Saturday, May 11, 2019

चुनाव-2019: भारतीय पुनर्जागरण का महाकाव्यात्मक मंच जिसके नायक हैं मोदी

चुनाव लंबा चलने का लाभ यह हुआ कि भेड़ की खाल ओढ़े भेड़ियों की पोलखोल हो रही है। हिंदू-मुस्लिम के बीच, हिंदू-ईसाई के बीच और मुस्लिम-ईसाई के बीच के 'गंगा-यमुनी' रिश्तों की 'कश्मीरियत' का पर्दाफ़ाश हो रहा है और सनातन के विभिन्न मतों को माननेवाले अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं। हिंदू हिंदू हो रहा, सिख सिख हो रहा, बौद्ध बौद्ध हो रहा, जैन जैन हो रहा, कबीरपंथी कबीरपंथी हो रहा... सब के सब अल्लाह, गॉड और ईश्वर की फ़र्जी गाँधीवादी एकता और सेकुलर-काँग्रेसी साज़िश को समझने लगे हैं।
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दो महीने तक चलनेवाले इस लोकसभा चुनाव की आग में तपने के बाद लाखों सनातनी योद्धा कुंदन बनकर निकलेंगे।
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यह दौर अपनी मूल प्रकृति में भले ही सैकड़ों साल चले भक्ति आंदोलन की तरह है लेकिन इसकी दशा और दिशा भिन्न है। एक तो इस्लामी हमलावरों के शासन के दौरान चले भक्ति आंदोलन के बरक्स आज के भारतीय पुनर्जागरण का न सिर्फ़ भौगोलिक फैलाव बहुत बड़ा है बल्कि इसमें जनभागीदारी भी बहुत बड़ी, इंटरएक्टिव और intense है। इस कारण इसकी ऊर्जा  भी रामानंद-गुरुनानक से लेकर गुरुगोविंद सिंह तक चले इस्लामी सत्ताकालीन भक्ति आंदोलन से हज़ारों गुना अधिक है।
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और भी भिन्नता है। तब की भक्ति में वैचारिकी का आधिक्य था, वह भी सुरक्षात्मक था क्योंकि उद्देश्य था कि हताश जन-गण-मन को किसी तरह सनातनी फोल्ड में बचाकर रखा जाए। इस लिहाज़ से कबीर और गुरुगोविंद सिंह में ज़रूर प्रखर वैचारिक आक्रामकता थी जिसका प्रस्फुटन सैकड़ों साल बाद आज के पुनर्जागरण में हो रहा है।
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लेकिन यह आक्रामकता आज वैचारिकी तक ही सीमित नहीं है क्योंकि देश आज़ाद है, लोकतांत्रिक व्यवस्था है, देश में 120 करोड़ से ज़्यादा मोबाइल कनेक्शन हैं, 95 करोड़ युवा हैं, 50 करोड़ स्मार्टफोन हैं...यानी करोड़ो सनातनी आज सजग होकर अपनी बात लागू करवा रहे हैं। इस क्रियात्मक आक्रामकता के ही उदाहरण हैं राममंदिर मुद्दे पर त्वरित सुनवाई का दबाव, रामसेतु की रक्षा, सबरीमाला पर सुप्रीकोर्ट के सनातन-विरोधी निर्णय का संगठित विरोध, अर्धकुंभ में 24 करोड़ लोगों का जमा होना, साध्वी प्रज्ञा के लिए जनसमर्थन और जिहाद-नक्सलवाद का केंद्रीय चुनावी मुद्दे के रूप में उभरना।
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आज का भारतीय पुनर्जागरण एक और अर्थ में भिन्न है। पहले के भक्ति आंदोलन के दौरान कभी कोई केंद्रीय नेतृत्व नहीं था जिस कारण उसका क्रियात्मक पहलू रणनीतिक तौर सुरक्षात्मक था और सांस्कृतिक पहलुओं तक सीमित था। इसके बरक्स आज का भक्ति आंदोलन संस्कृति को राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है क्योंकि उसके पास आरएसएस सरीखे सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन हैं, भाजपा-शिवसेना जैसी राजनीतिक पार्टियाँ हैं और नरेंद्र मोदी जैसा नेता है।.
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लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती। इस भक्ति आंदोलन का केंद्रीय तत्व भी पहले आंदोलन की ही तरह मूलतः सकारात्मक है: धर्म की स्थापना हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, सभी सुखी हों, किसी को दुःख न हो... भिन्नता यह है कि शांति और अहिंसा की स्थापना के लिए आज का भक्ति आंदोलन सख़्ती से शक्ति के उपयोग में सक्षम है, उन्मुख भी है। बालाकोट हवाई हमला इसका उदाहरण है। इसके अन्य उदाहरण हैं: तीन तलाक़ पर अध्यादेश, धारा 370 को निरस्त करने और समान नागरिक संहिता को लागू करने का जन दबाव। सैकड़ों सालों की राजनीतिक गुलामी से पैदा हुई आत्महीनता और मानसिक गुलामी पर खुली चर्चा, इससे मुक्ति की बेचैनी और तरीक़ों की तलाश भी  21 वीं सदी वाले भक्ति आंदोलन की मुख्य प्रवृत्तियों में शामिल है।
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मज़े की बात यह है कि 2019 का लोकसभा चुनाव इस ताज़ा भक्ति आंदोलन की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त महाकाव्यात्मक मंच बनकर उभरा है, जिस महाकाव्य की प्रतीक सूत्रधार भारत-माता हैं, 
प्रतीक महानायक मोदी हैं, और नायक हैं करोड़ो राष्ट्रीय योद्धा जो संगठन और पार्टी हितों से परे अपना स्वत्व होम कर रहे हैं। क्या मोदी ने नहीं कहा था कि उनकी तरफ़ से जनता चुनाव लड़ रही है। 1947 के बाद के  किसी नेता ने यह बात कही?  शायद नहीं। ऐसा इसलिए कि आज से पहले ऐसी स्थिति थी ही नहीं।
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इन्हीं करोड़ो स्वयंसेवक बुद्धियोद्धाओं और ज़मीनी सिपाहियों को मोदी-विरोधी गिरोह 'भक्त' नाम से अभिहित करता है। हिकारत से ही सही, लेकिन यह नामकरण सर्वाधिक उपयुक्त है। भक्तों के बिना भक्ति आंदोलन की कल्पना की जा सकती है क्या? नहीं न। तो जैसे पहले रामानुज, रामानंद, गुरु नानक से लेकर गुरु गोविन्दसिंह तक सब महान भक्त थे और उनके अनगिनत शिष्य-भक्त थे वैसे ही आज भारतीय पुनर्जागरण के बहाने करोड़ो-करोड़ भक्त पूरी दुनिया के कल्याण के लिए सन्नद्ध हैं। पहले भक्तों को परेशान करनेवालों को दुष्ट, दैत्य, दानव, राक्षस आदि कहते थे तो आज के भक्त-विलोम को क्या कहेंगे? फ़िलहाल तो 'कमभक्त' से काम चला लेते हैं।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

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