मोदी को लोग क्यों इतना पसंद करते हैं, इसका उत्तर इसमें है कि बाकियों में पसंद करने के लायक़ क्या-क्या है?
इस देश को इसके नायक होने का दावा करनेवालों ने इतना छला कि शाहरुख़ ख़ान,अमिताभ बच्चन और तेंदुलकर जैसे लोग नायक-महानायक-भगवान कहे जाने लगे।
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नेहरू, इन्दिरा, जयप्रकाश नारायण, लालू, मुलायम, मायावती, ममता, जयललिता, अन्ना हज़ारे, केजरीवाल--- किसिम-किसिम के नकलची, आत्मकेंद्रित, बेऔकाद, भ्रष्ट, अपराधी और देशबेंचूं टाइप जंतुओं को लोगों ने नायक बनाया और इतना धोखा मिला कि मायानगरी बॉलीवुड और क्रिकेट की शरण में जाने को लोग मजबूर हो गए।
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लोगों को जीने के लिए आशा चाहिए, इसलिए वे धोखा खाते रहे और भगवान पर भगवान(क्रिकेट का भगवान तेंदुलकर), नायक पर नायक बनाते रहे। यह मजबूरी से पैदा हुई सर्जनात्मकता है लेकिन फिर भी है बहुत-बहुत जरूरी। इस मजबूरी का फायदा उठाकर खलनायकों ने अपने को पुनर्परिभाषित कर लिया और खुद को नायक तथा नायकत्व की सम्भावना वाले लोगों को खलनायक घोषित करने लगे। इसी का उदाहरण है 2002 से 2014 तक मोदी को बिना प्रमाण के 'नरसंहारी' और 'कसाई' जैसे विशेषणों से नवाज़ना।
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इस बीच मोबाइल-इंटरनेट-सोशल मीडिया ने सूचना पर से टीवी-अखबारों के एकाधिपत्य को खत्म कर दिया और 12 सालों तक खलनायक बनाए गए मोदी कानून की अदालत के साथ-साथ जनता की अदालत से न केवल बाईज़्ज़त बरी हुए बल्कि लोगों को उनमें आशा का विहान दिखा। इस प्रकार वे महानायक, देवता (देनेवाला) और भगवान ( भाग्य को बनानेवाला) सब इकट्ठे बना दिए गए।
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70 सालों की प्रतीक्षा के बाद ऐसा हुआ है, इसलिए भक्तिभाव गहरा है। खुद के बनाए भगवान और महानायक पर संदेह खुदपर संदेह जैसा है। इस प्रकार राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर मोदी से इतर कोई राय जनता यानी भक्तों के लिए विश्वसनीय नहीं है।
2002 से 2014 तक के मोदी राजनीतिशास्त्र के दायरे की सख्सियत हैं लेकिन 2014 से अबतक के मोदी को तो मनोविज्ञान के बिना समझा ही नहीं जा सकता। यहीं पर मोदी-विरोधी मात खा रहे हैं क्योंकि वे मोदी को सिर्फ राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं जबकि जनता मोदी में एक साथ चन्द्रगुप्त, चाणक्य, शंकराचार्य, राणा प्रताप, शिवाजी, नेताजी और भगवान राम को देख रही है।
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"हर हर मोदी घर घर मोदी" कोरा नारा नहीं है। यह एक मनोवैज्ञानिक हकीकत है। मोदी इस बात को समझते हैं और खुद को महामानव (सुपरमैन) साबित करने में भी लगे रहते हैं: कितना कम सोते हैं!इतने कम कम समय में इतने देशों की यात्रा!इस्राइल जानेवाले पहले प्रधानमंत्री!नोटबंदी के बाद जीएसटी! बाप रे भरसक विरोधी सब कंस की तरह मोदी के पीछे पड़ा है!
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मोदी की काट सिर्फ मोदी हैं या उनके जैसा कोई और व्यक्ति, ऐसी-वैसी आलोचना तो उनके लिए संजीवनी का ही काम करेगी और कर रही है (मोदी के सबसे प्रभावकारी प्रचारक भक्त या संघी नहीं बल्कि सेकुलर-वामी-जेहादी लोग हैं जो भारतीय मनीषा पर अहर्निश पर निराधार प्रहार करते रहते हैं)। विश्वास न हो तो बस चार बार जोर से साँस लीजिए-छोड़िए और खुद से पूछिए:
●कोई और नेता अबतक नोटबंदी क्यों नहीं लागू कर पाया?
●जीएसटी को मोदी का इंतजार क्यों था?
●ऐसी सर्जिकल स्ट्राइक पहले हुई थी क्या?
●विश्वपटल पर किसी भारतीय नेता को ऐसी इज़्ज़त मिली क्या?
●पिछले हजार सालों में हिन्दुस्तानी मन इतना बोल्ड, आत्मविश्वासी और आशावादी हुआ क्या?
●परम्परा के सर्वोत्तम तत्वों की वापसी को लेकर कभी इतना बेबाक विमर्श हुआ क्या?
●आत्महीनता और आत्मनिर्वासन के शिकार हिन्दुस्तानियों में आत्मगौरव और राष्ट्रगौरव का ऐसा संचार हुआ क्या?
●चीन को कभी भारत ने धौंसाया क्या?
●कश्मीर में जिहाद-विरोधी अभियान में सेना को ऐसी खुली छूट मिली क्या?
●निजी उद्यमिता को कभी इतना सम्मान मिला क्या?
●पश्चिम की बिना अकल नकल करनेवालों इतनी खुली चुनौती मिली क्या?
●जीवन से जुड़ी हर चीज को पुनर्परिभाषित करने का ऐसा सघन और स्वतःस्फूर्त आन्दोलन चला क्या?
● राम-कृष्ण-शंकर और नानक-कबीर-रैदास-रहीम-रसखान-दारा शिकोह जैसों का देसी पुनर्पाठ हुआ क्या?
∆सेकुलरवाद से लेकर राष्ट्रवाद तक,
∆मजहब-दीन-रिलिजन से लेकर धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष तक,
∆बाजारवाद से लेकर समाजवाद तक,
∆आस्था से लेकर सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् तक,
∆ऋषि-मुनि-गुरु-ब्रह्मर्षि से लेकर देवी-देवता-भगवान तक,
∆ईशा-पैग़म्बर से लेकर ईश्वर-अल्ला-गॉड तक और
∆भक्त-कम्बख़्त- मानसिक गुलाम से लेकर बुद्धिजीवी-बुद्धिविलासी-बुद्धिपिशाच-बुद्धियोद्धा तक ----
कभी देसी दृष्टि से इतनी व्यापक और घनघोर बहसें हुईं क्या?
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इसी को भारतीय नवजागरण कहते हैं जो
भक्तिआंदोलन से सीधे जुड़ता है
लेकिन उससे बहुत व्यापक और गहरा है
क्योंकि इसमें करोड़ों-करोड़ लोग शामिल हैं
और इसके मूल में गंगाजमुनी दास्यभाव की समरसता नहीं है, हो ही नहीं सकती। इसका केंद्रीय तत्त्व है सार्वभौमिक साम्यभाव की समरसता
जिसके दर्शन कबीर जैसे इक्के-दुक्के संतों को छोड़ भक्तिआंदोलन में भी नहीं होते।
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एक लंबे अंतराल वाले भाटे के बाद ज्वार का यह दौर आया है --- भारत की परंपरा के सर्वोत्तम के महासागर में ज्वार का दौर।
सैकड़ों साल की अमावस्या के बाद शुक्लपक्ष आया है, जिसमें चाँद डूबेगा नहीं।
लेकिन यह चाँद शुद्धमना भक्तों को जरा पहले दिख गया है, कमबख़्त गुलाम अभी भी राहु-केतु वाले काले दाग़ से चिपके हैं। तभी तो कबीरदास कह गए:
'माया के गुलाम गिदर का जाने बंदगी'?
उधर मोदी के रणनीतिकार सोचते होंगे:
दाग़ अच्छे हैं!
#ChandrakantPSingh
(2 जुलाई 2017 की पोस्ट, चित्र 5 अगस्त 2020 का।)