U&ME

Sunday, December 31, 2017

Hindu Diaspora promoting an anti-minority regime in India ?


25.12.17
Some people say that the Hindu Diaspora, a minority itself globally, is promoting an anti-minority regime in India.
My take on this is as following:
1. This statement is NAARATIVE-led, not DATA-led as it conveniently leaves out the phenomenon of Majority suffering from the Minority Syndrome because of Minoritism being promoted by the votebank politics that equated Muslim Fundamentalism and its Appeasement with Secularism.
2. Another important point left out by this statement is the phenomenon of Islamic Terrorism globally.
3. The third point is the faulty conceptualization of Minority itself. In India, Muslims with 16 plus population are treated as a minority whereas they are a second largest majority whose mindset was best summed up by Akbar Ilahabadi almost a century ago:
पेट मसरूफ़ है क्लर्की में
दिल है ईरान और टर्की में।
4. And this so called minority is hellbent upon forcing the wheel of time back through its insistence on Anti-human and Discriminatory Special Privileges as per Shari'a. Globally, non-Muslim minorities fight for equality not for privileges such as Triple Talaq.
5. The most important point conveniently overlooked is the fact that the weakest minority is none other than the INDIVIDUAL for whom the 'Muslim Minority' has least respect as it wants to relive the age that believed in the affluence resulting from Maal-e-Ghanimat.

Summing up, such a narrative is beautifully structured to pick up data that suit to its pre-decided conclusions rather than allowing the narrative flow from the data. This is typically a SECULAR-LIBERAL trait badly challenged by the data-miners!
Consequently, this narrative miserably fails to articulate the fact that Hindu NRIs are responding to the same challenges in their adopted countries as Hindus do back in India or non-Muslims globally. And what are the challenges? These are about how best to counter an anti-human political ideology (Islam) that is using democratic freedoms to kill the democracy itself in the longterm.
©Chandrakant P Singh

हिंसा ही परम धर्म है... हिंसा से ही टिकाऊ शांति सम्भव है...

25.12.17
हिंसा ही परम धर्म है...
हिंसा से ही टिकाऊ शांति सम्भव है...

1000 सालों से धोखे-नरसंहार-लूट-अपमान के शिकार हिंदुओं को सिर्फ सात्विक हिंसा ही बचा सकती है क्योंकि अबतक अहिंसा को कायरता की हद तक महिमामंडित किया गया है।
इस सात्विक हिंसा का ही हिस्सा है सवाल पूछना...
उन घटनाओं-लोगों-स्थानों-प्रतीकों-अवधारणाओं-परिभाषाओं पर सवाल उठाना जिनके दम पर हर ग़लत चीज़ को सही साबित करने की साज़िश होती रही है...

●राम का जन्म प्रमाणपत्र माँगनेवालों के उत्सव में हम क्यों शरीक़ हों जबतक वे उनके जन्म के प्रमाणपत्र नहीं दे देते जिनका उत्सव मना रहे हैं?
●हिंदुओं के तीनों देवताओं-नायकों के जन्मस्थानों पर मस्जिदें क्यों हैं? ये मस्जिदवाले पहले आये या हमारे देवता और नायक?
●नालंदा विश्वविद्यालय को जलानेवाले के नाम पर आज भी बिहार के एक शहर (बख़्तियारपुर) का नाम क्यों है?
●भारत को दीन-हीन बनानेवाले अंग्रेज़ों की रानी के नाम पर 'विक्टोरिया मेमोरियल' क्यों है?
●हमारे प्रतीकों को अपमानित करनेवालों के उत्सव में शामिल होने की मूर्खता हम क्यों करें?
●ये सेकुलर-कम्युनल क्या बला है? इसकी उम्र क्या है? इसके पैदा होने के पहले ही भारत ने ईसाइयों के मारे यहूदियों, मुसलमानों के मारे पारसियों और एक ख़लीफ़ा के मारे पैग़म्बर मुहम्मद के परिवार को किस आधार पर ससम्मान शरण दी थी?
●हम उस गंगा-जमुनी तहजीब को क्यों मानें जो फरेब पर टिकी है, जो हमें 'प्रयाग' को 'अल्लाहाबाद'(इलाहाबाद), 'अयोध्या' को 'फैज़ाबाद', आगरा' को 'अकबराबाद', 'पटना' को 'अजीमाबाद' और 'रामसेतु' को 'एडम्स ब्रिज' कहने को मजबूर करती है?
●हम उस सांस्कृतिक समरसता को क्यों मानें जो हमारे अंदर 'स्वामीभाव' की जगह 'दास्यभाव' को मजबूत करती है, जो कबीर-रहीम-रसखान-मीर-ग़ालिब-नज़ीर की जगह हाली-इक़बाल को इस्लाम के बौद्धिक शमशीर के रूप में स्थापित करती है?
●दिल्ली में लोदी रोड की जगह कबीर रोड क्यों नहीं है?
●बाबर रोड की जगह राणा सांगा रोड क्यों नहीं है?
●अकबर रोड की जगह राणा प्रताप रोड क्यों नहीं है?
●फिर हम ऐसे व्यक्ति को अपना नायक क्यों माने जो गर्व से कहता था: 'मैं तो मन से यूरोपीय हूँ और सिर्फ तन से भारतीय' ? भले ही वह व्यक्ति देश का पहला प्रधानमंत्री क्यों न हो?
●हमारे नायक हम तय करेंगे कि हमारे दुश्मन? आज़ादी 70 सालों बाद भी हमारे दिलोदिमाग पर हमारे दुश्मन क्यों हावी हैं?
●हम इन दुश्मन-विचारों की चीरफाड़ क्यों नहीं करते?
●उच्चशिक्षा प्राप्त भारतीयों के हिन्दू-द्वेषी, देशहित-विरोधी और मानसिक ग़ुलाम होने का ख़तरा क्यों रहता है?
●अक्सर विज्ञान के विद्यार्थी राष्ट्रवादी और समाजविज्ञानों-साहित्य के विद्यार्थी राष्ट्रद्वेषी क्यों हो जाते हैं?
●गाँव की एक अनपढ़ बुजुर्ग महिला क्यों कहती है:
'जे जेतना पढ़ुआ उ ओतना भड़ुआ' ?

आज जो हमारे सवालों से बिलबिलाये हैं वे हमें नेस्तनाबूद करनेवालों को अपने नायक मानते हैं जो एक बौद्धिक हिंसा है। हमारे सवाल फिलहाल तो बौद्धिक प्रतिहिंसा या आत्मरक्षार्थ ही हैं लेकिन कल को इन्हें और भेदक और लेज़र-धर्मी होना पड़ेगा।
लब्बोलुआब यह है कि हिंसा और हिंसा ही टिकाऊ अहिंसा और शांति की गारंटी है न कि बौद्धिक-कायरता जनित अहिंसा।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

ईसा मसीह पर भारत का दावा किसी से भी कहीं ज़्यादा है


25.12.17
ईसा मसीह पर भारत का दावा किसी से भी कहीं ज़्यादा है

ईसाई वह जो माने कि ईसा मसीह क्रॉस पर लटकाने से मरे थे और दुनियाभर के पापों का अकेले प्रायश्चित कर गए। उनका क्रॉस पर मरना झूठ साबित हो चुका है पर चर्च इसे जानते हुए भी नहीं मानता क्योंकि खरबों रुपये का उसका मतान्तरण का धंधा इसी झूठ पर टिका है।
क़ुरआन भी इसे स्वीकारता है कि ईसा मसीह की मौत सूली पर नहीं हुई थी। शोध यह भी कहते हैं कि ईसा मसीह मरियम के साथ भागकर कश्मीर आ गए, बौद्धों ने उन्हें बोधिसत्व कहा, लंबी आयु में वे कश्मीर में ही मरे, उनकी मज़ार को रोज़ाबल कहते हैं, मरियम रास्ते में ही मृत्यु को प्राप्त हुईं और वे जिस जगह मुदफ़न हैं उसे "मारी दा मज़ार" कहते हैं जो कश्मीर से सटे पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाके में आता है।
ईसा मसीह के साथ जो यहूदी लोग कश्मीर आये उन्हें अभी भी वहाँ "बनी इसराइल" (अपना इज़राइल) कहते हैं और उनका मूल पेशा भी वही है जो 2000 हज़ार साल पहले आये उनके पूर्वजों का था: भेड़ पालन।
आज गोरो के सामने अस्मिता का संकट पैदा हो गया है कि उनके देवपुत्र ईसा मसीह को भारत ने न सिर्फ शरण दी बल्कि उनके पहले उपदेश (Sermon on the Mount) में भी महात्मा बुद्ध के सारनाथ प्रवचन की धमक है। और जो उनके पास है वह तो सेंट पॉल की धन्धेबाज़ी कला का नमूना मात्र है, वह चर्चियत है ईसाइयत नहीं। कहीं इसीलिए तो यह प्रयास नहीं हो रहा कि ईसा मसीह तो हुए ही नहीं? इस तरह भारत के वैचारिक और आध्यात्मिक स्रोतों से मुक्ति मिल जाएगी और अपना धंधा-ए-चर्च भी बना रहेगा क्योंकि चर्च से तो ईसा का वैसे ही कोई नाता नहीं।
पश्चिमी देशों में चर्च, सरकार और उनके रणनीतिक शोध तथा शिक्षा-संस्थानों में कितनी गहरी आंतरिक एकता और समन्वय है इसका अंदाज़ा अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन के उस फ़ैसले से लगाया जा सकता है जिसके तहत ओशो को अपमानित करके ओरेगॉन आश्रम से निकाला गया था । इस दौरान उन्हें थेलियम ज़हर दिए जाने के भी दावे किये जाते रहे हैं। लेकिन ओशो को निकाला क्यों गया था? उनको इसलिए निकाला गया था कि उन्होंने ईसा मसीह के भारत-संबंध और चर्च के झूठ को उजागर करने का साहस किया था।
जब यह तय है कि 25 दिसंबर ईसा मसीह का नकली जन्मदिन है तो क्यों न हम असली जन्मदिन पर अपना सांस्कृतिक दावा पेश कर दें और उन्हें बौद्ध परंपरा से मिले बोधिसत्व के सम्मान का विश्वव्यापी प्रचार करें? 25 दिसंबर को ईसा का जन्मदिन इसलिए मनाया जाने लगा कि इस दिन पहले से एक बड़ा त्यौहार मनाया जाता था और इसका लाभ उठाकर ईसाई मिशनरी इस त्यौहार को मनानेवालों को ईसाइयत में कन्वर्ट करना चाहते थे।
एक बात और। भारत में जन्मे हरगोविंद खुराना या चंद्रशेखर को मिले नोबेल पुरस्कार जिस तर्क से अमेरिका के खाते में जाते हैं उसी तर्क से ईसा मसीह भी भारत के खाते में आते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
नोट: Holger Kirsten की किताब Jesus Lived in India (Penguin, 1982) काम की है।

26.12.17
इस्लाम के बारे में मुकम्मल जानकारी रखना सिर्फ़ 'अल्लावालों' के लिए ही ज़रूरी नहीं है। पर ऐसा क्यों? काफ़िरों और मुशरीक़ों को क्या ग़रज़ पड़ी है कि "ईमान" की बातें जानें, उनपर अपना टाइम 'भेस्ट' करें?
इसे जानने के लिए नीचे दिए लिंक पर एक नज़र डालें जो शांति के मजहब के सन्देश की महज़ बानगी हैं।
मेरी वाल से जुड़े फेसबुकिया बुद्धिवीर इस पोस्ट को कॉपी-पेस्ट करने की हिम्मत दिखाएँ। लगभग 5000 लोगों में जो ऐसा करेगा वही सत्य की खोज का साथी और बाक़ी फट्टू जिन्हें राम-राम कह ही देना चाहिए।
जिन शांतिदूतों को इन आयतों के हिंदी अर्थ और सन्दर्भ पर संदेह हो वे इनके असली अर्थ और सन्दर्भ बतायें ताकि मुशरीक़ और काफ़िर अँधेरे में न रहें कि अल्लापाक ने उनके लिए क्या-क्या फ़रमाया है:

1- ''फिर, जब पवित्र महीने बीत जाऐं, तो 'मुश्रिको' (मूर्तिपूजको ) को जहाँ-कहीं पाओ कत्ल करो, और पकड़ो और उन्हें घेरो और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। ( कुरान मजीद, सूरा 9, आयत 5) (कुरान 9:5) . www.quran.com/9/5 www.quranhindi.com/p260.htm
*
2- ''हे 'ईमान' लाने वालो (केवल एक आल्ला को मानने वालो ) 'मुश्रिक' (मूर्तिपूजक) नापाक (अपवित्र) हैं।'' (कुरान सूरा 9, आयत 28) . www.quran.com/9/28 www.quranhindi.com/p265.htm
*
3- ''निःसंदेह 'काफिर (गैर-मुस्लिम) तुम्हारे खुले दुश्मन हैं।'' (कुरान सूरा 4, आयत 101) . www.quran.com/4/101 www.quranhindi.com/p130.htm
*
4- ''हे 'ईमान' लाने वालों! (मुसलमानों) उन 'काफिरों' (गैर-मुस्लिमो) से लड़ो जो तुम्हारे आस पास हैं, और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें।'' (कुरान सूरा 9, आयत 123) . www.quran.com/9/123 www.quranhindi.com/p286.htm
*
5- ''जिन लोगों ने हमारी ''आयतों'' का इन्कार किया (इस्लाम व कुरान को मानने से इंकार) , उन्हें हम जल्द अग्नि में झोंक देंगे। जब उनकी खालें पक जाएंगी तो हम उन्हें दूसरी खालों से बदल देंगे ताकि वे यातना का रसास्वादन कर लें। निःसन्देह अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वदर्शी हैं'' (कुरान सूरा 4, आयत 56) www.quran.com/4/56 www.quranhindi.com/p119.htm
*
6- ''हे 'ईमान' लाने वालों! (मुसलमानों) अपने बापों और भाईयों को अपना मित्र मत बनाओ यदि वे ईमान की अपेक्षा 'कुफ्र' (इस्लाम को धोखा) को पसन्द करें। और तुम में से जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा, तो ऐसे ही लोग जालिम होंगे'' (कुरान सूरा 9, आयत 23) . www.quran.com/9/23 . . www.quranhindi.com/p263.htm .
*
7- ''अल्लाह 'काफिर' लोगों को मार्ग नहीं दिखाता'' (कुरान सूरा 9, आयत 37) . www.quran.com/9/37 . . www.quranhindi.com/p267.htm .
*
8- '' ऐ ईमान (अल्ला पर यकिन) लानेवालो! तुमसे पहले जिनको किताब दी गई थी, जिन्होंने तुम्हारे धर्म को हँसी-खेल बना लिया है, उन्हें और इनकार करनेवालों को अपना मित्र न बनाओ। और अल्लाह का डर रखों यदि तुम ईमानवाले हो (कुरान सूरा 5, आयत 57) . www.quran.com/5/57 www.quranhindi.com/p161.htm
*
9- ''फिटकारे हुए, (मुनाफिक) जहां कही पाए जाऐंगे पकड़े जाएंगे और बुरी तरह कत्ल किए जाएंगे।'' (कुरान सूरा 33, आयत 61) . www.quran.com/33/61 www.quranhindi.com/p592.htm
*
10- ''(कहा जाऐगा): निश्चय ही तुम और वह जिसे तुम अल्लाह के सिवा पूजते थे 'जहन्नम' का ईधन हो। तुम अवश्य उसके घाट उतरोगे।'' ( कुरान सूरा 21, आयत 98 . www.quran.com/21/98 www.quranhindi.com/p459.htm
*
11- 'और उस से बढ़कर जालिम कौन होगा जिसे उसके 'रब' की आयतों के द्वारा चेताया जाये और फिर वह उनसे मुँह फेर ले। निश्चय ही हमें ऐसे अपराधियों से बदला लेना है।'' (कुरान सूरा 32, आयत 22) . www.quran.com/32/22 www.quranhindi.com/p579.htm
*
12- 'अल्लाह ने तुमसे बहुत सी 'गनीमतों' का वादा किया है जो तुम्हारे हाथ आयेंगी,''(लूट का माल) (कुरान सूरा 48, आयत 20) . www.quran.com/48/20 . . www.quranhindi.com/p713.htm
*
13- ''तो जो कुछ गनीमत (लूट का माल जैसे लूटा हुआ धन या औरते) तुमने हासिल किया है उसे हलाल (valid) व पाक समझ कर खाओ (उपयोग करो)' (कुरान सूरा 8, आयत 69) . www.quran.com/8/69 www.quranhindi.com/p257.htm
*
14- ''हे नबी! 'काफिरों' और 'मुनाफिकों' के साथ जिहाद करो, और उन पर सखती करो और उनका ठिकाना 'जहन्नम' है, और बुरी जगह है जहाँ पहुँचे'' (कुरान सूरा 66, आयत 9) . www.quran.com/66/9 www.quranhindi.com/p785.htm
*
15- 'तो अवश्य हम 'कुफ्र' (इस्लाम को धोखा देने वालो) करने वालों को यातना का मजा चखायेंगे, और अवश्य ही हम उन्हें सबसे बुरा बदला देंगे उस कर्म का जो वे करते थे।'' (कुरान सूरा 41, आयत 27) . www.quran.com/41/27 www.quranhindi.com/p662.htm
(आभार: श्री Naresh Shah)

www.quran.com


Who all represent today WE THE PEOPLE of our Constitution?

27.12.17
Who all represent today " WE THE PEOPLE" of our Constitution? Is our Constitution as rigid as Shari'a ?
.
Some people say that the lawmakers of today can't change the constitution, especially its basic structure.
Now the question is:
●Who constituted "...We the people of India..." who said that we "...give to ourselves..." the constitution of India?
This question raises further questions:
●How were those people elected or selected?
●Are the lawmakers of today any less representative of their people/constituencies?
●If yes, how and why?
●Or, was it a one time affair, i.e., only the Constituent Assembly had this power of representing the people of India and with them disappeared this power as well ?
●If yes, what was the source of this power?
Why so many amendments?
●Haven't some of these amendments already struck at the basic fabric of Indian society and polity?
●What is the basic structure of the constitution and is it independent of time and space?
●Is the basic structure independent of the change in the structure of the demography it serves?
● If yes, is the 'Constitution for the People' or are the 'People for the Constitution'?
●Finally, if the BASIC STRUCTURE is unalterable, how is the constitution different from Qur'an or Shari'a?
©ChandrakantPSingh

वामपंथियों के सामने राष्ट्रवादी क्यों पिछड़ते हैं?

28.12.17

वामपंथियों के सामने राष्ट्रवादी क्यों पिछड़ते हैं?
पिछले 100 सालों से पूरी दुनिया की बौद्धिकता पर वामपंथ हावी रहा है जिसके मूल में सत्य-विरोधी नैरेटिव है जो नैतिकता के छद्मावरण में पेश होता है और एक की विफलता के लिए दूसरे की सफलता को जिम्मेदार बताकर पूरे समाज में काहिली को बढ़ावा देता है। इस तरह वह निजी उद्यम को नीची निगाह से देखता है और अंततः धनोपार्जक को उत्पीड़क तथा निर्धन को पीड़ित साबित कर ख़ुद को पीड़ित की आवाज़ घोषित कर देता है।
●मनोविज्ञान बनाम अर्थशास्त्र

इस लिहाज से वामपंथ का अर्थशास्त्र से कम मनोविज्ञान से ज़्यादा गहरा रिश्ता है।कौन नहीं चाहेगा कि उसकी असफलताओं के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहरा दिया जाए?
राष्ट्रवादी इस वामपंथी छद्मावरण को डिकोड नहीं कर पाने के चलते वामी तर्कजाल में अक्सर उलझ जाते हैं। पूरे यूरोप-अमेरिका का यही हाल है। आज स्थिति यह है कि भारत समेत यूरोप-अमेरिका के ज्यादातर देशों में चुनावी जीत चाहे किसी भी पार्टी की हो, वैचारिक जीत वामियों की ही होती है।

●वामपंथ और इस्लाम

उपरोक्त संदर्भ में वामपंथ के बीज इस्लाम में छिपे दिख जाते हैं क्योंकि वहाँ भी मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या काफ़िर (ग़ैरमुसलमान) हैं और काफ़िरों को जेहाद के द्वारा मुसलमान बनाना या मिटा देना ही उनका सबसे पाक उद्देश्य है। इस प्रक्रिया में काफ़िरों की ज़र-जोरू-ज़मीन पर कब्ज़ा करना वैसे ही हलाल है जैसे वामपंथ में ख़ूनी क्रान्ति द्वारा धनी लोगों की लूट और उनका सफ़ाया वाजिब है।

लेकिन दोनों की पोलखोल उनके सत्ता में आने के बाद व्यवस्थाजनित विफलता से होती है। इस विफलता की जड़ में है मनुष्य की बेहतर संभावनाओं को कुचल कर उसे राज्याश्रित या किताबाश्रित बना दिया जाना जिसके बाद वह निजी उद्यम से ज्यादा लूट-खसोट को अपनी राह के रूप में चुनता है। सोवियत संघ का पतन, चीन का पूँजीवाद की राह पकड़ना और इस्लामी देशों के कलह इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

●एक मानसिक बीमारी

अपनी विफलता के लिए दूसरे की सफलता को जिम्मेदार ठहराकर ख़ुद को पीड़ित-दमित घोषित करने को अगर आधार-दृष्टि मान लिया जाए तो साम्यवाद-इस्लाम-जातिवाद आदि एक मानसिक बीमारी के सिवा कुछ भी नहीं जिनका ईलाज असंभव सा है क्योंकि इस बीमारी का जो शिकार होता है उसे अपनी बीमारी के बने रहने में ही अपना हित नज़र आता है।
मतलब यह भी कि सोये हुये को तो जगाया जा सकता है, लेकिन सोने का नाटक करनेवाले को कैसे जगाया जाए? अगर लोकतंत्र में ऐसे सोने का नाटक करनेवाले बहुमत में आ गए तो वे इस नाटक को ही असली और असल जीवन के धर्म(कार्य-व्यापार, कर्त्तव्य) को नकली घोषित करने में सफल हो जाएँगे। ऐसा ख़तरा आज पूरी दुनिया पर मँडरा रहा है।

●कट्टरता के स्रोत:अज्ञान, धूर्तता, परमज्ञान

अक्सर लोग यह कहते सुने जाते हैं वामपंथी या इस्लामवादी अपने उद्देश्य के प्रति इतने कट्टर होते हैं कि उनपर विश्वास सा होने लगता है। यहाँ यह सहज सवाल उठता है कि इस कट्टरता का स्रोत क्या है? कट्टरता के मूल स्रोत तीन ही होते हैं:
अज्ञान, धूर्तता या फिर परमज्ञान।

वामपंथ और इस्लाम का परमज्ञान से नाता इसलिए नहीं हो सकता कि परमज्ञान सर्वग्राही और समावेशी होगा, वह 'माले मुफ़्त दिले बेरहम' के सिद्धान्त पर टिका नहीं हो सकता। इसके बाद नंबर आता है अज्ञान और धूर्तता का। वामपंथ और इस्लाम दोनों के शीर्षस्थ और दार्शनिक स्तर पर तो धूर्तता ही प्रमुख है क्योंकि यह मानना मुश्किल है कि मूल विचार के प्रतिपादकों को जीवन और समाज की असलियत नहीं पता होती। लेकिन निचले स्तर पर लोगों को ऐसे दृष्टिगत पेंचोखम से परिचय नहीं होता और वे सीधे-सीधे इसे अपने तात्कालिक स्वार्थ या हित से जोड़कर देखते हैं। मतलब कट्टरता की जड़ में है आम लोगों का अज्ञान और ख़ास लोगों की धूर्तता।

हाँ, यह बात जरूर है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के कारण अब इस वामी-इस्लामी छद्मावरण और नाटक की पोल खुलने लगी है।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

मनुस्मृति और शरीया में क्या अंतर है?


 28.12.17
संता: मनुस्मृति और शरीया में क्या अंतर है?
बंता: एक को लागू करने की कभी मजबूरी नहीं
थी जबकि दूसरे की आलोचना भी हराम है।
संता: फिर लोग मनुस्मृति को जलाते क्यों हैं?
बंता: इससे वोट मिलता है, सत्ता मिलती है और कोई ख़तरा भी नहीं है।
संता: पर शरीया और मनुस्मृति पर बौद्धिक बहस तो हो ही सकती है।
बंता: क्यों नहीं?
संता: लेकिन बहस होती कहाँ है!
बंता: इस देश के पढ़े-लिखे लोग राजनीतिक दलों के लाउडस्पीकर जो हैं।
संता: लाउडस्पीकर बने रहने के क्या फ़ायदे हैं?
बंता: अध्ययन-चिंतन-मनन द्वारा देश की समस्याओं के स्वतंत्र और निर्भीक समाधान देने से मुक्ति मिल जाती है।
संता: पर इससे क्या लाभ?
बंता: इस तरह चुप रहने या रोबोट की तरह बोलने से आजीविका की गारंटी हो जाती है।
संता: फिर ये पढ़ुआ लोग बुद्धिजीवी कैसे हो गए?
बंता: वे बिल्कुल बुद्धिजीवी हैं।
संता: मतलब?
बंता: भारतभूमि पर जन्मे किसी भी धर्म की जितनी भर्त्सना करो, उतने ही भीषण बुद्धिजीवी माने जाओगे। परन्तु जैसे ही किसी मजहब या रिलिजन पर मुँह खोला नहीं कि घोर कम्युनल का सर्टिफिकेट मिल जावेगा।
संता: बात पल्ले नहीं पड़ी।
बंता: आप वेद-उपनिषद्- मनुस्मृति की चाहे जितनी खिल्ली उड़ाओ पर क़ुरआन-हदीस-शरीया पर आज की जरुरत के हिसाब से कुछ कहा नहीं कि आप पोंगापंथी, इस्लाम-विरोधी, मोदीभक्त और संघी करार दिए जाएँगे।
संता: लेकिन हमारा देश तो कहते हैं कि सेकुलर है।
बंता: एकदम सेकुलर है लेकिन इसका अर्थ है वोटबैंक के लिए अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और बहुसंख्यक की अवमानना।
संता: लेकिन कबतक ऐसा चलेगा?
बंता: जबतक अल्पसंख्यक अपनी आसमानी किताबों के लिए जीना छोड़कर ख़ुद के लिए जीना नहीं शुरू कर देता।
संता: और बहुसंख्यक का कोई रोल नहीं?
बंता: है न, उसे अपनी चुप्पी तोड़ सभी नागरिकों की बराबरी के लिए सिंहनाद करना होगा।
संता: इससे होगा क्या?
बंता: तब हम आसमानी किताबों के बजाये ख़ुद की बनायी किताब संविधान के मुँहताज होंगे जिसमें जैसी जरुरत हो वैसी तब्दीली कर सकेंगे।
संता: फिर तो कोई मनुस्मृति या कोई किताब नहीं जलायेगा?
बंता: जलाने को तो जला ही सकता है लेकिन किसी भी किताब का असल विरोध तो दूसरी किताब लिखकर ही किया जा सकता है।
संता: सुनते हैं कि बख़्तियार ख़िलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय की एक करोड़ पुस्तकों वाली लाइब्रेरी ही जला दी थी?
बंता: उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी का भी यही हस्र किया था परंतु ऐसा करनेवाला न वह अंतिम व्यक्ति था न ही प्रथम।
संता: लेकिन ये लोग ऐसा करते ही क्यों हैं?
बंता: क्योंकि इनका मूलमंत्र है,"हम ही हम बाकी सब खतम"।
संता: पर भारत में सभी विरोधी विचारों को भी पूरा सम्मान मिलता रहा है।
बंता: इसी का तो लाभ उठाकर ये लोग लोकतंत्र का ही गला घोंटने पर आमादा हैं।
संता: इससे बचने का कोई उपाय?
बंता: यहाँ का खासकर बहुमत वोटबैंक के बजाये जिम्मेदार नागरिकों का समाज बन जाए।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

तीन तलाक़: सेकुलर सवाल और कम्युनल जवाब


 29.12.17
तीन तलाक़: सेकुलर सवाल और कम्युनल जवाब
===============================
■सवाल:
"तीन तलाक़ से तो सिर्फ मुसलमान औरतों को शायद मुक्ति मिलेगी लेकिन उन हिन्दू औरतों का क्या जिनका पति उन्हें छोड़कर भाग गया?"
■जवाब:
यह तो ऐतिहासिक महत्व का सवाल है, इसलिये इतिहास में जिन लोगों ने भी ऐसा या इससे मिलता-जुलता कुछ किया हो, उन्हें और कुछ नहीं तो नायकत्व से वंचित किया ही जा सकता है ताकि हम वैसे ही नायक चुनें जो पाकसाफ हों। वर्तमान वाले को तो असली ज़िंदा सज़ा दे सकते हैं।

●राम ने गर्भवती सीता को वनवास दे दिया...
●महात्मा बुद्ध पत्नी को सोते छोड़ घर से निकल गये... ●पैग़म्बर मुहम्मद साहेब ने अपनी एक बीमार पत्नी अमरा बिन्त यज़दी और उनकी बीमारी (कोढ़) दोनों को हराम करार दे दिया था...
● एक मरदूद ने ईसा मसीह की अच्छी-भली मुकम्मल माँ मरीयम को ईसाई सेंटों द्वारा कुँवारी घोषित किये जाने के लिए मजबूर कर दिया...उसका भी पता लगाना चाहिए ताकि उसे वक़्त की अदालत के सामने पेश किया जा सके, यह बात अलग है कि एक बच्चे की असल पहचान तो वह कोख ही होती है जिससे वह इस जहाँ में पदार्पण करता है भले जैविक पिता कोई भी क्यों न हो...

इस लिस्ट को और लंबा करना चाहिए ताकि कोई बचे नहीं, किसी के साथ अन्याय न हो...
●मसलन कार्ल मार्क्स ने अपनी पत्नी को चीट करते हुए अपनी नौकरानी से एक 'लव चाइल्ड' पैदा किया और अपने परममित्र एंगेल्स को यह जिम्मेदारी लेने के लिए राज़ी किया...

इसी तरह उन हाई प्रोफाइल पत्नियों को भी शामिल किया जा सकता है जिन्होंने अपने पतियों को छोड़ दिया...
●मीरा बाई ने अपने राणा को छोड़ कृष्ण की मूर्ति को ही अपना पति घोषित कर दिया और भूखे-नंगे भक्तों के साथ नाचती-गाती ख़ुद राजस्थान से वृन्दावन और वृन्दावन से राजस्थान डोलती रहीं...
●मथाई के संस्मरण की मानें तो इंदिरा नेहरू खान-गाँधी पर भी ऐसा ही मामला बन सकता है। 'सकता है' इसलिये कि एमओ मथाई वाली किताब प्रतिबंधित है और उससे प्रमाण जुटाना भी कहीं ग़ैर-क़ानूनी न माना जाए। वैसे कौन से माननीय कब वंश-प्रेम में दग्ध होकर क्या फैसला दे दें, कहना मुश्किल है। इसलिये इस पचड़े से पहले चरण में बचा भी जा सकता है।

●वर्तमान में सबसे चर्चित नाम प्रधानमंत्री मोदी का है जिन्होंने लगभग 45 वर्ष पहले एक नहीं दो-दो अपराध किये: पहला, पत्नी को छोड़ा और दूसरा, उस घर को भी छोड़ दिया जिसमें पैदा हुए थे और जहाँ उनकी पत्नी ब्याहकर लायी गईं थीं। इनका अपराध तो महात्मा बुद्ध के अपराध की तरह संगीन है।

वैसे चूँकि यह एक राष्ट्रीय महत्व का कार्य है, इसलिए इस पर कोई भी क़दम उठाने के पहले राष्ट्रीय विमर्श होना चाहिये ताकि संविधान के बुनियादी ढाँचे पर कोई आँच न आए।
अंत में, और कुछ नहीं तो एक ऑनलाइन जन अदालत लगाकर पत्नी-छोड़ू पतियों पर तो कार्रवाई हो ही सकती है। आख़िर क़ानून की निग़ाह में तो सब बराबर हैं!
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह