Wednesday, May 8, 2019

क्या परशुराम ने भी मोहम्मद की तरह नरसंहार का सिद्धान्त दिया था?

हिन्दी के नामचीन मार्क्सवादी मुसलमान कथाकार प्रोफेसर असग़र वज़ाहत की वाल पर एक अरसे बाद जाना हुआ तो किसी शान्तिदूत ने क़ुरआन की काफ़िर-विरोधी हिंसाप्रेरक आयतों के बचाव में भगवान परशुराम का हवाला दिया और कहा कि उन्होंने तो अनेक बार पूरी पृथ्वी को ही क्षत्रिय-विहीन कर दिया था। मतलब इस्लाम तो हिंसाकारी है ही, सनातन भी कम नहीं है। अब इस थेथरई की पड़ताल की जाए।
#नीयत:
एक तो ये इस्लामी-वामी लोग हिन्दू देवी-देवताओं की पूरी परम्परा को ही काल्पनिक मानते हैं अगर इन्हें इसका लाभ मिल रहा हो, जैसे राम जन्मस्थान मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद। लेकिन जहाँ फ़ायदा दिखे वहाँ उन्हें ऐतिहासिक मानने में तनिक भी देर नहीं लगाते। इसका मतलब यह हुआ कि ये लोग सच को जानने में कोई रुचि नहीं रखते बल्कि धुर पाखंडी की तरह सामनेवाले को दिग्भ्रमित करने की पुरज़ोर साज़िश रचते रहते हैं। यह तो हुई नीयत की बात। अब आते हैं तथ्य-सम्मत तर्क पर।
#तथ्यगत_तर्क:
किसी कालखंड में क्षत्रियों के संहार के प्रतीक रहे परशुराम हों या किसी युद्ध में विजय का प्रतीक रहे राम-कृष्ण या अन्य सनातनी देवी-देवता---कोई भी अपनी वाणी को अंतिम नहीं कहता। यह भी नहीं घोषित करता कि उन्हें न मानने वाले या सवाल पूछनेवाले को मृत्युदंड मिले। इसीलिए इनमें से किसी की वाणी को उद्घृत करते हुये कोई हिंदू शरीर में बम बांधकर खुद का और दूसरों का संहार भी नहीं करता है। कोई अपवाद हो तो वह इस नियम को सिद्ध ही करता है।... ...दूसरी ओर इस्लाम ने तो अल्लाह को मोहम्मद का एजेंट बना दिया लगता है। मोहम्मद की जो भी मानवता-विरोधी हसरत है, सबकी पूर्ति के लिये अल्लाह एक आयत अपने पॉकेट से निकाल देता है, मानों अल्ला नहीं हुआ मोहम्मद का दल्ला हो गया। छह साल की आयशा से निक़ाह के लिए भी आयत है और अपने दत्तक पुत्र की पत्नी यानी पुत्रवधू से निक़ाह ले लिए भी। बाक़ी काफ़िर औरतें तो मालेगनिमत हैं ही जिनके साथ कभी भी कुछ भी किया जा सकता है। काफ़िर पुरुषों-शिशुओं-वयस्कों के साथ कब और क्या करना है, कब उसे अपमानित करना है, अपहृत करना है, ग़ुलाम बनाना है या मार देना है--इसके बारे में तीन दर्ज़न आयतें अल्लाह ने नाज़िल करवाई हैं। ...शायद इसीलिए वफ़ा सुल्तान कहती हैं कि क़ुरआन पढ़कर भी मुसलमान बने रहनेवाला मनोरोगी होता है। ...
...इन्हीं मनोरोगियों ने 27 करोड़ लोगों के नरसंहार किये हैं क्योंकि उनका ध्यान पेट से चलकर जाँघों तक सिमट गया माने 72 हूर, 28 गिलमें और अनलिमिटेड दारू। जिसका नहीं सिमटा वह डर के मारे चुप रहता है।
#गलथेथरी:
मुल्ले एक और तर्क देते हैं कि ज्यादातर हिन्दू देवी-देवता शस्त्रों से लैश हैं, इसका अर्थ यह कि हिन्दूधर्म  हिंसा को बढ़ावा देनेवाला है। मल्लब कुछ भी? यूँ ही? अरे भई, चूँकि अहिंसा को परमधर्म कहा गया तो देवी-देवताओं को प्रतीक रूप में हथियार पकड़ा दिए गए ताकि लोग अहिंसा और कायरता को एक ही न समझने लगें और बर्बर लोगों पर भी हथियार उठाना न छोड़ दें।
#आँकड़े:
अब आंकड़ों की बात। मुसलमानों की आबादी पूरी दुनिया की आबादी का 20% से ज्यादा है लेकिन आतंकी हिंसा में उनका शेयर 75% से भी अधिक है। इससे साबित होता है हिंसाकारी क़ुरआनी आयतें मुसलमानों पर बाध्यकारी हैं और हर अनपढ़ या पढ़ा-लिखा मुसलमान इससे काम लायक़ वाक़िफ़ है। ... दूसरी तरफ़ हिंदुओं की आबादी लगभग 13% है लेकिन आतंकवादी घटनाओं में उनका शेयर कितना है? न के बराबर। ... इसमें कम्युनिस्ट/माओवादी/नक्सली हिंसा शामिल नहीं है क्योंकि उनकी हिंसा के मूल में उनका हिन्दू होना नहीं बल्कि हिन्दू-विरोधी कम्युनिस्ट/माओवादी/नक्सली होना है। ...परशुराम की हिंसा अगर हिंदुओं के लिए बाध्यकारी होती तो उनकी प्रेरणा से कश्मीरी हिंदुओं में  सैकड़ों आतंकवादी निकलने चाहिये थे क्योंकि सिर्फ हिन्दू होने की वजह से वे पडोसी मुसलमानों द्वारा अपहरण, लूट, बलात्कार, नरसंहार और जलावतनी के शिकार हुये थे। जातिनाश के शिकार 3 लाख से अधिक कश्मीरी हिंदुओं में कितने लोग आतंकवादी बने? शून्य बट्टे सन्नाटा।
#यह_पोस्ट_किसके_लिए ?
सनद रहे कि ऐसी पोस्ट मैं मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि काफ़िरों के लिए लिखता हूँ जो अंतिम क्षणों तक शुतुरमुर्गी रुख अपनाते हुये शान्तिदूत-भाईजानों का नरम चारा बनने को प्रस्तुत रहते हैं। जिस भाईजान को 'प्रयागराज' की जगह 'इलाहाबाद' से आपत्ति नहीं थी, 'राम जन्मस्थान मंदिर' की जगह 'बाबरी मस्जिद' से आपत्ति नहीं थी और नालंदा विश्वविद्यालय को ख़ाक करनेवाले के नाम पर 'बख्तियारपुर' से आपत्ति नहीं है...नोट कर लीजिए कि वह भाईजान बस सही समय और सही जनसंख्या का इंतज़ार कर रहा है ताकि अपने मन में बसे क़ुरआन-सम्मत 'मिनी पाकिस्तान' को डायरेक्ट एक्शन (जिहाद) द्वारा अपने 'सपनों के पाकिस्तान' में बदल सके। वैसे 1947 वाला पाकिस्तान भी जिन्ना ने अगस्त 1946 में डायरेक्ट एक्शन (जिहाद) का कौल देकर ही बनवाया था।
#सामाजिक_समरसता:
...फिर  धिम्मी काफ़िर जिसे 'सामाजिक समरसता' या गंगा-यमुनी संस्कृति कहता है वह असल में सैकड़ों सालों से चली आ रही '#ग़ुलाम_भाव की संस्कृति' का ही दूसरा नाम है। असली और टिकाऊ सामाजिक समरसता वह होती है जो '#स्वामी_भाव' की होती है जिसमें सभी पक्षों को बराबर का सम्मान मिलता है। अगर ऐसा हुआ होता तो इस देश में #सिकंदर_लोदी रोड की जगह संत #कबीरदास रोड होता, #औरंगज़ेब रोड की जगह #दारा_शिकोह रोड होता लेकिन जन्मस्थान मंदिर की जगह लगभग 500 सालों से बाबरी मस्जिद नहीं होती।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

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