Tuesday, July 9, 2019

गृहयुद्ध--5: शिशुओं से बलात्कार और सुप्रीम कोर्ट


23 मई के बाद देशभर में बच्चियों से हो रहा 'मजहब सम्मत' बलात्कार और उनकी हत्याएँ आशंकित गृहयुद्ध के लिए उत्प्रेरक का काम कर रहीं। लेकिन अदालतें बहुत पहले से इस सुषुप्त आग में घी का काम करती रही हैं। लगता है गृहयुद्ध के पहले 'जनता बनाम सुप्रीम कोर्ट' का आंदोलन होगा क्योंकि यह कोर्ट हिंदुओं के मामले में न्याय के बजाय अक्सर सिर्फ निर्णय करती है और वह भी बहुत देर से। राम जन्मस्थान मंदिर और रोहिंग्या मामलों में अदालती रवैया इसका प्रमाण है।
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न्यायपालिका की विश्वसनीयता आज पुलिस और अपराधियों से भी कम हो गई लगती है क्योंकि यह न्यायसम्मत, समाजसम्मत और नीतिसम्मत होने के बजाय क़ानूनसम्मत होने पर ज़ोर देती है। क़ानून तो अंग्रेज़ों का भी था और उसके पहले नरसंहारी-बलात्कारी इस्लामी हमलावरों का भी। लोग सुप्रीम कोर्ट को 'सुप्रीम *ठा' कहकर अपना आक्रोश जताते है जो लोकतंत्र के लिए ख़तरे की घंटी है।
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पिछले 5 सालों से चला आ रहा 'सत्ता संस्थान बनाम सरकार' का संघर्ष अब और विकट रूप लेगा जिसकी अगुवाई सुप्रीम कोर्ट करेगी। यह सरकार के हर समाजसम्मत और नीतिसम्मत क़दम के रास्ते में क़ानूनी रोड़े अटकायेगी और दबाव बनायेगी कि हिंदू-द्वेषी और भारतविरोधी लोग न्यायपालिका में उच्च पदों पर रखे जाएँ। चूँकि सरकार इसका विरोध करेगी, इसलिए सरकार से अदालत का टकराव खुलकर सामने आयेगा जिसमें जनता सरकार के साथ और अधिक मजबूती के साथ खड़ी होगी।
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यहाँ सत्ता संस्थान का मतलब है न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, मीडिया और विश्वविद्यालय। सत्ता संस्थान के ये अंग कमोबेश जनविरोधी हैं,
और सरकारविरोधी हैं क्योंकि मोदी सरकार ने नेता-बाबू-दलाल की तिकड़ी को एक हद तक कमज़ोर कर दिया है। इस कारण किसी भी मामले को इस आधार पर कम या ज्यादा महत्त्व दिया जाता है कि उसमें पीड़ित कौन है: हिंदू या मुस्लिम? पीड़ित हिंदू हुआ तो मामला दबाया जाता है या फिर पीड़ित को ही उत्पीड़क साबित करने की मुहिम शुरू हो जाती है। लेकिन पीड़ित अगर मुसलमान हुआ तो मामले पर ख़ूब रायता फैलाया जाता है। इतना ही नहीं पीड़ित और उत्पीड़क दोनों ही मुसलमान हुए तो भी बिना किसी जाँच हिंदू को दोषी ठहराने का एजेंडा काम करने लगता है।
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उपरोक्त पाखंड और भेदभाव के कारण अधिसंख्य हिंदू जो अबतक माइनॉरिटी सिंड्रोम (Minority Syndrome) के शिकार होकर चुप्पी के मकड़जाल (Web of Silence) में फँसे थे, वे अब मुखर होने लगे हैं। उनका आक्रोश जो अबतक सुषुप्त ज्वालामुखी की तरह दबा था, उसके निकट भविष्य में सक्रिय होकर सुनामी को जन्म देने के आसार दिख रहे हैं। यह सब इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया के तेजी से फैलाव के कारण संभव हो रहा है।
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चिंता की बात यह है कि इस विस्फोटक स्थिति पर खुलकर चर्चा करके उसका समाधान निकालने के बजाय मुद्दे पर चर्चा करनेवालों को ही इस्लाम-विरोधी, संघी या मोदीभक्त कहकर चुप करा दिया जाता है जैसे बीमारी की पहचान करनेवाले डॉक्टर को ही बीमारी का कारक मान लिया जाए।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

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