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Wednesday, May 29, 2019

सेकुलरदास-काफ़िरानंद संवाद-1

सेकुलरदास: हिन्दू ध्रुवीकरण के कारण भाजपा जीती है। यह बहुमत के दिमाग की हैकिंग है। हम मोदी को अपना पीएम नहीं मानते।
काफ़िरानंद: ठीक वैसे ही हम भी नेहरू-गाँधी की काँग्रेस सरकार के पीएम को अपना पीएम नहीं मानते। काँग्रेस ने भी इस बीच मुसलमानों के दिमाग़ की हैकिंग की और हिन्दू-भय दिखाकर उनका ध्रुवीकरण किया।
सेकुलरदास: आपकी बात तार्किक लेकिन तथ्य से परे है।
काफ़िरानंद: सो कैसे?
सेकुलरदास: हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियाभर के मुसलमानों के दिमाग़ की मजहबी हैकिंग उनकी वोट देने की उम्र से बहुत पहले ही हो चुकी होती है। इसलिए उनका वोट थोक के भाव काफ़िर-हितों के खिलाफ पड़ता है।
काफ़िरानंद: मने कि उनका ध्रुवीकरण पहले से ही हुआ रहता है?
सेकुलरदास: सही पकड़े हो।
काफ़िरानंद: इसका मतलब कि काँग्रेस ने इस्लामीकरण को बढ़ावा दिया?
सेकुलरदास: अब दिया तो दिया।
काफ़िरानंद: हिन्दू ध्रुवीकरण भी हुआ तो हुआ।
सेकुलरदास: फ़ासीवाद हो बर्बाद।
काफ़िरानंद: हो बर्बाद, हो बर्बाद, टुकड़े गैंग हो बर्बाद।
©काफ़िरानंद 

Sunday, May 26, 2019

मोदी के भाषण से शुरू हुआ महाविमर्श

मित्रो,
नमस्कार। मोदी का सेंट्रल हॉल वाला भाषण बहुत पसंद किया जा रहा है। यह सकारात्मक ऊर्जा से सराबोर बौद्धिकता से युक्त है जिसमें राष्ट्रीय महाविमर्श को जन्म देने की क्षमता है। इस पर बहसें भी  हिट होंगी--जनता में न कि पेशेवर बुद्धिजीवियों में। इसके मुख्य बिंदु हो सकते हैं:
1. Power Elite बनाम मोदी;
2. नेता-बाबू-दलाल की तिकड़ी बनाम मोदी;
3. प्रधानमंत्री मोदी बनाम राजर्षि मोदी ;
4. वोटबैंक को 'घूस' बनाम राष्ट्रीय समृद्धि-सुरक्षा-सम्मान का शंखनाद;
5. जात-मजहब-धर्म बनाम राष्ट्रधर्म;
6. जातीय-क्षेत्रीय अस्मिता बनाम राष्ट्रीय अस्मिता;
7. अधिकार- केंद्रित वोटर बनाम कर्तव्य-केंद्रित नागरिक;
8. निजी मजहबी-धार्मिक आस्था बनाम एकमात्र राष्ट्रीय इष्टदेव भारत-माता में आस्था;
9. यूरोपीय राष्ट्रवाद बनाम भारतीय राष्ट्रवाद;
10. अल्पसंख्यक अधिकार-वाद बनाम राष्ट्रीय कर्तव्य-निष्ठा;
11. अमीर-ग़रीब बनाम ग़रीबी से मुक्ति चाहनेवाले नागरिक और ग़रीबी से मुक्ति दिलानेवाले नागरिक।

आग्रह है कि इसमें आप भी अपने बिन्दु जोड़ते चलें।
सादर धन्यवाद,
चन्द्रकान्त।
#मोदी_का_भाषण #मोदी #संसद #सेंट्रल_हॉल

हिंदू जोड़ो मुस्लिम छोड़ो

काँग्रेस का नारा :
हिंदू तोड़ो मुस्लिम जोड़ो।
भारत के बेहतर भविष्य का नारा:
हिंदू जोड़ो मुस्लिम छोड़ो।
विश्व के बेहतर भविष्य  का नारा:
मुस्लिम को इस्लाम से तोड़ो, बाक़ी सब को जोड़ो।
सबके लिए तात्कालिक नारा:
मुस्लिम को मुस्लिम से तोड़ो ,बाक़ी सबको जोड़ो।
©

मोदी से डरे हुये मुसलमान का सच

'मोदी के पीएम बनने से मुसलमान बहुत डर गए हैं, क्यों?'
'क्योंकि मोदी को मुस्लिम वोटबैंक के बिना ही दोबारा प्रचण्ड बहुमत मिला है।'
'और कोई कारण?'
'अब वे पहले की तरह जब चाहें दंगा-फसाद नहीं कर पाते।'
'बस?'
' यह भी कि हिन्दू अब उनसे पहले जैसा नहीं डरते।'
'मने कि मुसलमान इसलिए डर गए हैं कि काफ़िर उनसे कहीं डरना न छोड़ दें?'
'सही पकड़े हो।'
'लेकिन कश्मीर और बंगाल से लेकर केरल और कन्याकुमारी तक तो उन्होंने आतंक मचा रखा है?'
'पहले डराने के लिए जो किया अब वही सब काम उस डर को बनाये रखने के लिए कर रहे हैं।'
'मतलब लाखों कश्मीरी हिंदुओं का जातिनाश भी उन निहत्थे हिंदुओं से  डर जाने के कारण ही किया था?'
'बिल्कुल।'
'इस डरकर डराते रहने का औचित्य क्या है?'
'इस्लाम पर आये ख़तरे को निपटाना।'
' कब से ख़तरे में है इस्लाम?'
'जब से पैदा हुआ।'
'ऐसा कबतक रहेगा?'
'जबतक दुनिया के सभी लोग मुसलमान नहीं हो जाते।'
'उसके बाद क्या होगा?'
'तब मुसलमान ख़तरे में आ जाएँगे।'
'फिर ये लोग कबतक ख़तरे में रहेंगे?'
'जबतक एक-दूसरे को ख़त्म नहीं कर डालते।'
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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Saturday, May 18, 2019

जन्मदिन (19 मई) पर विशेष: गोडसे के बिना गाँधी का सही मूल्यांकन संभव है क्या?

गोडसे के जन्मदिवस (19 मई) पर श्रद्धाँजलि स्वरूप मेरे लेखों का पुष्पगुच्छ:
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लेख-1 (19.5.2018)
गोडसे के बिना गाँधी का सही मूल्यांकन संभव है क्या ?


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गोडसे ने गाँधी को मारा, इस बात को गला फाड़-फाड़कर कहनेवाले काश यह भी बताते कि गोडसे ने गाँधी को क्यों मारा? आज गोडसे का जन्मदिन है। एक बात मेरे अंदर धँस गई है , वह यह कि गोडसे ने अपनी अस्थियों को सिंधु नद में तब प्रवाहित करने को कहा था जब हमारे पूर्वजों के तारणहार सिंधु नद पर हिन्दुस्तान का पुनः अधिकार हो जाए।
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आज सिंधु का अधिकांश पाकिस्तान में है, वही पाकिस्तान जिसके बारे में गाँधी ने कहा था: मेरी लाश पर ही पाकिस्तान बन सकता है। लेकिन पाकिस्तान बन भी गया, गाँधी के जिन्दा रहते उसने भारत पर अक्टूबर 1947 में हमला भी कर दिया था। और तो और, हमलावर पाकिस्तान को बिना शर्त 55 करोड़ रुपये दिलाने के लिए वे भूख हड़ताल की धमकी भी दे चुके थे।
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लब्बोलुआब यह है कि गाँधी को गोडसे के बिना नहीं समझा जा सकता। जिस तरह गाँधी सिर्फ नायक नहीं, वैसे ही गोडसे सिर्फ गाँधी-हत्यारे नहीं। एक चीज़ जो दोनों में कॉमन है वह है देशप्रेम और मौलिकता। जो चीज़ अलग है वह है हिंदुस्तान के छुपे रुस्तम पाकिस्तानियों से निपटने की रणनीति।
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गाँधी की रणनीति फेल हो गई, इसका प्रमाण है कि आज हिन्दुस्तान में न जाने 'कितने पाकिस्तान' उठ खड़े हो गए हैं। इतना ही नहीं, पूरी दुनिया इन 'पाकिस्तानों' से इतना त्रस्त है कि पाकिस्तान और इस्लाम आज वैश्विक आतंक का पर्याय बन गए हैं।
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जिन लोगों को सिर्फ इसलिए गोडसे पर पुनर्विचार नहीं करना कि उन्होंने गाँधी को मारा, उन्हें करोड़ों के नरसंहार  के कारक पैग़म्बर मोहम्मद, मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, माओ आदि के बारे में क्या कहना है?
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दूसरी तरफ़ अगर अहिंसा ही एकमात्र औजार हो गाँधी और गोडसे  के व्यक्तित्व के तुलनात्मक मूल्यांकन का तो यह भी देखना पड़ेगा कि उनकी अहिंसा की नीति से क्या सचमुच आम निर्दोष लोग लाभान्वित हुए या वे और ज्यादा हिंसा का शिकार हो गए? हज़ारों साल की मानव सभ्यता का अनुभव बताता है कि जिन समाजों ने प्रतिहिंसा की मुकम्मल तैयारी नहीं की, वे बर्बर और असभ्य समुदायों की हिंसा का शिकार हुए, मिट गए या सदियों गुलाम रहे। ईसापूर्व के यूरोपीय-अमेरिकी-अफ्रीकी समाज इसके उदाहरण हैं, इस्लाम-पूर्व के अरब-उत्तर अफ्रीकी-पश्चिम-मध्य एशिआई देश भी इसकी निशानदेही करते हैं।
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ये सब देश-समाज और इनकी सभ्यता-संस्कृति बाइबिल और क़ुरआन की उन बर्बर अवधारणाओं की शिकार हुईं जिनके अनुसार अपने से इतर (ग़ैर-ईसाई, ग़ैर-मुसलमान) लोगों के लिए दो ही विकल्प थे: मतान्तरण या मौत।
बाइबल की 'करुणा की ज्वाला' में 30 करोड़ से अधिक निर्दोष लोग स्वाहा कर दिए गए, इस्लाम की 'शांति की खाड़ी' में 27 करोड़ से अधिक लोग दफन कर दिए गए, और साम्यवाद की 'समानता की क्रान्ति' महज 100 सालों के अंदर 10 करोड़ सर्वहारा को लील गई।
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एक बात जरूर है कि बाइबल और क़ुरआन की बर्बरता को उन्नीसवीं सदी में मार्क्स-एंगेल्स ने आधुनिक जामा पहनाया जिस कारण करोड़ों के नरसंहार के कारक लेनिन-स्टालिन-माओ महानायक का दर्जा पाने में सफल हुए।
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थोड़ा और पीछे जाएँ तो अहिंसा के परम उद्गाता महात्मा बुद्ध पर भी पुनर्विचार करना पड़ेगा। क्या यह सही नहीं है  कि भारत के वे हिस्से(गाँधार, पश्चिमी पाकिस्तान, तक्षशिला, नालंदा, कश्मीर आदि) इस्लामी बर्बरता के सबसे ज़्यादा शिकार हुए जहाँ बौद्ध धर्म का असर ज्यादा था और जहाँ के लोगों में आत्मरक्षार्थ प्रतिहिंसा की क्षमता न्यून हो गई थी। अफगानिस्तान की हिन्दुकुश पर्वतमाला का नाम ही बताता है कि वहाँ हिंदुओं/बौद्धों का भीषण नरसंहार हुआ था। हिन्दुकुश को बौद्धकुश इसलिए नहीं कहा गया होगा कि बर्बर इस्लामी हमलावरों की निगाह में हिन्दू-बौद्धों में कोई अंतर नहीं था, उनके लिए सब-के-सब काफ़िर हिन्दू ही थे।
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सवाल उठता है कि भारतीय बौद्धों में प्रतिहिंसा के भाव की कमी और इस कारण हुए उनके जातिनाश के लिए क्या बौद्धमत और उसके प्रतिपादक महात्मा बुद्ध जिम्मेदार नहीं हैं? ऐसे में महात्मा गाँधी की अहिंसा ने भी अगर हिन्दुस्तान को बर्बर मतों के अनुयायियों की हिंसा के हवाले किया तो क्या अहिंसा के पुजारी गाँधी इसकी जिम्मेदारी से बच सकते हैं?
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वह अहिंसा भी किस काम की जो दुश्मनों को हिंसा के लिए आमंत्रण दे? इसलिए गाँधीजी का सही मूल्यांकन सिर्फ उनके 'सत्य के प्रयोग' के आधार पर नहीं हो सकता। इसके लिए गाँधी को मारनेवाले नाथुराम गोडसे की पुस्तक 'मैंने गाँधी वध क्यों किया?' का सहारा लेना ही होगा क्योंकि इस पुस्तक में गाँधी की अहिंसा-नीति के भीषण हिंसात्मक परिणामों की सप्रमाण चर्चा है।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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लेख-2 ( 8.5.2018)
वक़्त की अदालत में जिन्ना, गाँधी और गोडसे
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मैं इस मायने में जिन्ना को गाँधी से बहुत-बहुत ऊँचा मानता हूँ कि उन्होंने एक वक़ील की हैसियत से अपने क्लाइंट को धोखा नहीं दिया। उनके क्लाइंट थे मुसलमान जिनका मजहब इस्लाम उन्हें बहुसंख्यक काफ़िरों के निज़ाम में रहने की इजाज़त नहीं देता था। 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्शन का कॉल देकर जिन्ना ने अपने क्लाइंट की मुराद पूरी कर दी, पाकिस्तान बनाकर।जिन्ना एक बेहद ईमानदार वक़ील थे।
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और गाँधी? सत्य -अहिंसा के चोले में अपने क्लाइंट हिन्दुस्तान को उन्होंने जितना असत्य और हिंसा का शिकार हो जाने दिया, वह अभूतपूर्व है।
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ख़िलाफ़त आन्दोलन, मोपला मुसलमानों द्वारा हिन्दू नरसंहार , नेताजी का काँग्रेस से बहिर्गमन, पाकिस्तान का विरोध फिर द्विराष्ट्र सिद्धान्त की स्वीकृति, द्विराष्ट्र सिद्धान्त की स्वीकृति के बावजूद हिन्दू-मुस्लिम आबादी की अदला-बदली का विरोध और नोआखाली दंगों को लेकर उनके रुख पर एक नज़र डालने से साफ़ हो जाता है कि राजनीति में गाँधी ने अंततः असत्य और हिंसा को आगे बढ़ाया जिसका भीषण खामियाजा हिंदुओं ही नहीं पूरे देश को अबतक चुकाना पड़ रहा है।
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वक़्त की अदालत में अगर मुकदमा चले तो गाँधी के गुनाह अक्षम्य साबित होंगे और गोडसे परिस्थितिजन्य चुनौतियों का निष्ठा के साथ सामना करने के कारण बहुत छोटी सज़ा के हक़दार होंगे क्योंकि उन्होंने व्यक्ति की हत्या की न कि एक जन्म लेते देश के सपनों की; उन्होंने उस गाँधी को मारा जो अपनी लोकप्रियता का बेजा लाभ उठाकर बहुमत हिंदुओं के नरसंहार-बलात्कार-अपहरण -जबरिया मतान्तरण आदि को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा दे रहा था; इतना ही नहीं भारत पर हमला कर चुके पाकिस्तान को बिना शर्त 54 करोड़ रुपये दिलाकर दुश्मन को मजबूत कर रहा था।
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लेनिन की भाषा में जिन्ना और जेहादियों के लिए गाँधी 'उपयोगी मूर्ख' से ज़्यादा की हैसियत नहीं रखते थे। गाँधी की हत्या न होती तो असत्य और भीषण हिंसा को बढ़ावा देनेवाली उनकी सत्य-अहिंसा की नीति का पर्दाफाश कब का हो गया होता तथा देश में जो आज न जाने 'कितने पाकिस्तान' हैं, वे न होते।
नोट: चीन जो आज चीन बना है माओ के सिद्धांतो की तिलांजलि देकर, रूस डूबने से बच गया  लेनिन-स्टालिन की राह को राम-राम करके , इसी तरह भारत के पास भी भारत बनने के लिए कम-से-कम राजनीति के क्षेत्र में गाँधीवादी पाखंड और उनकी प्रचंड आत्महंता बौद्धिक कायरता से मुक्ति का कोई विकल्प नहीं।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
#Jinna #Gandhi #Godse #Pakistan #Hindustan #Hindus #Muslims #Islam
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लेख-3 (1.2.2018 )
गाँधी, नेहरू और गोडसे
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संता: नेहरू और गोडसे में क्या अंतर है?
बंता: गोडसे ने गाँधी के भौतिक शरीर को मारा और नेहरू ने उनकी आत्मा को।
संता: फिर गाँधी की मौत से इन्हें क्या फ़ायदा हुआ?
बंता: फ़ौरी तौर पर पाकिस्तान से आनेवाले हिंदुओं-सिखों के पुनर्वास में मदद मिली जो गाँधी के अनर्गल मुस्लिम और पाकिस्तान प्रेम से त्रस्त थे।
संता: और नेहरू?
बंता: काँग्रेस को भंग करने की इच्छा रखनेवाले गाँधी के मार दिए जाने से इस पार्टी को पारिवारिक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाने से नेहरू को रोकनेवाला कोई न रहा। ऊपर से बेटी इंदिरा नेहरू के 'गाँधी' हो जाने से नेहरू-गाँधी वंश को बापू की विरासत का कॉपीराइट मिल गया। मेरे गाँव में तो लोग इंदिरा गाँधी को महात्मा गाँधी की बेटी कहते थे।
संता: और कुछ?
बंता: गाँधी के सनातनी देसी भारत के सपने पर नेहरू ने मानसिक रूप से यूरोप के ग़ुलाम इंडिया को थोप दिया।
संता: मतलब गोडसे ने अनजाने में ही सही नेहरू की मदद की?
बंता: सही पकड़े हो।
संता: लेकिन इसको साबित कैसे किया जाए?
बंता: नेहरू ज़िंदा होते तो उन्हीं से पूछ लेते।
संता: कोई और रास्ता नहीं है?
बंता: गोडसे ने तीन गोलियाँ मारी थीं जबकि गाँधी की छाती पर चार गोलियों के निशान थे।
संता: चौथी गोली की जरुरत क्या थी?
बंता: गोडसे की गोली से गाँधी न मरें तो चौथी गोली अपना काम कर दे।
संता: यानि मारने का पूरा इंतजाम था और प्रशासन को गोडसे की योजना भी मालूम थी?
बंता: लगता तो यही है क्योंकि गाँधी का पोस्टमार्टम भी नहीं होने दिया गया था।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
#Godse #Nehru #Gandhi #Bharat #India #Congress #Sanatan #ColonizedElite #Hindu #Sikh #Muslims #Partition #Pakistan
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लेख-4 ( 6.10.2018)
भारत-विभाजन और गाँधी-वध एक ही सिक्के के दो पहलू
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भारत-विभाजन और गाँधी-वध दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पाकिस्तान बनने के दौरान लाखों हिंदुओं और सिखों के नरसंहार, बलात्कार, अपहरण और जबरिया धर्मान्तरण की ओर से आँख मूँद लेनेवाले गाँधी का वध नहीं होता तो आश्चर्य होता।
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अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया था। इसके बावजूद पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए गाँधी ने अनशन किया था लेकिन भारत-विभाजन को रोकने के लिए उन्होंने कोई अनशन नहीं किया जबकि उन्होंने यह घोषित किया था कि उनकी लाश पर ही भारत का बँटवारा होगा यानी उनके जीवित रहते पाकिस्तान नहीं बनेगा।
गाँधी की इस घोषणा पर विश्वास कर बंगाल-पंजाब-हैदराबाद के लाखों हिन्दू-सिखों ने समय रहते इस्लामी देश पाकिस्तान बनाने के लिए नरपिशाच बने पड़ोसी मुसलमानों से अपनी सुरक्षा का उचित प्रबंध नहीं किया। इस प्रकार सत्य और अहिंसा के पुजारी गाँधी के असत्य व्यवहार के कारण लाखों लोग भीषण हिंसा और क्रूरता की भेंट चढ़ गए।

इसी पाखंड--मुसलमानों की हिंसा और हिन्दू-सिखों के नरसंहार का मौन समर्थन--- से उद्वेलित होकर नाथूराम गोडसे ने गाँधी-वध किया वैसे ही जैसे परम देशभक्त भगत सिंह और ऊधम सिंह ने लाला लाजपतराय की हत्या और जालियांवाला बाग नरसंहार से उद्वेलित होकर सबंधित अंग्रेज अधिकारियों के वध किये थे।
कुछ-कुछ इसी क्रम में ख़लिस्तानी नेता भिंडरवाले को शह देनेवाली इंदिरा गाँधी की स्वर्णमंदिर में ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद हत्या को भी देखा जा सकता है।
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इस प्रकार गाँधी-वध को समझने के लिए जरूरी है कि भारत-विभाजन की परिस्थितियों और विभाजन के समय हुई भीषण हिंसा को भी ध्यान में रखा जाए। और इस सन्दर्भ में नाथूराम गोडसे की पुस्तक "मैंने गाँधी-वध क्यों किया" बहुत जरूरी है।
यह भी सवाल पूछा जाना चाहिए कि सरकार ने गोडसे के अदालती बयान के प्रकाशन पर क्यों प्रतिबंध लगा दिया? इस सत्य को ढँकने से किसे लाभ हुआ? गोडसे का अदालती बयान 29 साल बाद 1977 में उपरोक्त पुस्तक के रूप में छपा।
इस पुस्तक को पढ़ने से लोगों को वैसे ही डराया जाता है जैसे महाभारत को घर में रखने से। कहा जाता है कि महाभारत महाकाव्य को घर में रखने से घर में ही 'महाभारत' होने का ख़तरा पैदा हो जाता है! यह बात अलग है कि भारत के घर-घर में अगर रामायण के साथ-साथ महाभारत भी प्रति भी होती तो यह देश सैकड़ों सालों तक गुलाम नहीं होता। वैसे ही नाथूराम गोडसे के अदालती बयान (मैंने गाँधी वध क्यों किया?) की प्रति  अगर घर-घर में होती तो पाकिस्तान बनने के बाद भी देश में न जाने 'कितने पाकिस्तान' नहीं होते और काँग्रेस का मतलब नेहरू-गाँधी परिवार नहीं होता।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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लेख-5 ( 17.5.2019)
लाखों का नरसंहार बनाम एक गाँधी का वध
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काँग्रेस के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि 1984 में दिल्ली में हजारों सिखों का नरसंहार हुआ। उसके लिये महत्वपूर्ण यह है कि नेहरू-गाँधी वंश की इंदिरा गाँधी की हत्या हुई। इसलिए नरसंहार के आरोपी नेता कैबिनेट और मुख्यमंत्री बनते रहे। ताजा नाम श्री कमलनाथ का है।
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बिल्कुल इसी तर्ज़ पर 1946-47 में काँग्रेस के लिए 30 लाख हिन्दू-सिखों का नरसंहार, अनगिनत का बलात्कार और उसके बाद करोड़ों का जबरिया मुसलमान बनाया जाना महत्वपूर्ण नहीं है। उसके लिए महत्वपूर्ण है पीड़ितों के दुःख से विचलित और देशहित से ओतप्रोत गोडसे द्वारा उस गाँधी का वध जिनपर विश्वास करने के कारण उपरोक्त नरसंहार हुये थे।
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लेकिन मोबाइल-इंटरनेट-सोशल मीडिया के ज़माने में काँग्रेस का नैरेटिव पूरे देश का नैरेटिव कैसे बना रह सकता है। अब गाँधी ख़ारिज होंगे और गोडसे स्थापित। इसमें साध्वी प्रज्ञा निमित्त मात्र हैं, असली पुनर्जागरण का असली उत्प्रेरक तो टेक्नोलॉजी है जिसके बुलडोज़र के आगे काँग्रेस, भाजपा और संघ सब लाचार हैं। यह बुलडोज़र नहीं होता तो गाँधी-गोडसे मुद्दे पर भाजपा-संघ और उनके नायक-द्वय अबतक काँग्रेस की गोद में बैठ चुके होते।
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मतलब गोडसे के साथ टेक्नोलॉजी-आरोहित सच का बुलडोज़र है तो गाँधी के साथ काँग्रेस का झूठा-सच।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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लेख-6 ( 17.5.2019)
गोडसे को लेकर साध्वी प्रज्ञा के बयान पर बवाल
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गोडसे को लेकर #साध्वी_प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर उँगली उठानेवाले पहले पैग़म्बरे इस्लाम को ख़ारिज करें क्योंकि #पैग़म्बर की राह पर चलकर 27 करोड़ से अधिक लोगों का #नरसंहार और न जाने कितनों का #बलात्कार और जबरिया #धर्मान्तरण हुआ है।
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गोडसे को लेकर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर उँगली उठानेवाले पहले #लेनिन- #स्टालिन- #माओ-पोलपोट-कास्त्रो जैसों को ख़ारिज करें जिनके खाते में 100 सालों के अंदर 10 करोड़ से अधिक लोगों के नरसंहार हैं।
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 #गोडसे को लेकर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर उँगली उठानेवाले  #गाँधीवादी #मुसलमान पहले अपने उस घृणाशास्त्र #क़ुरान को ख़ारिज करें जो #काफ़िर, #जिहाद और दारुलहरब जैसी बर्बर अवधारणाओं का उत्स है।
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गोडसे को लेकर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर उँगली उठानेवाले पहले #गाँधी को ख़ारिज करें जिन पर विश्वास कर 30 लाख से अधिक #हिंदू और #सिख जिहादियों द्वारा मार दिए गए और करोड़ों लोग जबरिया धर्मान्तरण तथा बलात्कार की भेंट चढ़ गए।
● जिन्हें संदेह हो वे 1919-21 के
#ख़िलाफ़त_आंदोलन के दौरान जिहादियों द्वारा भीषण हिन्दू उत्पीड़न पर गाँधी के रुख का अध्ययन कर लें।
● गाँधी के हिन्दू विरोधी #सत्य_अहिंसा से वाक़िफ़ #जिन्ना ने अगस्त 1946 में #पाकिस्तान के लिए डायरेक्ट एक्शन (जिहाद) का कौल दिया जिसके बाद #कोलकाता में हजारों हिन्दू गाजर-मूली की तरह काट डाले गए। ज़ाहिर है, गाँधी जी इस पर 'मौन-महात्मा' बने रहे।
● लेकिन #नोआखाली के #दंगों के बाद जब हिंदुओं ने प्रतिक्रिया-स्वरूप आत्मरक्षार्थ #हिंसा का रुख किया तो गाँधी ने #भूख_हड़ताल कर हिंदुओं का ब्लैकमेल करना शुरू किया।
● इसी तरह अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी हमले के बाद #पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए गाँधी ने 'भूख हड़ताल' का सहारा लिया।
● 'सत्य-अहिंसा' पर इतना ही भरोसा था तो गाँधी ने #भारत_विभाजन को रोकने के लिए क्यों नहीं इस 'ब्रह्मास्त्र' (भूख हड़ताल) का उपयोग किया?
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अगर आप मोहम्मद, लेनिन, स्टालिन, माओ, पोलपोट, कास्त्रो, गाँधी जैसों को ख़ारिज नहीं कर सकते तो इनमें से एक --गाँधी--का वध करनेवाले गोडसे को देशभक्त कहनेवाली साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की हिम्मत, सत्यनिष्ठा और #अभिव्यक्ति_की_स्वतंत्रता का सम्मान करने की आदत डाल लीजिए।
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हिंदुओं के लिये एक 'ज़िंदा लाश' हो चुके गाँधी को गोली मारकर गोडसे ने उन्हें ज़िंदा करने का जो अराष्ट्रीय कर्म किया, इसके लिए हम गोडसे की कड़ी निंदा करते हुये भी उन्हें गाँधी से बहुत बड़ा #राष्ट्रवादी, देशभक्त और सत्यनिष्ठ हुतात्मा मानते हैं।
■ नोट: हिन्दुओं ने कोटि-कोटि देवी-देवताओं के सृजन किये हैं। ईसाइयों और कसाइयों की तरह वे गॉड या अल्लाह के बनाये हुये नहीं हैं कि अन्धविश्वास-- BELIEF-- पर अपनी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दें। वे सवाल पूछते हैं-- ख़ुद से, दुनियाभर से और ईश्वर से भी ताकि भवसागर से 'मुक्ति' पा सकें। वे यह सब 72 हूरों और 28 कमसिन लौंडों वाली ज़न्नत के लिए नहीं करते। और हाँ, हिंदुओं के सवालों से उनके आराध्य राम-कृष्ण-शंकर-बुद्ध-महावीर कोई नहीं बचा फिर गाँधी क्या चीज़ हैं! बुद्धिपिशाच, अनपढ़, कुपढ़, नारेबाज़, आत्महीनता के शिकार नकलची बुद्धिविलासी और अक़्ल के अजीर्ण के शिकार मानसिक ग़ुलाम भी आमंत्रित हैं, just for a KitKat break you know! इस जमात ने गाँधी को भी ईसा-मोहम्मद-मार्क्स-स्टालिन-माओ की तरह पैग़म्बर बनाकर उन्हें सवालों से परे करने की साज़िश की है, 70 साल पुरानी साज़िश, जिसे मोबाइल-इंटरनेट-सोशल मीडिया पर सवार हिन्दू नवजागरण ने तार-तार करना शुरू कर दिया है।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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लेख-7 (14.5.2019 )
गोडसे को 'हिंदू आतंकवादी' कहने का मतलब
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महात्मा गाँधी को एक हिंदू--गोडसे-- ने मारा तो हिंदू आतंकवादी हो गए। इसके बाद पुणे में गोडसे के सजातीय सैकड़ों ब्राह्मणों का नरसंहार काँग्रेस ने करवाया। मने पूरी काँग्रेस पार्टी ही आतंकवादी हुई।
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इंदिरा गाँधी की हत्या उनके सिख सुरक्षा गार्डों ने कर दी। उपरोक्त तर्कानुसार सिख आतंकवादी हो गए। इसके बाद काँग्रेस पार्टी ने दिल्ली में हज़ारों सिखों का नरसंहार कराया। मने पूरी काँग्रेस पार्टी ही आतंकवादी हुई।
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2002 में अयोध्या से लौट रहे 50 से अधिक हिन्दू कारसेवकों को गोधरा के मुसलमानों ने ज़िंदा जला दिया। ज़ाहिर है कि मुसलमान आतंकवादी हो गए। इसके बाद अहमदाबाद समेत गुजरात के अनेक शहरों में मुसलमान-विरोधी दंगे शुरू गए जिन्हें नियंत्रित करने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने काँग्रेस शासित तीन पडोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से अतिरिक्त पुलिसबल भेजने का आग्रह किया। ये तीन राज्य हैं: महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान। तीनों ही काँग्रेस-शासित राज्यों से मोदी को निराशा ही हाथ लगी जिस कारण दंगों पर नियंत्रण करने में बड़ी मुश्किलें आईं और करीब 900 हिन्दू-मुसलमान मारे गए जिसमें पुलिस की गोली से मरनेवाले लगभग 300 हिन्दू भी शामिल हैं। मने पूरी काँग्रेस पार्टी ही आतंकवादी हुई क्योंकि इसने दंगों को रोकने में मदद नहीं कर दंगों को हवा दी।
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राजीव गाँधी की हत्या लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण ने करवायी थी। प्रभाकरण ईसाई था और उसे श्रीलंका के उत्तरी भाग में एक अलग तमिल ईलम (देश)बनाने के लिए ईसाई संगठनों से पूरी सहायता भी मिलती थी। मतलब यह कि ईसाई भी आतंकवाद में किसी से कम नहीं। उधर प्रभाकरण को श्रीलंकाई सेना से बचाने के लिए काँग्रेस सुप्रीमो सोनिया गाँधी ने भारतीय जलसेना के अनऑफिशिअल इस्तेमाल की असफल साज़िश रची। बाद में राजीव गाँधी की हत्या में शामिल नलिनी को भी फाँसी से बचाने के लिए काँग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने पुरज़ोर कोशिश की जिसमें वे अबतक सफल भी रही हैं। मने पूरी काँग्रेस पार्टी ही फिर आतंकवादी हुई।
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इस तरह हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी समुदायों के लोग आतंकवादी हुये और इन सभी की आतंकवादी कार्रवाइयों के बाद काँग्रेस कोई-न-कोई भीषण आतंकवादी खेल रचती है। सवाल उठता है कि काँग्रेस कहीं इन सभी समुदायों के आतंवादियों की मम्मी तो नहीं जो एक तरफ़ तो आतंकवादियों को पालती-पोसती है तो दूसरी तरफ़ इन्हीं आतंकवादियों का भय दिखाकर नागरिकों को रोबोटिक वोटबैंक में बदल देती है?
वैसे यह नारा भी काँग्रेसी ही है कि 'हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आपस में सब भाई भाई'।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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लेख-8 (2.10.2018)
गाँधी और गोडसे: दोनों देशभक्त, दोनों की नीयत संदेह से परे
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गाँधी की अहिंसा-नीति के भीषण हिंसात्मक परिणामों में लाखों निर्दोष और निस्सहाय हिंदुओं का जबरिया धर्मान्तरण, बलात्कार और हत्या है जिसकी प्रतिक्रिया में गोडसे ने गाँधी को गोली मारी।
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मतलब गाँधी की तरह ही गोडसे की नीयत में कोई खोट नहीं थी, वैसे ही जैसे अंग्रेज़ों का वध करनेवाले भगत सिंह या आज़ाद की देशभक्ति और राष्ट्रीयता संदेह से परे  थी। गोडसे की अच्छी नीयत के बावजूद उनके हाथों गाँधी का वध हुआ वैसे ही गाँधी की अच्छी नीयत वाली अहिंसा नीति के बावजूद लाखों लोग मारे गए।
.गाँधी की अहिंसा-नीति के भीषण हिंसात्मक परिणामों में लाखों निर्दोष और निस्सहाय हिंदुओं का जबरिया धर्मान्तरण, बलात्कार और हत्या है जिसकी प्रतिक्रिया में गोडसे ने गाँधी को गोली मारी। मतलब गाँधी की तरह ही गोडसे की नीयत में कोई खोट नहीं थी, वैसे ही जैसे अंग्रेज़ों का वध करनेवाले भगत सिंह या आज़ाद की देशभक्ति और राष्ट्रीयता संदेह से परे  थी। गोडसे की अच्छी नीयत के बावजूद उनके हाथों गाँधी का वध हुआ वैसे ही गाँधी की अच्छी नीयत वाली अहिंसा नीति के बावजूद लाखों लोग मारे गए। ऐसे में भीषण नरसंहारों के कारक गाँधी अगर माफ़ी के योग्य हैं तो सिर्फ एक गाँधी का वध करने वाले गोडसे क्यों नहीं? लाखों असहाय और निर्दोष लोगों के नरसंहार पर एक गाँधी-वध को हावी हो जाने देना पाखंड के सिवा और क्या है!
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
#Gandhijayanti #Gandhi150 #Gandhi #Godse #Nonviolence #VoilentNonviolenceऐसे में भीषण नरसंहारों के कारक गाँधी अगर माफ़ी के योग्य हैं तो सिर्फ एक गाँधी का वध करने वाले गोडसे क्यों नहीं? लाखों असहाय और निर्दोष लोगों के नरसंहार पर एक गाँधी-वध को हावी हो जाने देना पाखंड के सिवा और क्या है!
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
#Gandhijayanti #Gandhi150 #Gandhi #Godse #Nonviolence #VoilentNonviolence
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Thursday, May 16, 2019

स्वातंत्र्य वीर सावरकर: मुद्दा माफ़ीनामे का

क्या कॉमरेड लेनिन गद्दार नहीं जिन्होंने One Step Backward and Two Steps Foward की रणनीति अपनाई?
पैग़म्बर मुहम्मद ने यही फॉर्मूला हुदैबिया की संधि में लागू किया जब दस साल तक शांति बनाये रखने का सुलहनामा करके दो साल में ही विरोधी पक्ष पर धोखे से हमला कर दिया...
गाँधी-नेहरू ने अंग्रेजी सत्ता में विश्वास का संकल्प व्यक्त किया तब जाकर बैरिस्टर बन पाए जबकि सावरकर को यह डिग्री इसलिए नहीं मिली कि उन्होंने अंग्रेज़ी सत्ता में विश्वास की शपथ नहीं ली थी...
नेहरू की पुस्तक 'भारत की खोज' की खोज बेस्ट सेलर बन गई और सावरकर की पुस्तक '1857: भारत का पहला स्वातंत्र्य संग्राम' को छपने के पहले ही प्रतिबंधित कर दी गई...

प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेज़ों की सहायता के लिए गाँधी को 'क़ैसरे हिंद' की उपाधि मिली,
प्रचण्ड बहुमत से काँग्रेस अध्यक्ष बने बोस को 'महात्मा' गाँधी ने काम नहीं करने दिया...

नेहरू ने कश्मीर-तिब्बत की समस्या पैदा की, लड़कभूरभूर में चीन के हाथों लाखों एकड़ जमीन गवाँ दी,  नेताजी को जीतेजी मृत घोषित करके उनके परिवार पर जासूसी भी करवाते रहे, चर्चिल के लिए संसद में शोक प्रस्ताव पास कराया लेकिन सावरकर के लिए विरोध करवाया...

19 71 के युद्ध में भारत को इंदिरा गाँधी ने विजय के बावजूद PoK नहीं दिलाया, केजीबी के इशारे पर देश का शासन चलाया (Mitrokhin Archives)...

अगर उपरोक्त नेता गद्दार नहीं हैं तो देश की जनता को जगाने के लिए जेल से बाहर आने वास्ते 'रणनीतिक सुलहनामा' करनेवाला क्रांतिवीर कैसे गद्दार हो जाएगा? वह भी तब जब क्रिस्लामी-वामियों के आरोप को सही मान लिया जाए कि ऐसा कुछ हुआ था।

फिर भी सवाल है कि सावरकर को ही 50 वर्ष काले पानी की सज़ा क्यों मिली, गाँधी या नेहरू को क्यों नहीं?

गाँधी के भारत आने से पहले सावरकर देश-विदेश में क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत बन चुके थे...
1910 में उनपर मुक़दमा चलाने के लिए उन्हें जहाज़ से जब भारत लाया जा रहा था तो वे समुद्र में कूदकर तैरते हुए फ्राँस पहुँच गए थे लेकिन फ्राँस ने उन्हें अंग्रेज़ों को सौंप दिया, वे भारत लाये गए और उन्हें डबल कालापानी की कठोरतम सज़ा मिली जिसका शतांश भी गाँधी-नेहरू के हिस्से कभी नहीं आया... अंडमान के सेलुलर जेल में वे 1921 तक विकट परिस्थितियों में रखे गए लेकिन तबियत ख़राब होने पर नज़रबंद कर अमरावती भेज दिया गया... इसी बीच माफीनामे की बात कही जाती है जो असल में दो विरोधी पक्षों के बीच सुलहनामा कहा जाएगा। वैसे फैज़ाबाद की जेल में बंद अमर शहीद अशफ़ाक़ुल्ला ने भी ऐसा ही सुलहनामा पेश किया था, क्या इसी वजह से वे गद्दार हो गए?
असल में जेल से निकलने के लिए इस तरह के सुलहनामे/माफ़िनामे का रणनीतिक इस्तेमाल अभूतपूर्व नहीं था।

क्यों अंग्रेज़ सरकार सावरकर से डरती थी जबकि नेहरू तो माउंटबेटन दम्पत्ति के अनुरागी थे?
क्यों सावरकर को अपनी कविताएँ लिखने के लिए नखों और कंकरों का इस्तेमाल करना पड़ा, जबकि नेहरू-गाँधी को लिखने-पढ़ने की सारी सुविधाएँ उपलब्ध थीं?

जी हाँ, सावरकर ने सेलुलर जेल की काल कोठरी की दीवारों पर 8 से 10 हज़ार पंक्तियाँ लिखीं और उन्हें याद भी रखा।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

नोट: वरिष्ठ पत्रकार श्री मनमोहन शर्मा कहते हैं कि "इस माफीनामे की चर्चा तो बहुत है मगर आज तक इसकी पुष्टि नहीं हुई। इस माफीनामे की चर्चा आजादी के बाद सावरकर की मृत्यु के बाद शुरू हुई। उनके जीवन चरित्र में क्रिक नामक लेखक ने इसका उल्लेख किया था मगर अगले एडिशन में उन्होंने इस आरोप को अपनी पुस्तक से खारिज कर दिया। इसका कारण यह था कि वह इस माफीनामे की पुष्टि नहीं कर सके थे। कुछ संस्थाओं ने उन्हें मानहानि का नोटिस दिया था और उनसे अनुरोध किया था कि या तो वो इस आरोप को वापस ले ले या इसकी पुष्टि करें। वह इसकी पुष्टि नहीं कर सके और उन्होंने इस आरोप को वापस ले लिया। इस पुस्तक के पहले संस्करण में लगाए गए इस आरोप को वामपंथियों ने खूब उछाला। कोच्चिन से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक वीक ने 2014 में एक लेख में इस संदर्भ में आरोप लगाया था। मगर जब सावरकर के परिजनों ने उन्हें लीगल नोटिस दिया तो समाचारपत्र ने माफी मांगी। यह स्थिति है जिसकी मैंने स्पष्टरूप से व्याख्या कर दी। आप निष्कर्ष स्वयं निकाल सकते है।"
(28.5.2018)
#Savarkar #VeerSavarkar #सावरकर #वीर_सावरकर

किस राष्ट्र के और कैसे पिता हैं गाँधी?

●क्या कोई पिता अपनी संतान के अपहरण, बलात्कार और हत्या पर चुप रहता है?
●ऐसे चुप रहने वाले पिता को सच्चा पिता कहेंगे क्या?
●अगर नहीं तो भारत माता की लाखों संतानों के बलात्कार, 30 लाख से ज्यादा के नरसंहार और करोड़ों के जबर्दस्ती मुसलमान बनाये जाने पर चुप रहने वाले को 'राष्ट्रपिता'  कैसे कहेंगे?
●सत्य-अहिंसा के नाम पर इस भीषण असत्य और हिंसा को स्वीकारने वाले समाज को झूठा, आत्महीन और आत्महंता कह सकते हैं क्या?
● अगर हाँ तो इस पाखंड से मुक्ति के लिए क्या आंदोलन की जरुरत नहीं है?
●अगर हाँ तो सवाल है कि मातृशक्ति-प्रधान भारत में ईसाइयों और ईमानवालों की  तरह 'राष्ट्रपिता' की जरुरत है भी क्या?
●23 मई के बाद की राष्ट्र-योजना में इसे शामिल होना चाहिये कि नहीं?
●अगर हाँ तो यह जिम्मेदारी समाज की है या सरकार की?
● अगर समाज की है तो असली समाज के सच्चे प्रतिनिधि होने का दावा करनेवाले फेसबुकिया समाज की क्या भावी योजना है?
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राणा प्रताप, कबीर, तुलसी, रविदास, मीरा बाई, शिवाजी, गुरुगोविंद सिंह, दारा शिकोह, बिरसा मुंडा, लक्ष्मीबाई, ग़ालिब, अरविन्द घोष, नेताजी, सावरकर और गोडसे जैसे नायकों को उनकी जगह पर अधिष्ठित कीजिये, फिर देखिये कमाल इस देश का।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

गाँधी और गोडसे: तौबा-तौबा का मकाम है...

ईसा मसीह की राह पर 40 करोड़ से अधिक लोगों का नरसंहार हुआ और ईसा हो गए ईश्वरपुत्र। मोहम्मद की राह पर 27 करोड़ से अधिक का नरसंहार हुआ और मोहम्मद हो गए पैग़म्बर। मार्क्स की राह पर 10 करोड़ से अधिक का नरसंहार हुआ और मार्क्स हो गए नास्तिकों के पैग़म्बर। ऐसे ही लाखों के नरसंहार-बलात्कार और करोड़ों को जबरिया मुसलमान बनाये जाने के जिम्मेदार गाँधी जी हो गए 'राष्ट्रपिता' और 'महात्मा'। अब गाँधी का वध करनेवाले गोडसे की राह पर कितने करोड़ लोगों का नरसंहार हुआ? कुछ पता नहीं।...जिसकी राह पर नरसंहार नहीं हो, बलात्कार और अपहरण तक नहीं हो, वह भी कोई महानायक या पैग़म्बर का मटेरियल है! वह तो सिर्फ 'हिन्दू आतंकवादी' हो सकता है। तौबा-तौबा का मकाम है...
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

साध्वी प्रज्ञा की अभिव्यक्ति की आज़ादी के बहाने

■ गोडसे को लेकर #साध्वी_प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर उँगली उठानेवाले पहले पैग़म्बरे इस्लाम को ख़ारिज करें क्योंकि #पैग़म्बर की राह पर चलकर 27 करोड़ से अधिक लोगों का #नरसंहार और न जाने कितनों का #बलात्कार और जबरिया #धर्मान्तरण हुआ है।
■ गोडसे को लेकर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर उँगली उठानेवाले पहले #लेनिन- #स्टालिन- #माओ-पोलपोट-कास्त्रो जैसों को ख़ारिज करें जिनके खाते में 100 सालों के अंदर 10 करोड़ से अधिक लोगों के नरसंहार हैं।
■ #गोडसे को लेकर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर उँगली उठानेवाले  #गाँधीवादी #मुसलमान पहले अपने उस घृणाशास्त्र #क़ुरान को ख़ारिज करें जो #काफ़िर, #जिहाद और दारुलहरब जैसी बर्बर अवधारणाओं का उत्स है।
■ गोडसे को लेकर साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के बयान पर उँगली उठानेवाले पहले #गाँधी को ख़ारिज करें जिन पर विश्वास कर 30 लाख से अधिक #हिंदू और #सिख जिहादियों द्वारा मार दिए गए और करोड़ों लोग जबरिया धर्मान्तरण तथा बलात्कार की भेंट चढ़ गए।
● जिन्हें संदेह हो वे 1919-21 के
#ख़िलाफ़त_आंदोलन के दौरान जिहादियों द्वारा भीषण हिन्दू उत्पीड़न पर गाँधी के रुख का अध्ययन कर लें।
● गाँधी के हिन्दू विरोधी #सत्य_अहिंसा से वाक़िफ़ #जिन्ना ने अगस्त 1946 में #पाकिस्तान के लिए डायरेक्ट एक्शन (जिहाद) का कौल दिया जिसके बाद #कोलकाता में हजारों हिन्दू गाजर-मूली की तरह काट डाले गए। ज़ाहिर है, गाँधी जी इस पर 'मौन-महात्मा' बने रहे।
● लेकिन #नोआखाली के #दंगों के बाद जब हिंदुओं ने प्रतिक्रिया-स्वरूप आत्मरक्षार्थ #हिंसा का रुख किया तो गाँधी ने #भूख_हड़ताल कर हिंदुओं का ब्लैकमेल करना शुरू किया।
● इसी तरह अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी हमले के बाद #पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के लिए गाँधी ने 'भूख हड़ताल' का सहारा लिया।
● 'सत्य-अहिंसा' पर इतना ही भरोसा था तो गाँधी ने #भारत_विभाजन को रोकने के लिए क्यों नहीं इस 'ब्रह्मास्त्र' (भूख हड़ताल) का उपयोग किया?
■ अगर आप मोहम्मद, लेनिन, स्टालिन, माओ, पोलपोट, कास्त्रो, गाँधी जैसों को ख़ारिज नहीं कर सकते तो इनमें से एक --गाँधी--का वध करनेवाले गोडसे को देशभक्त कहनेवाली साध्वी प्रज्ञा ठाकुर की हिम्मत, सत्यनिष्ठा और #अभिव्यक्ति_की_स्वतंत्रता का सम्मान करने की आदत डाल लीजिए।
■ हिंदुओं के लिये एक 'ज़िंदा लाश' हो चुके गाँधी को गोली मारकर गोडसे ने उन्हें ज़िंदा करने का जो अराष्ट्रीय कर्म किया, इसके लिए हम गोडसे की कड़ी निंदा करते हुये भी उन्हें गाँधी से बहुत बड़ा #राष्ट्रवादी, देशभक्त और सत्यनिष्ठ हुतात्मा मानते हैं।
■ नोट: हिन्दुओं ने कोटि-कोटि देवी-देवताओं के सृजन किये हैं। ईसाइयों और कसाइयों की तरह वे गॉड या अल्लाह के बनाये हुये नहीं हैं कि अन्धविश्वास-- BELIEF-- पर अपनी ज़िन्दगी क़ुर्बान कर दें। वे सवाल पूछते हैं-- ख़ुद से, दुनियाभर से और ईश्वर से भी ताकि भवसागर से 'मुक्ति' पा सकें। वे यह सब 72 हूरों और 28 कमसिन लौंडों वाली ज़न्नत के लिए नहीं करते। और हाँ, हिंदुओं के सवालों से उनके आराध्य राम-कृष्ण-शंकर-बुद्ध-महावीर कोई नहीं बचा फिर गाँधी क्या चीज़ हैं! बुद्धिपिशाच, अनपढ़, कुपढ़, नारेबाज़, आत्महीनता के शिकार नकलची बुद्धिविलासी और अक़्ल के अजीर्ण के शिकार मानसिक ग़ुलाम भी आमंत्रित हैं, just for a KitKat break you know! इस जमात ने गाँधी को भी ईसा-मोहम्मद-मार्क्स-स्टालिन-माओ की तरह पैग़म्बर बनाकर उन्हें सवालों से परे करने की साज़िश की है, 70 साल पुरानी साज़िश, जिसे मोबाइल-इंटरनेट-सोशल मीडिया पर सवार हिन्दू नवजागरण ने तार-तार करना शुरू कर दिया है।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

Monday, May 13, 2019

पैग़म्बर, मार्क्स और गाँधी: भाग एक


पैग़म्बर ने मुसलमानों द्वारा लूट, अपहरण, बलात्कार, हत्या और नरसंहार को वाजिब ठहराया। युद्ध में हारे पक्ष की औरतों और बच्चों तक को मालेगनिमत कहा। मालेगनिमत जिसके साथ विजेता मुसलमान जो चाहे कर सकते हैं क्योंकि वह अल्लाह की तरफ़ से उन्हें दिया गया उपहार है। उन्होंने मालेगनिमत में ख़ुद के लिए 20% रखा और शेष 80 प्रतिशत जिहादियों में बाँटने का नियम बनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि अरबों में जो काहिल, जाहिल, हरामख़ोर, लुच्चे, लफंगे, चोर, उचक्के और अन्य अपराधी थे, उन सबों को मुसलमान बनकर जिहाद द्वारा मालेगनिमत(लूट की औरत और धन) पर हाथ साफ़ करने की स्कीम बहुत आकर्षक लगी।
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दूसरी ओर अबतक जिस काम को अनैतिक माना जाता था उसे मजहब-सम्मत करार देकर ज़न्नत की सीढ़ी घोषित कर दिया गया था। मतलब पुरुष की जरुरत को जानवरों की बुनियादी जरुरत (भोजन और सेक्स) तक महदूद कर दिया गया। गीत-संगीत और इस्लाम पूर्व की अरबी संस्कृति को दौरे जाहिलिया (अज्ञान का दौर) का प्रतीक बता दिया गया।
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इसीलिए कहा जाता है कि पैग़म्बर ने मुसलमानों को 'पेट और जांघों के बीच' इतना महदूद कर दिया कि वे 'गर्दन के ऊपर टिके दिमाग़' की जरुरतों पर ध्यान ही न दें पाएँ। बर्बरता को मजहबी जामा पहनाते हुए बर्बर लोगों को ज़न्नत का रसीदी टिकट जो पकड़ा दिया गया था।
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आकस्मिक नहीं है कि मुसलमानों को पस्त करनेवाले कबीलों को भी इस्लाम बहुत रास आया। हलाकू और चंगेज़ ख़ान इसकी मिसालें हैं। यही कारण है कि जिन लोगों के पूर्वजों को इस्लामी लूट, अपहरण, जबरिया धर्मांतरण, हत्या, बलात्कार, नरसंहार आदि का शिकार बनाया गया, उन्होंने भी इस्लामी मालेगनिमत में अपने को डूबो दिया और अपने पूर्वजों को जाहिल करार देते हुए उनकी संस्कृति को सुपुर्दे ख़ाक कर दिया।
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इसीलिए पाकिस्तान का इतिहास सिंध के हिन्दू राजा दाहिर पर मोहम्मद बिन क़ासिम के हमले (710 ई ?) से शुरू होता है। बिन क़ासिम अपने साथ बीस हज़ार से अधिक हिन्दू औरतों को ले गया था जिन्हें पश्चिम एशिया के बाज़ारों में सब्ज़ी-भाजी की तरह बेचा गया। इन्हीं औरतों के सिंध में रह गए रिश्तेदार जबरिया मुसलमान बनाये गए जिन्होंने बाद में अपने ही ख़ून के रिश्ते के हिंदुओं के साथ वह सब किया जो बिन क़ासिम और उसके जिहादियों उनके हिन्दू पूर्वजों के साथ किया था।
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इस पूरे सिद्धान्त को निम्न तुकबंदी से भी समझ सकते हैं: 'माले मुफ़्त दिले बेरहम, ज़न्नत की गारंटी सनम'।
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कोई इस मजहबी नियम पर सवाल न उठा पाए, इसलिए सवाल करनेवालों के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान किया गया। इस सज़ा को भी सैद्धांतिक जामा पहनाने के लिए क़ुरान को अंतिम किताब और मोहम्मद को अंतिम पैग़म्बर घोषित किया गया। इसी सिद्धान्त के तहत सिर्फ़ भारतवर्ष में नालंदा समेत 32 से अधिक श्रेष्ठ विश्वविद्यालय और शिक्षा-संस्थान विनष्ट किये गए। जारी...
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह


Saturday, May 11, 2019

चुनाव-2019: भारतीय पुनर्जागरण का महाकाव्यात्मक मंच जिसके नायक हैं मोदी

चुनाव लंबा चलने का लाभ यह हुआ कि भेड़ की खाल ओढ़े भेड़ियों की पोलखोल हो रही है। हिंदू-मुस्लिम के बीच, हिंदू-ईसाई के बीच और मुस्लिम-ईसाई के बीच के 'गंगा-यमुनी' रिश्तों की 'कश्मीरियत' का पर्दाफ़ाश हो रहा है और सनातन के विभिन्न मतों को माननेवाले अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं। हिंदू हिंदू हो रहा, सिख सिख हो रहा, बौद्ध बौद्ध हो रहा, जैन जैन हो रहा, कबीरपंथी कबीरपंथी हो रहा... सब के सब अल्लाह, गॉड और ईश्वर की फ़र्जी गाँधीवादी एकता और सेकुलर-काँग्रेसी साज़िश को समझने लगे हैं।
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दो महीने तक चलनेवाले इस लोकसभा चुनाव की आग में तपने के बाद लाखों सनातनी योद्धा कुंदन बनकर निकलेंगे।
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यह दौर अपनी मूल प्रकृति में भले ही सैकड़ों साल चले भक्ति आंदोलन की तरह है लेकिन इसकी दशा और दिशा भिन्न है। एक तो इस्लामी हमलावरों के शासन के दौरान चले भक्ति आंदोलन के बरक्स आज के भारतीय पुनर्जागरण का न सिर्फ़ भौगोलिक फैलाव बहुत बड़ा है बल्कि इसमें जनभागीदारी भी बहुत बड़ी, इंटरएक्टिव और intense है। इस कारण इसकी ऊर्जा  भी रामानंद-गुरुनानक से लेकर गुरुगोविंद सिंह तक चले इस्लामी सत्ताकालीन भक्ति आंदोलन से हज़ारों गुना अधिक है।
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और भी भिन्नता है। तब की भक्ति में वैचारिकी का आधिक्य था, वह भी सुरक्षात्मक था क्योंकि उद्देश्य था कि हताश जन-गण-मन को किसी तरह सनातनी फोल्ड में बचाकर रखा जाए। इस लिहाज़ से कबीर और गुरुगोविंद सिंह में ज़रूर प्रखर वैचारिक आक्रामकता थी जिसका प्रस्फुटन सैकड़ों साल बाद आज के पुनर्जागरण में हो रहा है।
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लेकिन यह आक्रामकता आज वैचारिकी तक ही सीमित नहीं है क्योंकि देश आज़ाद है, लोकतांत्रिक व्यवस्था है, देश में 120 करोड़ से ज़्यादा मोबाइल कनेक्शन हैं, 95 करोड़ युवा हैं, 50 करोड़ स्मार्टफोन हैं...यानी करोड़ो सनातनी आज सजग होकर अपनी बात लागू करवा रहे हैं। इस क्रियात्मक आक्रामकता के ही उदाहरण हैं राममंदिर मुद्दे पर त्वरित सुनवाई का दबाव, रामसेतु की रक्षा, सबरीमाला पर सुप्रीकोर्ट के सनातन-विरोधी निर्णय का संगठित विरोध, अर्धकुंभ में 24 करोड़ लोगों का जमा होना, साध्वी प्रज्ञा के लिए जनसमर्थन और जिहाद-नक्सलवाद का केंद्रीय चुनावी मुद्दे के रूप में उभरना।
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आज का भारतीय पुनर्जागरण एक और अर्थ में भिन्न है। पहले के भक्ति आंदोलन के दौरान कभी कोई केंद्रीय नेतृत्व नहीं था जिस कारण उसका क्रियात्मक पहलू रणनीतिक तौर सुरक्षात्मक था और सांस्कृतिक पहलुओं तक सीमित था। इसके बरक्स आज का भक्ति आंदोलन संस्कृति को राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है क्योंकि उसके पास आरएसएस सरीखे सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन हैं, भाजपा-शिवसेना जैसी राजनीतिक पार्टियाँ हैं और नरेंद्र मोदी जैसा नेता है।.
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लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती। इस भक्ति आंदोलन का केंद्रीय तत्व भी पहले आंदोलन की ही तरह मूलतः सकारात्मक है: धर्म की स्थापना हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, सभी सुखी हों, किसी को दुःख न हो... भिन्नता यह है कि शांति और अहिंसा की स्थापना के लिए आज का भक्ति आंदोलन सख़्ती से शक्ति के उपयोग में सक्षम है, उन्मुख भी है। बालाकोट हवाई हमला इसका उदाहरण है। इसके अन्य उदाहरण हैं: तीन तलाक़ पर अध्यादेश, धारा 370 को निरस्त करने और समान नागरिक संहिता को लागू करने का जन दबाव। सैकड़ों सालों की राजनीतिक गुलामी से पैदा हुई आत्महीनता और मानसिक गुलामी पर खुली चर्चा, इससे मुक्ति की बेचैनी और तरीक़ों की तलाश भी  21 वीं सदी वाले भक्ति आंदोलन की मुख्य प्रवृत्तियों में शामिल है।
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मज़े की बात यह है कि 2019 का लोकसभा चुनाव इस ताज़ा भक्ति आंदोलन की अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त महाकाव्यात्मक मंच बनकर उभरा है, जिस महाकाव्य की प्रतीक सूत्रधार भारत-माता हैं, 
प्रतीक महानायक मोदी हैं, और नायक हैं करोड़ो राष्ट्रीय योद्धा जो संगठन और पार्टी हितों से परे अपना स्वत्व होम कर रहे हैं। क्या मोदी ने नहीं कहा था कि उनकी तरफ़ से जनता चुनाव लड़ रही है। 1947 के बाद के  किसी नेता ने यह बात कही?  शायद नहीं। ऐसा इसलिए कि आज से पहले ऐसी स्थिति थी ही नहीं।
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इन्हीं करोड़ो स्वयंसेवक बुद्धियोद्धाओं और ज़मीनी सिपाहियों को मोदी-विरोधी गिरोह 'भक्त' नाम से अभिहित करता है। हिकारत से ही सही, लेकिन यह नामकरण सर्वाधिक उपयुक्त है। भक्तों के बिना भक्ति आंदोलन की कल्पना की जा सकती है क्या? नहीं न। तो जैसे पहले रामानुज, रामानंद, गुरु नानक से लेकर गुरु गोविन्दसिंह तक सब महान भक्त थे और उनके अनगिनत शिष्य-भक्त थे वैसे ही आज भारतीय पुनर्जागरण के बहाने करोड़ो-करोड़ भक्त पूरी दुनिया के कल्याण के लिए सन्नद्ध हैं। पहले भक्तों को परेशान करनेवालों को दुष्ट, दैत्य, दानव, राक्षस आदि कहते थे तो आज के भक्त-विलोम को क्या कहेंगे? फ़िलहाल तो 'कमभक्त' से काम चला लेते हैं।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

भारत विभाजन का ठीकरा अब मोदी पर भी!

भारत विभाजन का ठीकरा अब मोदी पर भी! इसके पहले यह सावरकर, गाँधी, नेहरू और पटेल पर फोड़ा जा चुका है।
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https://mअमेरिकी पत्रिका #TIME की मोदी पर ताज़ा कवर स्टोरी की मानस-पृष्ठभूमि 1945-47 की है जब इंग्लैंड, अमेरिका और रूस की शह पर भारत का विभाजन मोहम्मद अली जिन्ना ने किया था। तरीक़ा था: 1946 का डायरेक्ट एक्शन या इस्लामी जिहाद।
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जिन्ना के समर्थक हिन्दुस्तान में ही रह गए ताकि इसका और विभाजन करके जितने चाहें उतने 'मिनी पाकिस्तान' बना सकें और इसका दोष हिंदुओं के सर मढ़ते रहें। इसके लिए सावरकर की कौन कहे, उन्होंने गाँधी, नेहरू और पटेल को भी नहीं बख़्शा। इसकी जाँच के लिए सिर्फ यह पता कीजिये कि 1916 से 1947 के बीच कितने मुसलमान नेता आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल गये या पुलिस की लाठियाँ खाईं। ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान और अशफ़ाक़ुल्ला ख़ान जैसों को छोड़ कोई बड़ा नाम ध्यान में नहीं आता।
मौलाना आज़ाद जैसे लोग हिन्दुस्तान में ही मिनी पाकिस्तान के पक्षधर थे। यक़ीन न हो तो 1919-21 के ख़िलाफ़त आन्दोलन की उनकी तकरीरें पढ़ लीजिये।
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वैसे तुर्की के ख़लीफ़ा के कौल पर भारत के लाखों मुसलमान तुर्की में ख़लीफ़ा की पुनर्बहाली के लिए भारत से लेकर तुर्की तक जिहाद के लिए मरने-मारने को तैयार थे। इसे ही ख़िलाफ़त आन्दोलन कहते हैं जिसका अंत हिन्दुओं के बलात्कार, नरसंहार और जबरिया धर्मान्तरण में हुआ। इसके प्रमाण हैं केरल के मोपला दंगे और नरसंहार जिनकी ओर से गाँधी ने आँखे फ़ेर ली थीं क्योंकि वे आज़ादी की लड़ाई में मुसलमानों का सहयोग चाहते थे।
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इतिहासकार हमें समझाते रहे कि ख़िलाफ़त आन्दोलन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ और भारत की आज़ादी के लिए था। यह आन्दोलन उसी हद तक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ था जिस हद तक इसमें भारत को फिर से इस्लामी राज बनाना संभव था। 1880 की सय्यद अहमद ख़ान की तकरीरें पढ़ लीजिये जिनमें वे साफ़ कहते हैं कि हमें या तो हिन्दुस्तान में इस्लामी राज के लिए लड़ना है या फिर अंग्रेज़ों की सहायता से अपना अलग मुल्क बनाना है। सय्यद अहमद ख़ान को ऐसे ही "सर" की उपाधि नहीं मिली थी। इसी तरह "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा" लिखनेवाले मोहम्मद इक़बाल को भी "सर" की उपाधि मिली थी क्योंकि "सड़जी" ने यह भी कहा था कि:
हो जाए ग़र शाहे ख़ुरासान का इशारा
सज़दा न करूँ हिंद की नापाक ज़मीं पर।
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बहरहाल भारत के विभाजन का ठीकरा सावरकर, गाँधी, नेहरू और पटेल जैसे 'हिंदुओं' के सर फोड़ने में फ़ेल होने के बाद भारत-विरोधी टुकड़े-टुकड़े गिरोह ने नावजागृत हिन्दुस्तान के हृदय-सम्राट नरेंद्र मोदी को अपना निशाना बनाया है। उनको "मुख्य विभाजनकारी" कहकर वे न जाने "कितने मिनी पाकिस्तानों" की अपनी साज़िशों पर पर्दा डालना चाहते हैं। इसी चाहत को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दिलाने की कोशिश में है अमेरिकी पत्रिका TIME की कवर स्टोरी जिसने मोदी को #DIVIDER_IN_CHIEF कहकर संबोधित किया है। यह अकारण नहीं है कि इसके लेखक---आतिश तासीर---एक सेकुलर-लिबरल मुसलमान हैं जिनके पिता पाकिस्तान के पंजाब सूबे के गवर्नर थे। नाम था सलमान तासीर। वैसे इनकी माँ हिन्दू हैं। सनद रहे कि शाहजहाँ भी एक हिन्दू की कोख़ से पैदा हुआ था लेकिन कहते हैं कि उसने औरंगज़ेब से भी ज़्यादा मंदिर तोड़े थे। वैसे भी इस्लाम में तो औरतें महज 'खेती' भर हैं और वह औरत काफ़िर हुई तो ऐसी खेती को ऐसी तैसी, और नहीं तो क्या!
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जहाँ तक अमेरिकी मीडिया की विश्वसनीयता का मामला है तो वहीं की Newsweek पत्रिका ने चुनाव परिणाम घोषित होने से पहले ही राष्ट्रवादी डोनाल्ड ट्रम्प की प्रतिद्वंद्वी लिबरल हिलेरी क्लिंटन को अमेरिका का नवनिर्वाचित राष्ट्रपति घोषित करते हुए उनपर कवर स्टोरी कर दी थी। इसी तरह इराक़ पर अमेरिकी हमले के पहले इराक़ में #WMD (जनसंहारक हथियार) होने की पुष्टि कर दी थी। कबीर ने ऐसे ही नहीं कहा था:
माया महा ठगनी हम जानी।
वैसे अकबर इलाहाबादी ने भी 100 साल पहले एक कुँजी दी थी जिससे भारत का विभाजन करनेवालों के दिमाग़ का ताला फटाक से खुल जाता है:
पेट मसरूफ़ है क्लर्की में
दिल है ईरान और टर्की में।
लेकिन अपन तो उस बात पर ज्यादा विश्वास करते हैं जो ख़ुद क़ायदे आज़म मोहम्मद अली जिन्ना साहेब ने कही थी:
भारत में उसी दिन पाकिस्तान की नींव पड़ गई थी जिस दिन यहाँ पहला मुसलमान बनाया गया था।
इसी को काले अंग्रेज़ कहते हैं FROM THE HORSE'S MOUTH.
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चूँकि काले अंग्रेज़ों को भारत की भाषाएँ #VERNACULAR (अविकसित) लगती हैं, इसलिए उन्हें भारत के DIVIDER-IN-CHIEF का नाम और पता जानने के लिए 1940 की लिखी डॉ अम्बेडकर की किताब #THOUGHTS_ON_PAKISTAN पढ़नी चाहिए। फिर भी विश्वास न हो तो 'अपना हाथ जगन्नाथ', बौद्धिक *ठ मारते रहिये। ऐसे लोग #IED (#IntellectualErectileDysfunction) के शिकार होते हैं जिनका सही ईलाज पटना के गाँधी मैदान में सांडे का तेल बेचनेवाले तिवारी जी ही कर सकते हैं!

Thursday, May 9, 2019

जिहाद- माओवादी ख़ूनी क्रान्ति के बरक्स 'खालसापंथ' और 'रणवीर सेना' का मॉडल

पिछले 1400 सालों में मुसलमान और ईसाई हमलावरों, लुटेरों और शासकों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीक़े से लगभग 20 करोड़ हिंदुओं का संहार किया।
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इस नरसंहार के लिए ख़ुद हिंदुओं की संकीर्णता, पिछड़ापन, अशिक्षा, जातिप्रथा, ग़रीबी और साम्प्रदायिकता जिम्मेदार है, ऐसा सेकुलर लोग कहते हैं। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान लगभग 50 लाख यहूदी जो मारे गए उसे मानव इतिहास का सबसे भीषण नरसंहार या Holocaust कहते हैं। जब 50 लाख लोगों के नरसंहार को होलोकॉस्ट कहते हैं तो 20 करोड़ के नरसंहार को क्या कहेंगे?
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इसलिए आश्चर्य की बात यह नहीं है कि दिग्विजय सिंह-चिदंबरम-शिंदे की तिकड़ी ने 'हिन्दू-आतंक' जैसे फेक न्यूज़ का आविष्कार किया बल्कि अबतक सचमुच ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्या हिन्दू ख़ून ख़ून नहीं पानी है?क्योंकि आत्मरक्षार्थ दुश्मनों का संहार हमारे अस्तित्व की माँग है।
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यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया का शायद ही कोई मुल्क बचा हो जहाँ बिना असली ख़तरे या शोषण के मुसलमानों ने इस्लाम-सम्मत आतंकी या जिहादी संगठन न बना लिए हों और जिन्हें 56 इस्लामी सरकारों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन न प्राप्त हों। फिर भी आतंक का कोई मजहब नहीं है। लेकिन जो समुदाय सदियों से दीन-रिलिजन के नाम पर सर्वाधिक नरसंहार का शिकार रहा हो, आज भी हो रहा हो, वह आत्मरक्षार्थ हिंसा के संगठन न बनाये और हिंस्र समुदायों के मन-मस्तिष्क को डिकोड करने के सिलसिलेवार प्रयास भी न करे--- यह गर्व नहीं बल्कि शर्म और शुतुरमुर्गी आत्महंता मूर्खता का परिचायक है।
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इसलिए हिंदुओं की असली चुनौती हिन्दू-आतंक से ख़ुद को बचाने की उतनी नहीं है जितनी कि आक्रामक रूप से आत्मरक्षार्थ हिंसा के लिए ख़ुद को संगठित करने की है। इसके उदाहरण भी मौजूद हैं: 'खालसापंथ' के संस्थापक गुरुगोविंद सिंह और 'रणवीर सेना' के संस्थापक ब्रह्मेश्वर सिंह 'मुखिया'। एक ने इस्लामी जिहाद से टक्कर ली तो दूसरे ने माओवादी और नक्सली ख़ूनी 'क्रान्ति' से। अस्तु इन दोनों ही संस्थाओं की भविष्योन्मुख भूमिका पर गहन शोध की आवश्यकता है। शोध का मुख्य सवाल यह है कि इस्लामी जिहाद और माओवादी ख़ूनी क्रान्ति से निपटने में 'खालसापंथ' और 'रणवीर सेना' सनातन समाज के मॉडल हो सकते हैं क्या?
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वैसे एक सच यह भी है कि हिन्दुस्तान दुनिया का एकमात्र देश है जिसकी सभ्यता और संस्कृति 1000 सालों की मुसलसल गुलामी के बावजूद मूल रूप से बची रह गई। साथ ही इन हजार बरसों में शायद ही कोई साल गया हो जब हिन्दुस्तानियों ने विदेशी सत्ता के विरुद्ध बिगुल नहीं बजायी हो। यह भी एक कड़वा सच है कि इस दौरान जहाँ-जहाँ हिन्दू आबादी अल्पमत हुई वहाँ -वहाँ अलग देश बनते चले गए जैसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश।
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लेकिन इन हजार सालों में देसी सोच और संस्कृति का
जितना नुकसान हुआ उससे कहीं ज्यादा नुकसान आज़ादी के बाद के 70 सालों में हुआ। इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार जवाहरलाल नेहरू हैं जो बेशर्मी की हद तक जाकर कहते थे: मैं तन से हिन्दू, संस्कार से मुसलमान और सोच से यूरोपीय हूँ।
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नोट: कम्युनिस्टों के नाम 10 करोड़ लोगों का नरसंहार है, इसे क्रान्ति कहते हैं। इस्लाम के नाम 27 करोड़ अधिक का नरसंहार है, इसे जिहाद कहते हैं। ईसाइयों के नाम 40 करोड़ से भी अधिक का नरसंहार है, इसे क्रूसेड और 'यूरोपीय जिम्मेदारी' कहते हैं। हिंदुओं ने कितने ग़ैर-हिंदुओं को मारे और उसे क्या कहते हैं?
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

Wednesday, May 8, 2019

क्या परशुराम ने भी मोहम्मद की तरह नरसंहार का सिद्धान्त दिया था?

हिन्दी के नामचीन मार्क्सवादी मुसलमान कथाकार प्रोफेसर असग़र वज़ाहत की वाल पर एक अरसे बाद जाना हुआ तो किसी शान्तिदूत ने क़ुरआन की काफ़िर-विरोधी हिंसाप्रेरक आयतों के बचाव में भगवान परशुराम का हवाला दिया और कहा कि उन्होंने तो अनेक बार पूरी पृथ्वी को ही क्षत्रिय-विहीन कर दिया था। मतलब इस्लाम तो हिंसाकारी है ही, सनातन भी कम नहीं है। अब इस थेथरई की पड़ताल की जाए।
#नीयत:
एक तो ये इस्लामी-वामी लोग हिन्दू देवी-देवताओं की पूरी परम्परा को ही काल्पनिक मानते हैं अगर इन्हें इसका लाभ मिल रहा हो, जैसे राम जन्मस्थान मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद। लेकिन जहाँ फ़ायदा दिखे वहाँ उन्हें ऐतिहासिक मानने में तनिक भी देर नहीं लगाते। इसका मतलब यह हुआ कि ये लोग सच को जानने में कोई रुचि नहीं रखते बल्कि धुर पाखंडी की तरह सामनेवाले को दिग्भ्रमित करने की पुरज़ोर साज़िश रचते रहते हैं। यह तो हुई नीयत की बात। अब आते हैं तथ्य-सम्मत तर्क पर।
#तथ्यगत_तर्क:
किसी कालखंड में क्षत्रियों के संहार के प्रतीक रहे परशुराम हों या किसी युद्ध में विजय का प्रतीक रहे राम-कृष्ण या अन्य सनातनी देवी-देवता---कोई भी अपनी वाणी को अंतिम नहीं कहता। यह भी नहीं घोषित करता कि उन्हें न मानने वाले या सवाल पूछनेवाले को मृत्युदंड मिले। इसीलिए इनमें से किसी की वाणी को उद्घृत करते हुये कोई हिंदू शरीर में बम बांधकर खुद का और दूसरों का संहार भी नहीं करता है। कोई अपवाद हो तो वह इस नियम को सिद्ध ही करता है।... ...दूसरी ओर इस्लाम ने तो अल्लाह को मोहम्मद का एजेंट बना दिया लगता है। मोहम्मद की जो भी मानवता-विरोधी हसरत है, सबकी पूर्ति के लिये अल्लाह एक आयत अपने पॉकेट से निकाल देता है, मानों अल्ला नहीं हुआ मोहम्मद का दल्ला हो गया। छह साल की आयशा से निक़ाह के लिए भी आयत है और अपने दत्तक पुत्र की पत्नी यानी पुत्रवधू से निक़ाह ले लिए भी। बाक़ी काफ़िर औरतें तो मालेगनिमत हैं ही जिनके साथ कभी भी कुछ भी किया जा सकता है। काफ़िर पुरुषों-शिशुओं-वयस्कों के साथ कब और क्या करना है, कब उसे अपमानित करना है, अपहृत करना है, ग़ुलाम बनाना है या मार देना है--इसके बारे में तीन दर्ज़न आयतें अल्लाह ने नाज़िल करवाई हैं। ...शायद इसीलिए वफ़ा सुल्तान कहती हैं कि क़ुरआन पढ़कर भी मुसलमान बने रहनेवाला मनोरोगी होता है। ...
...इन्हीं मनोरोगियों ने 27 करोड़ लोगों के नरसंहार किये हैं क्योंकि उनका ध्यान पेट से चलकर जाँघों तक सिमट गया माने 72 हूर, 28 गिलमें और अनलिमिटेड दारू। जिसका नहीं सिमटा वह डर के मारे चुप रहता है।
#गलथेथरी:
मुल्ले एक और तर्क देते हैं कि ज्यादातर हिन्दू देवी-देवता शस्त्रों से लैश हैं, इसका अर्थ यह कि हिन्दूधर्म  हिंसा को बढ़ावा देनेवाला है। मल्लब कुछ भी? यूँ ही? अरे भई, चूँकि अहिंसा को परमधर्म कहा गया तो देवी-देवताओं को प्रतीक रूप में हथियार पकड़ा दिए गए ताकि लोग अहिंसा और कायरता को एक ही न समझने लगें और बर्बर लोगों पर भी हथियार उठाना न छोड़ दें।
#आँकड़े:
अब आंकड़ों की बात। मुसलमानों की आबादी पूरी दुनिया की आबादी का 20% से ज्यादा है लेकिन आतंकी हिंसा में उनका शेयर 75% से भी अधिक है। इससे साबित होता है हिंसाकारी क़ुरआनी आयतें मुसलमानों पर बाध्यकारी हैं और हर अनपढ़ या पढ़ा-लिखा मुसलमान इससे काम लायक़ वाक़िफ़ है। ... दूसरी तरफ़ हिंदुओं की आबादी लगभग 13% है लेकिन आतंकवादी घटनाओं में उनका शेयर कितना है? न के बराबर। ... इसमें कम्युनिस्ट/माओवादी/नक्सली हिंसा शामिल नहीं है क्योंकि उनकी हिंसा के मूल में उनका हिन्दू होना नहीं बल्कि हिन्दू-विरोधी कम्युनिस्ट/माओवादी/नक्सली होना है। ...परशुराम की हिंसा अगर हिंदुओं के लिए बाध्यकारी होती तो उनकी प्रेरणा से कश्मीरी हिंदुओं में  सैकड़ों आतंकवादी निकलने चाहिये थे क्योंकि सिर्फ हिन्दू होने की वजह से वे पडोसी मुसलमानों द्वारा अपहरण, लूट, बलात्कार, नरसंहार और जलावतनी के शिकार हुये थे। जातिनाश के शिकार 3 लाख से अधिक कश्मीरी हिंदुओं में कितने लोग आतंकवादी बने? शून्य बट्टे सन्नाटा।
#यह_पोस्ट_किसके_लिए ?
सनद रहे कि ऐसी पोस्ट मैं मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि काफ़िरों के लिए लिखता हूँ जो अंतिम क्षणों तक शुतुरमुर्गी रुख अपनाते हुये शान्तिदूत-भाईजानों का नरम चारा बनने को प्रस्तुत रहते हैं। जिस भाईजान को 'प्रयागराज' की जगह 'इलाहाबाद' से आपत्ति नहीं थी, 'राम जन्मस्थान मंदिर' की जगह 'बाबरी मस्जिद' से आपत्ति नहीं थी और नालंदा विश्वविद्यालय को ख़ाक करनेवाले के नाम पर 'बख्तियारपुर' से आपत्ति नहीं है...नोट कर लीजिए कि वह भाईजान बस सही समय और सही जनसंख्या का इंतज़ार कर रहा है ताकि अपने मन में बसे क़ुरआन-सम्मत 'मिनी पाकिस्तान' को डायरेक्ट एक्शन (जिहाद) द्वारा अपने 'सपनों के पाकिस्तान' में बदल सके। वैसे 1947 वाला पाकिस्तान भी जिन्ना ने अगस्त 1946 में डायरेक्ट एक्शन (जिहाद) का कौल देकर ही बनवाया था।
#सामाजिक_समरसता:
...फिर  धिम्मी काफ़िर जिसे 'सामाजिक समरसता' या गंगा-यमुनी संस्कृति कहता है वह असल में सैकड़ों सालों से चली आ रही '#ग़ुलाम_भाव की संस्कृति' का ही दूसरा नाम है। असली और टिकाऊ सामाजिक समरसता वह होती है जो '#स्वामी_भाव' की होती है जिसमें सभी पक्षों को बराबर का सम्मान मिलता है। अगर ऐसा हुआ होता तो इस देश में #सिकंदर_लोदी रोड की जगह संत #कबीरदास रोड होता, #औरंगज़ेब रोड की जगह #दारा_शिकोह रोड होता लेकिन जन्मस्थान मंदिर की जगह लगभग 500 सालों से बाबरी मस्जिद नहीं होती।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

Friday, May 3, 2019

हरामख़ोरी का गर्व और कर्मठता का अपराधबोध

दुनियाभर में ऐसे क़ानून बनाये जा रहे हैं कि लोग अपने नहीं बल्कि दूसरों के कर्मों के लिए जिम्मेदार ठहराये जाने लगेंगे--अब चाहे वे कर्म अतीत के हों या वर्त्तमान के , झूठे या सच्चे,  असली या नकली, अच्छे या बुरे। अब जब आप खुद के बुरे कर्मों के लिए जिम्मेदार नहीं होंगे तो खुलकर बुरे काम करेंगे। इसी तरह जब आपको अपने अच्छे कर्मों का क्रेडिट नहीं मिलेगा तो आप भी अच्छे कर्मों से दूर होते जाएँगे।
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दूसरे शब्दों में एक कामचोर की विफलता के लिए सफल व्यक्ति जिम्मेदार ठहराये जाएँगे और सफल व्यक्ति को उसकी सफलता का क्रेडिट नहीं मिलेगा।
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धीरे-धीरे ऐसा हो जाएगा कि हरामख़ोरी को एक गुण और कर्तव्यनिष्ठा को अवगुण माना जाने लगेगा और सफल लोग अपराधियों की श्रेणी में आएंगे जिनकी यह सज़ा होगी कि वे अपनी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा हरामखोरों को दें और छोटे हिस्से को अपने पास रखें और वह भी इस अपराधबोध के साथ कि काहिलों और हारामख़ोरों की जो स्थिति है इसके लिए ख़ुद काहिल-हरामख़ोर नहीं बल्कि कर्मठ और सफल लोग जिम्मेदार हैं।
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हरामख़ोरी और काहिली को प्रोत्साहित करनेवाले क़ानून किसी भी देश और समाज को धीरे-धीरे इस स्थिति में लाकर पटक देंगे कि हरामख़ोरी गर्व एवं कर्मठता शर्म का विषय हो जाएगी। फिर समाज कर्तव्यबोध और भौतिक समृद्धि दोनों से वंचित होकर अधोगति को प्राप्त होगा। इसके उदाहरण हैं समाजवादी देशों का पतन, खस्ताहाल सरकारी संस्थान, सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचारियों को सम्मान और पूरी दुनिया को एवं एक-दूसरे को भी मिटाने पर तुले इस्लामी देश।
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जो मुसलमान नहीं हैं वे काफ़िर या मुशरीक़ हैं और उनपर और उनकी संपत्ति पर मुसलमानों का मजहब-प्रदत्त अधिकार है जिसे माल-ए-ग़नीमत कहा जाता है और जिसके लिए जिहाद वाजिब है। दूसरी ओर जो क्रांतिकारी-सर्वहारा नहीं हैं वे बुर्जुआ या उनके सहयोगी हैं और उनकी संपत्ति को ख़ूनी क्रांति के द्वारा हासिल किये बिना बेहतर समाज का निर्माण नहीं हो सकता।
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यह अकारण नहीं है कि पिछले 1400 सालों में सिर्फ 120 वर्ष जिहाद नहीं हुये हैं और शेष 1280 सालों में 27 करोड़ से ज्यादा लोगों का नरसंहार हुआ है। इस प्रकार 91% समय जिहाद में गुजरा है , शांति में नहीं। यह भी कह सकते हैं कि यह बात 9% ही सही है कि 'इस्लाम शांति का मजहब है'। दूसरी तरफ़ 100 सालों से कम समय में ही 10 करोड़ लोग 'कम्युनिस्ट' क्रान्ति की भेंट चढ़ गए। सबसे ज्यादा नरसंहार हुये माओ (5.5 करोड़) और स्टालिन (2.5 करोड़) के नेतृत्व में जिस कारण दोनों की गणना कम्युनिस्ट महानायकों में होती है। यह बात अलग है कि इन दोनों ही महानायकों के दौर में इनके देश आर्थिक तौर पर बहुत कमज़ोर हो गए क्योंकि इनका दर्शन था:
माले मुफ़्त दिले बेरहम...
चींटियों की मेहनत पर टिड्डों का हक़...
बने रहो एड़ा खाते रहो पेड़ा...
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इस लिहाज से दुनियाभर के देशों में क़ानूनों पर सबसे ज्यादा जिन किताबों का असर हैं वे हैं: क़ुरआन और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो। ये दोनों किताबें पैग़म्बर-वादी हैं जिनपर सवाल उठानेवाले को मौत की सज़ा देने का 'पैग़म्बरी' प्रावधान है।  इस प्रावधान के सिद्धान्त हैं: जिहाद और क्रान्ति।
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यहाँ यह कहना जरूरी है कि तात्विक रूप से क़ुरआन ने बाइबिल से बहुत कुछ लिया है और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो ने क़ुरआन से। जैसे इस्लाम में दारुलइस्लाम है तो साम्यवाद में वर्गविहीन समाज, इस्लाम में दारुलहरब है तो साम्यवाद में पूँजीवादी व्यवस्था, इस्लाम में मुसलमान है तो साम्यवाद में क्रांतिकारी सर्वहारा, इस्लाम में काफ़िर/मुशरीक़ है तो साम्यवाद में प्रतिक्रियावादी/बुर्जुवा/पूंजीवादी और इस्लाम में जिहाद है तो साम्यवाद में ख़ूनी क्रान्ति। इस प्रकार तात्विक दृष्टि से एशिया के रेगिस्तानी इस्लाम का ही आधुनिक रूपांतरण है यूरोप का बर्फ़ीला साम्यवाद लेकिन दोनों के मूल में एक ही चीज़ है और वह है: राम राम जपना पराया माल अपना।
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मजे की बात यह है कि आजकल सबकुछ लोकतांत्रिक लबादे में हो रहा है जो पहले मजहबी या क्रांति के छद्मावरण में होता था। कहते हैं कि किसी भी समाज में कर्मठ लोगों की संख्या अक्सर 20% से ज्यादा नहीं होती, 40% लोग मौका मिले तो दूसरे के काम को बेहिचक अपना बता देंगे, 20% लोग संभव हो तो कोई काम नहीं करेंगे और शेष 20 % बिलकुल ही काम नहीं करेंगे। इस तरह दूसरे के काम का श्रेय लेनेवालों, काहिलों या काहिली का मौका खोज रहे लोगों की संख्या 80% तक हो सकती है जो एक लोकतंत्र के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण पर ख़तरनाक है क्योंकि यही संख्याबल अपने फायदे के लिए क़ानून बनवाने में सफल होता है।
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लेकिन इस 80% में लूट के बँटवारे को लेकर भी कोई सर्वमान्य नियम नहीं होता तो सभी अपना-अपना प्रेशर-ग्रुप बनाते हैं ताकि अपनी बातें ज्यादा से ज्यादा मनवा सकें। इसी प्रक्रिया में वोटबैंक जन्म लेते हैं जैसे मुस्लिम वोट बैंक, यादव वोटबैंक, 'दलित' वोटबैंक, ईसाई वोटबैंक, उत्तर भारतीय वोटबैंक, दक्षिण भारतीय वोटबैंक, पूरबिया वोटबैंक आदि।
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इन्हीं वोटबैंकों के मद्देनज़र सरकारी योजनाएँ/कार्यक्रम/नीतियाँ बनती हैं और चुनावी वादे किये जाते हैं। इनके उदाहरण हैं मनरेगा, कर्ज़माफी, खाद-बीज सब्सिडी, मिड-डे मिल और 2 रुपये किलो चावल जैसी स्कीमें तो 25 करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष 72,000 रुपए देने का चुनावी वादा।
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सामाजिक विमर्श में हरामख़ोरी और भ्रष्टाचार को सैद्धांतिक मान्यता मिल जाने के कारण इसे कोई अवगुण नहीं माना जाता, इसलिए कोई नेता और पार्टी चाहे भी तो वोटबैंक-लुभावन नीतियों और वादों से एक झटके से मुक्त नहीं हो सकता। इसका यह भी एक कारण है कि सरकार चाहे किसी पार्टी की हो, सबके मूल संस्कार एक जैसे ही रहते हैं और इस संस्कार को बनाये रखने में नेता-बाबू-कोर्ट-दलाल-मीडिया-शिक्षा संस्थान के गठजोड़ की अहम भूमिका होती है। इसी गठजोड़ को सत्ता संस्थान (Establishment) कहते हैं।
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लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुमत का ही ज्यादा चलता है और बहुमत काहिल-हरामख़ोर हो तो चहुँओर अधिकार और सिर्फ अधिकार की बात होती है क्योंकि अधिकार के परनाला का स्रोत क़ानून होते हैं न कि कर्तव्य। ऐसे में कर्तव्य की चर्चा करना भी क़ानूनन अपराध घोषित किया जा सकता है और एक कर्तव्य-विमुख समाज राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होकर भी बौद्धिक रूप से ग़ुलाम होता है जहाँ की सोच समाधान-मूलक न होकर दोषारोपण-केंद्रित हो जाती है।
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हरामख़ोरी-जनित इसी मानसिक गुलामी और कर्तव्य-विमुखता को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व ने मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया, जीएसटी, नोटबंदी और स्वच्छता अभियान से चुनौती दी है जिस कारण 2019 का चुनाव अंततः 'मोदी बनाम सत्ता संस्थान' हो गया है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि
महागठबंधन के नेता भाजपा/राजग सरकार के विरुद्ध नहीं हैं बल्कि वे मोदी के विरुद्ध हैं। राहुल गाँधी ने भी कहा है कि चाहे कोई और बन जाए लेकिन वे मोदी को पीएम नहीं बनने देंगे।
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यहाँ तक कि भाजपा  के अधिकतर नेता नहीं चाहते कि मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बनें। इसलिए उनकी मनोकामना है कि पार्टी को बहुमत न मिले भले राजग के घटक दलों को मिलाकर भाजपा के किसी अन्य नेता की अगुवाई में उनकी सरकार बन जाए। ऐसा इसलिए कि भाजपा का पार्टीतंत्र भी हरामख़ोरी को प्रोत्साहित करनेवाले उसी सत्ता संस्थान का हिस्सा है जिसका हिस्सा महागठबंधन समेत अन्य विपक्षी दल हैं।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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