Sunday, May 31, 2020

विश्व-वैचारिकी का उपनिषद् काल: विचारनाला बनाम दृष्टियाँ

जैसे मिलावटी दूध पीने के आदती व्यक्ति का हाजमा शुद्ध दूध ग्रहण करने से ख़राब हो जाता है वैसे ही आत्महीनता के शिकार मानसिक ग़ुलामों को मौलिकता से कब्ज़ होना स्वाभाविक है। यह बात भारत के अधिसंख्य स्थापित बुद्धिजीवियों पर लागू है, चाहे वे वामपंथी हों या दक्षिणपंथी।
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जहाँ मौलिकता का अभाव दोनों ही 'पंथियों' में समान है, वहीं दोनों की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ भी हैं: वामपंथी बुद्धिविलासी होता है जिसकी बुद्धि के अंडे से अंडा ही निकलता है, चूजा नहीं। ऐसा इसलिए कि वह तर्क के लिए तर्क करता है न कि किसी समस्या के समाधान के लिए। असल में वह तर्क से वहाँ भी समस्या पैदा करने में दक्ष होता है जहाँ समस्या नहीं होती। इसके बरक्स दक्षिणपंथी निर्विवाद रूप से बुद्धिविरोधी होता है भले ही उसे बुद्धिजीवी कहलाये जाने की सनक क्यों न हो। इसी सनक में वह नितान्त दैन्यभाव से वामपंथियों का स्थूल विरोध करता रहता है। उसकी दीनता के मूल में है वामपंथी समूह से बौद्धिकता के प्रमाणपत्र की लालसा। इस प्रमाणपत्र के लिए वह अपने घोषित स्टैंड से इतर भी कोई काम करने को सदैव तत्पर रहता है।
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इस बात को  समझने के दो रास्ते हैं। पहला, आप खुद से यह सवाल करें कि आपकी समझ 'डाटा-निसृत नैरेटिव' (Data-led Narrative) पर आधारित है या 'नैरेटिव-निर्दिष्ट डाटा' (Narrative-led Data) पर?  दूसरा यह कि आप जिस किसी Ideology (विचारनाला) के प्रति जिस किसी कारण से समर्पित हैं, उसने भारत को भारत की निगाह से देखने के लिए कितनी मौलिक अवधारणाएँ दी हैं?
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उपरोक्त दोनों ही मानकों पर मुझे भारत के बौद्धिक जगत में स्वीकृत सभी विचारनालों (न कि विचारधाराओं) के पैरोकार उन ईसाई मिशनरियों के छद्म-शोध के भोंपू मात्र (सेकुलर-वामपंथी) या फिर उसके शिकार (दक्षिणपंथी) लगते हैं जिनका उद्देश्य ही पूरी दुनिया को ईसाई बनाना है न कि तथ्याधारित सत्य की खोज।
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अब चूँकि वामपंथियों का भी मूल उद्देश्य लोगों को कम्युनिस्ट बनाना होता है न कि तथ्याधारित सत्य की खोज, इसलिए शोध-प्रक्रिया की दृष्टि से ईसाई मिशनरियों और वामपंथियों में एक अद्भुत समानता भी है। सवाल है कि यह समानता क्या है? तो समानता यह है कि स्थापित सत्य को नकारने के लिए दोनों ही 'अपवाद को मुख्यधारा' (Exception as Mainstream) और 'मुख्यधारा को अपवाद' (Mainstream as Exception) साबित करने की थेथरई करते हैं। बेचारे बुद्धिविरोधी दक्षिणपंथी इस थेथरई के सामने खुद को अक्सर निरुपाय महसूस कर मन-ही-मन बुद्धिविलासी वामियों की प्रशंसा करने लग जाते हैं। यही वजह है कि वामियों के प्रति उनमें Love-Hate वाला भाव देखा जाता है यानी प्रेम और घृणा साथ-साथ।
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इस स्थिति को वामपंथियों के संदर्भ में दक्षिणपंथी समूह का स्टॉकहोम सिंड्रोम भी कह सकते हैं। लेकिन पश्चिमी वामपंथी बुद्धिजीवियों के संदर्भ में भारत के वामपंथियों का भी यही हाल है यानी कि वे भी स्टॉकहोम सिंड्रोम से ग्रस्त हैं। वस्तुतः भारत के किसी भी स्थापित विचारनाला (Ideology) के बुद्धिजीवियों की स्थिति उस महिला की तरह है जो उस व्यक्ति से अपने चरित्र का प्रमाणपत्र चाहती है जो न जाने कब से उसका यौन-शोषण करता रहा है!
पहले इनको लेकर कोफ़्त होती थी लेकिन अब वे दया के पात्र लगते हैं: अपनी जड़ों से कटे मूर्ख नायक! हाँ, इन बुद्धिजीवियों के मानस-पिता मैकाले ने उनके बारे में ठीक यही कहा था: STUPID ALIEN PROTAGONIST.
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चुनौती यह है कि उपरोक्त मकड़जाल से कैसे निकला जाए? इससे मुक्ति भले ही बहुत मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं। आप पूछेंगे, कैसे संभव है? तो ऐसे संभव है कि चाहे जिस किस 'विचारनाला' से आप संबंधित हों, 'डाटा-निःसृत नैरेटिव निर्माण' के पथ से न भटकें चाहे 'नैरेटिव-निर्दिष्ट डाटा संकलन' के जो भी फायदे ऑफर किए जाएँ। इसी से जुडी एक सावधानी भी है कि सिर्फ तर्क के लिए तर्क करने या कमी निकालने के लिए कमी खोजने की बीमारी से बचें जो आपसे 'मुख्यधारा को अपवाद' और 'अपवाद को मुख्यधारा' साबित करवाने का अकादमिक पाप करवाती है। ये सावधानियाँ आपको बुद्धिविलासी और  बुद्धिविरोधी के बजाय बुद्धिवीर, बुद्धियोद्धा या बुद्धिवीरांगना की ऊँचाई प्रदान करेंगी।
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सनद रहे कि सदियों से दुनिया पर जिन दो विचारनालों का दबदबा रहा है वे हैं: ईसाइयत और इस्लाम। इन्हीं दोनों का आधुनिक रूप है कम्युनिज़्म। इन तीनों विस्तारवादी और कब्ज़ावादी विचारनालों में से प्रत्येक का दावा रहा है कि देश-दुनिया के हर सवाल का जवाब उसी के पास है और बाक़ी सब निरर्थक हैं। लेकिन इन विचारनालों और उनके दावों को अब संचार टेक्नोलॉजी में आई क्रान्ति से जबर्दस्त चुनौती मिल रही है। इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया पर सवार युवा वर्ग इन तीनों की बर्बरताओं और सभ्यता-संस्कृति विरोधी नीतियों के बारे में अब पहले से कहीं ज़्यादा विश्वसनीय डाटा से लैश है। इतना ही देश-दुनिया की समस्याओं के न सिर्फ आजमाये समाधानों बल्कि कई वैकल्पिक संभावित समाधानों (Perspectives) के डाटा से भी युवा वर्ग लैश है जिस कारण वह धीरे-धीरे उपरोक्त विचारनालों (Ideologies) के चँगुल से भी मुक्त हो रहा है।
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समय पर उपयुक्त डाटा उपलब्ध हो जाने के कारण एक ही समस्या के देश-काल के अनुसार वैकल्पिक समाधान भी सामने आ रहे हैं। इसका यह भी अर्थ हुआ कि हम विचारनाला के दौर (Age of Ideology) से निकलकर अब 'दृष्टियों के गुच्छ' (Bouquet of Perspectives) के दौर में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ वैकल्पिकता की प्रधानता होगी जो ताज़ा विचारों की धारा (विचारधारा) को अबाध  प्रवाहित होने की भूमि तैयार करेगा। आप चाहें तो इस नयी स्थिति को  'विश्व-वैचारिकी का उपनिषद् काल' भी कह सकते हैं।
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यहाँ यह ज़ोर देकर कहना जरूरी है कि वैचारिकी के उपनिषद् काल को संभव बनाने में संचार-माध्यमों की टेक्नोलॉजी और संचार की प्रक्रिया में आए मूलभूत परिवर्तन की अहं भूमिका है। जब जनसंचार माध्यमों (Mass Communication Media) जैसे अख़बार, रेडियो, टीवी आदि का दौर था तो 'एकतरफा जनसंचार' होता था जिसमें आग्राहक (Audience) की कोई ख़ास भूमिका नहीं होती थी। बहुत खर्चीले होने के कारण इन माध्यमों पर चुनिंदा लोगों का कब्ज़ा था और इनका राजनीतिक इस्तेमाल भी आसान था।
लेकिन इंटरनेट-मोबाइल पर सवार सर्वसुलभ सोशल मीडिया के कारण आज अकेले भारत में 45 करोड़ से अधिक लोग एक साथ प्रकाशक और आग्राहक दोनों की भूमिका निभा रहे हैं। इतना ही नहीं, वे एकतरफा जनसंचार (Mass Communication) से 24x7 'गहन अंतर्वैयक्तिक संचार' (Massive Interpersonal Communication) के दौर में प्रवेश कर गए हैं जो अंतर्क्रियात्मक (Interactive) होने के कारण विश्वसनीय होता है और इस प्रकार डाटा के तत्क्षण (Real Time) उपलब्ध होने के कारण समय रहते निर्णय लेने की क्षमता भी प्रदान करता है। चूँकि विश्वसनीय डाटा के त्वरित आदान-प्रदान की सुविधा अब करोड़ों लोगों को उपलब्ध है, इसलिए कुछ ख़ास स्वघोषित बौद्धिक लोगों के प्रेस्क्रिप्शन पर उनकी निर्भरता लगभग गौण हो गई है।
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संचार टेक्नोलॉजी और प्रक्रिया में आये क्रांतिकारी परिवर्तन ने सिर्फ समस्यायों के समाधान की वैकल्पिक दृष्टियों को ही संभव नहीं बनाया है बल्कि सत्ता संस्थान (Establishment ) के विभिन्न अंगों यथा विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और शिक्षण संस्थाओं के कार्यों और उनके कार्य-निष्पादन की गति को लेकर नित्य नयी-नयी बहसों को भी जन्म देना शुरू कर दिया है। इसमें एक तरफ़ वे चुनिंदा अभिजात लोग हैं जो प्रिंट-रेडियो-टीवी नियंत्रित एकतरफा और अत्यल्प सूचना तक अपनी पहुँच के कारण सत्ता संस्थान पर कब्ज़ा जमाये बैठे थे तो दूसरी तरफ़ इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया पर सवार करोड़ों लोग हैं जिन्होंने सत्ता संस्थान पर काबिज़ अभिजात वर्ग के सूचना के एकाधिकार और उस एकाधिकार से पैदा हुए आभिजात्य की पोल खोलकर रख दी है।
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उपरोक्त पोलखोल के कारण दुनिया में ऐसे-ऐसे लोग अपने देशों के शासनाध्यक्ष बन कर उभरे हैं जिनके बारे में सत्ता संस्थान में जमे लोगों को अनुमान तक नहीं था। इसके उदाहरण हैं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प। यह आकस्मिक नहीं है कि इन देशों में सत्ता संस्थानों और सरकारों के बीच छत्तीस का रिश्ता है। सत्ता संस्थान के विभिन्न अंग अभी भी इस बदली हुई स्थिति को स्वीकारने से इंकार कर रहे हैं क्योंकि सरकार के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया के द्वारा सीधे जनता से संवाद स्थापित कर जरूरी डाटा हासिल कर लेता है और इस डाटा के आधार पर जनहित में त्वरित फैसले लेने में समर्थ हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार की पारम्परिक सत्ता संस्थान पर निर्भरता न्यूनतम हो गई है जिस कारण न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, मीडिया और शिक्षा संस्थाओं में दशकों से जमे अभिजात वर्ग में तिलमिलाहट है।
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सत्ता संसथान और सरकार के दरम्यान बढ़ती दूरी का एक कारण वैश्विक जिहाद के सामने वोटबैंक केंद्रित लोकतांत्रिक व्यवस्था की बेपर्दा होती अक्षमता भी है। इस अक्षमता के विरोध में दुनियाभर के लोकतांत्रिके देशों में राष्ट्रीयता का उभार हो रहा है जिस कारण ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता की बागडोर दी जा रही है जो जिहाद की चुनौती से निपटने के लिए तानाशाहों की तरह फटाफट फ़ैसले ले सकें। फटाफट फ़ैसले लेनेवाले ऐसे राष्ट्रनिष्ठ प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति भी सत्ता संस्थान को रास नहीं आ रहे  और वह राष्ट्रनिष्ठ और राष्ट्रहित विरोधी ताक़तों में टकराव के कारण पैदा हो रही गृहयुद्ध की स्थिति को और हवा दे रहा है। जाहिर है कि वैश्विक जिहाद (Global Jihad) से निपटने में वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था (Global Democratic System) की अक्षमता के कारण पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का उभार (Global Resurgence of Nationalism) हो रहा है। दूसरी ओर जिहादी और राष्ट्रवादी ताक़तों के बीच टकराव से दुनियाभर के दर्जनों देशों में गृहयुद्ध (Global Civil War) के हालात बनते जा रहे हैं जिसे इन देशों के सत्ता संस्थान की शह प्राप्त है। भारत के 'नागरिकता संशोधन अधिनियम' (CAA) के विरोध में देशभर में चलाया गया 'शहीनबाग' आंदोलन उपरोक्त गृहयुद्ध की घंटी है। एक अनुमान के अनुसार इस वैश्विक गृहयुद्ध  में 35--40 करोड़ लोगों के नरसंहार की आशंका है जिसमें सबसे अधिक 5-7 करोड़ लोग सिर्फ भारत में मारे जा सकते हैं।
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सत्ता संस्थान बनाम सरकार (Establishment Vs Government ) का यह मामला स्थापित बौद्धिक वर्ग के लिए एकदम नया है क्योंकि उसकी नज़र में तो राजनीतिक सरकार और सत्ता संस्थान में कोई अंतर ही नहीं है। अभिजात वर्ग के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं कि सरकार और जनमत दोनों उसको एक साथ चुनौती दे रहे हैं। लेकिन यह भी एक कटु सत्य है और त्रासदी भी कि समाजविज्ञान और साहित्य के जानेमाने लोग न सिर्फ इस बदलाव को देख पाने में असमर्थ हैं बल्कि इसका जीजान से विरोध भी कर रहे हैं। उनके लिए एक्टिविज्म और अकादमिक चिंतन में कोई फ़र्क ही नहीं है। अनेक वरिष्ठ प्रोफेसर गर्व से यह कहते नहीं थकते कि वे 'उन लोगों में नहीं जो समय के साथ बदल जाते हैं' !
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एक प्रोफेसर को तो अपनी इच्छा के विरुद्ध भी अपनी अवधारणाओं को संशोधित करना पड़ता है अगर अद्यतन परिस्थितियों (डाटा) की ऐसी ही माँग हो। ऐसे न बदलने वाले प्रोफेसर से ज़्यादा उपयोगी तो औसत स्टोरेज क्षमता वाला कोई पेनड्राइव होगा क्योंकि जरुरत पड़ने पर आप उसमें काम की अद्यतन जानकारी (डाटा) स्टोर कर सकते हैं जिसके लिए उपरोक्त प्रोफेसर स्वघोषित रूप से अक्षम है। वैसे क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे प्रोफेसरों के जूते इनसे अधिक अकादमिक होते हैं? ऐसा इसलिए कि बमुश्किल दो हफ़्तों में आपके नये जूते खुद आपके पाँव की जरुरत के हिसाब से ढल जाते हैं। इन आचार्यों के जूते भी उनके पाँवों के अनुकूल हो ही जाते होंगे। काश ये अपने जूतों से ही सीख लेते तो देश और समाज को इतना भुगतना तो नहीं पड़ता! ©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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