुरआन: अनुवादक: मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ, पृष्ठ 197)
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यहाँ यह स्पष्ठ कर देना आवश्यक है कि क़ुरआन में आयतों को लेकर 'वरीयता' का एक सिद्धांत लागू है जिसे 'नस्ख' कहते हैं। इसके अनुसार क़ुरआन की उन आयतों का दीनी महत्व ज़्यादा है जो बाद में नाज़िल हुईं। इसका अर्थ यह हुआ कि ग़ैर-मुसलमानों के साथ धैर्य या सहनशीलता का संदेश देनेवाली आयतों से उन आयतों की मान्यता ज़्यादा है जो उनकी हत्या का आदेश देती हैं क्योंकि ग़ैर-मुसलमानों की हत्या का आदेश देनेवाली आयतें (जैसे सूरा 9: आयत 5) धैर्य या सहनशीलता का संदेश देनेवाली आयतों के बाद उतरीं। इस सिद्धांत का ख़ुलासा भी क़ुरआन में ही किया गया है (क़ुरआन: सूरा 13: आयत 39; सूरा 16: आयत 103; सूरा 2: आयत 106)। इस प्रकार बिना किसी तर्क के अगर यह मान लिया जाए कि क़ुरआन की एक आयत 5:32 दुनिया के सभी मनुष्यों के लिए करुणा और दया का संदेश देती है तो भी यह मानना पड़ेगा कि ग़ैर-मुसलमानों की कहीं भी कभी भी हत्या का आदेश देनेवाली आयत 9:5 की इस्लामी मान्यता करुणा और दया का संदेश वाली आयत से अधिक है। सूरा 9 की 5 वीं आयत (9:5) को 'तलवारी आयत' के रूप में भी जाना जाता है और यह भी कि यह अपने पहले की उन 111 आयतों पर अकेले भारी है जिनमें 'शांतिपूर्ण' या 'कम हिंसक' जिहाद की बात की गई है।



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