Friday, May 3, 2019

हरामख़ोरी का गर्व और कर्मठता का अपराधबोध

दुनियाभर में ऐसे क़ानून बनाये जा रहे हैं कि लोग अपने नहीं बल्कि दूसरों के कर्मों के लिए जिम्मेदार ठहराये जाने लगेंगे--अब चाहे वे कर्म अतीत के हों या वर्त्तमान के , झूठे या सच्चे,  असली या नकली, अच्छे या बुरे। अब जब आप खुद के बुरे कर्मों के लिए जिम्मेदार नहीं होंगे तो खुलकर बुरे काम करेंगे। इसी तरह जब आपको अपने अच्छे कर्मों का क्रेडिट नहीं मिलेगा तो आप भी अच्छे कर्मों से दूर होते जाएँगे।
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दूसरे शब्दों में एक कामचोर की विफलता के लिए सफल व्यक्ति जिम्मेदार ठहराये जाएँगे और सफल व्यक्ति को उसकी सफलता का क्रेडिट नहीं मिलेगा।
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धीरे-धीरे ऐसा हो जाएगा कि हरामख़ोरी को एक गुण और कर्तव्यनिष्ठा को अवगुण माना जाने लगेगा और सफल लोग अपराधियों की श्रेणी में आएंगे जिनकी यह सज़ा होगी कि वे अपनी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा हरामखोरों को दें और छोटे हिस्से को अपने पास रखें और वह भी इस अपराधबोध के साथ कि काहिलों और हारामख़ोरों की जो स्थिति है इसके लिए ख़ुद काहिल-हरामख़ोर नहीं बल्कि कर्मठ और सफल लोग जिम्मेदार हैं।
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हरामख़ोरी और काहिली को प्रोत्साहित करनेवाले क़ानून किसी भी देश और समाज को धीरे-धीरे इस स्थिति में लाकर पटक देंगे कि हरामख़ोरी गर्व एवं कर्मठता शर्म का विषय हो जाएगी। फिर समाज कर्तव्यबोध और भौतिक समृद्धि दोनों से वंचित होकर अधोगति को प्राप्त होगा। इसके उदाहरण हैं समाजवादी देशों का पतन, खस्ताहाल सरकारी संस्थान, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचारियों को सम्मान और पूरी दुनिया को एवं एक-दूसरे को भी मिटाने पर तुले इस्लामी देश।
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जो मुसलमान नहीं हैं वे काफ़िर या मुशरीक़ हैं और उनपर और उनकी संपत्ति पर मुसलमानों का मजहब-प्रदत्त अधिकार है जिसे माल-ए-ग़नीमत कहा जाता है और जिसके लिए जिहाद वाजिब है। दूसरी ओर जो क्रांतिकारी-सर्वहारा नहीं हैं वे बुर्जुआ या उनके सहयोगी हैं और उनकी संपत्ति को ख़ूनी क्रांति के द्वारा हासिल किये बिना बेहतर समाज का निर्माण नहीं हो सकता।
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यह अकारण नहीं है कि पिछले 1400 सालों में सिर्फ 120 वर्ष जिहाद नहीं हुये हैं और शेष 1280 सालों में 27 करोड़ से ज्यादा लोगों का नरसंहार हुआ है। इस प्रकार 91% समय जिहाद में गुजरा है , शांति में नहीं। यह भी कह सकते हैं कि यह बात 9% ही सही है कि 'इस्लाम शांति का मजहब है'। दूसरी तरफ़ 100 सालों से कम समय में ही 10 करोड़ लोग 'कम्युनिस्ट' क्रान्ति की भेंट चढ़ गए। सबसे ज्यादा नरसंहार हुये माओ (5.5 करोड़) और स्टालिन (2.5 करोड़) के नेतृत्व में जिस कारण दोनों की गणना कम्युनिस्ट महानायकों में होती है। यह बात अलग है कि इन दोनों ही महानायकों के दौर में इनके देश आर्थिक तौर पर बहुत कमज़ोर हो गए क्योंकि इनका दर्शन था:
माले मुफ़्त दिले बेरहम...
चींटियों की मेहनत पर टिड्डों का हक़...
बने रहो एड़ा खाते रहो पेड़ा...
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इस लिहाज से दुनियाभर के देशों में क़ानूनों पर सबसे ज्यादा जिन किताबों का असर हैं वे हैं: क़ुरआन और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो। ये दोनों किताबें पैग़म्बर-वादी हैं जिनपर सवाल उठानेवाले को मौत की सज़ा देने का 'पैग़म्बरी' प्रावधान है।  इस प्रावधान के सिद्धान्त हैं: जिहाद और क्रान्ति।
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यहाँ यह कहना जरूरी है कि तात्विक रूप से क़ुरआन ने बाइबिल से बहुत कुछ लिया है और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो ने क़ुरआन से। जैसे इस्लाम में दारुलइस्लाम है तो साम्यवाद में वर्गविहीन समाज, इस्लाम में दारुलहरब है तो साम्यवाद में पूँजीवादी व्यवस्था, इस्लाम में मुसलमान है तो साम्यवाद में क्रांतिकारी सर्वहारा, इस्लाम में काफ़िर/मुशरीक़ है तो साम्यवाद में प्रतिक्रियावादी/बुर्जुवा/पूंजीवादी और इस्लाम में जिहाद है तो साम्यवाद में ख़ूनी क्रान्ति। इस प्रकार तात्विक दृष्टि से एशिया के रेगिस्तानी इस्लाम का ही आधुनिक रूपांतरण है यूरोप का बर्फ़ीला साम्यवाद लेकिन दोनों के मूल में एक ही चीज़ है और वह है: राम राम जपना पराया माल अपना।
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मजे की बात यह है कि आजकल सबकुछ लोकतांत्रिक लबादे में हो रहा है जो पहले मजहबी या क्रांति के छद्मावरण में होता था। कहते हैं कि किसी भी समाज में कर्मठ लोगों की संख्या अक्सर 20% से ज्यादा नहीं होती, 40% लोग मौका मिले तो दूसरे के काम को बेहिचक अपना बता देंगे, 20% लोग संभव हो तो कोई काम नहीं करेंगे और शेष 20 % बिलकुल ही काम नहीं करेंगे। इस तरह दूसरे के काम का श्रेय लेनेवालों, काहिलों या काहिली का मौका खोज रहे लोगों की संख्या 80% तक हो सकती है जो एक लोकतंत्र के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण पर ख़तरनाक है क्योंकि यही संख्याबल अपने फायदे के लिए क़ानून बनवाने में सफल होता है।
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लेकिन इस 80% में लूट के बँटवारे को लेकर भी कोई सर्वमान्य नियम नहीं होता तो सभी अपना-अपना प्रेशर-ग्रुप बनाते हैं ताकि अपनी बातें ज्यादा से ज्यादा मनवा सकें। इसी प्रक्रिया में वोटबैंक जन्म लेते हैं जैसे मुस्लिम वोट बैंक, यादव वोटबैंक, 'दलित' वोटबैंक, ईसाई वोटबैंक, उत्तर भारतीय वोटबैंक, दक्षिण भारतीय वोटबैंक, पूरबिया वोटबैंक आदि।
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इन्हीं वोटबैंकों के मद्देनज़र सरकारी योजनाएँ/कार्यक्रम/नीतियाँ बनती हैं और चुनावी वादे किये जाते हैं। इनके उदाहरण हैं मनरेगा, कर्ज़माफी, खाद-बीज सब्सिडी, मिड-डे मिल और 2 रुपये किलो चावल जैसी स्कीमें तो 25 करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष 72,000 रुपए देने का चुनावी वादा।
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सामाजिक विमर्श में हरामख़ोरी और भ्रष्टाचार को सैद्धांतिक मान्यता मिल जाने के कारण इसे कोई अवगुण नहीं माना जाता, इसलिए कोई नेता और पार्टी चाहे भी तो वोटबैंक-लुभावन नीतियों और वादों से एक झटके से मुक्त नहीं हो सकता। इसका यह भी एक कारण है कि सरकार चाहे किसी पार्टी की हो, सबके मूल संस्कार एक जैसे ही रहते हैं और इस संस्कार को बनाये रखने में नेता-बाबू-कोर्ट-दलाल-मीडिया-शिक्षा संस्थान के गठजोड़ की अहम भूमिका होती है। इसी गठजोड़ को सत्ता संस्थान (Establishment) कहते हैं।
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लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुमत का ही ज्यादा चलता है और बहुमत काहिल-हरामख़ोर हो तो चहुँओर अधिकार और सिर्फ अधिकार की बात होती है क्योंकि अधिकार के परनाला का स्रोत क़ानून होते हैं न कि कर्तव्य। ऐसे में कर्तव्य की चर्चा करना भी क़ानूनन अपराध घोषित किया जा सकता है और एक कर्तव्य-विमुख समाज राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होकर भी बौद्धिक रूप से ग़ुलाम होता है जहाँ की सोच समाधान-मूलक न होकर दोषारोपण-केंद्रित हो जाती है।
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हरामख़ोरी-जनित इसी मानसिक गुलामी और कर्तव्य-विमुखता को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व ने मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया, जीएसटी, नोटबंदी और स्वच्छता अभियान से चुनौती दी है जिस कारण 2019 का चुनाव अंततः 'मोदी बनाम सत्ता संस्थान' हो गया है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि
महागठबंधन के नेता भाजपा/राजग सरकार के विरुद्ध नहीं हैं बल्कि वे मोदी के विरुद्ध हैं। राहुल गाँधी ने भी कहा है कि चाहे कोई और बन जाए लेकिन वे मोदी को पीएम नहीं बनने देंगे।
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यहाँ तक कि भाजपा  के अधिकतर नेता नहीं चाहते कि मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बनें। इसलिए उनकी मनोकामना है कि पार्टी को बहुमत न मिले भले राजग के घटक दलों को मिलाकर भाजपा के किसी अन्य नेता की अगुवाई में उनकी सरकार बन जाए। ऐसा इसलिए कि भाजपा का पार्टीतंत्र भी हरामख़ोरी को प्रोत्साहित करनेवाले उसी सत्ता संस्थान का हिस्सा है जिसका हिस्सा महागठबंधन समेत अन्य विपक्षी दल हैं।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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