Thursday, October 8, 2015

ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद...

हम तो रहे अजनबी कितनी मुलाक़ातों  के बाद
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद...

ये पंक्तियाँ #फ़ैज़ साहब की तो नहीं?
जनाब बशीर बद्र भी इस तरह के शेर लिखते हैं।

#इक़बाल का तो पक्का नहीं क्योंकि जब #ईमान जागा तो
'#सारे_जहाँ_से_अच्छा_हिन्दोस्ताँ_हमारा' को कबाड़ को सुपुर्द कर उन्होंने नया #तराना रचा था:

'#सज़दा_न_करूँ_हिन्द_की_नापाक_ज़मीं_पर'।

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