U&ME

Monday, August 29, 2016

◆Losing an argument is better than losing a relationship◆

◆Losing an argument is better than losing a relationship◆

But a Gandhi or for that matter a Sanatani would not mind losing any relationship for the sake of Truth.
This ARGUMENT-RELATIONSHIP saying has its origins in the frustration of Christian Missionaries who were not able to convert the Pagans (Hindus) as fast as they wanted because they were weak in their arguments that lacked facts and truthfulness.

Finally, to speed up conversion to Christianity, they started exhorting the pagans in the name of relationships. That way conversion to Islam through brute force was more direct and thus easy to deal with in the long run.

बौद्धिक वर्ग की मानसिक ग़ुलामी का डीएनए टेस्ट

बौद्धिक वर्ग की मानसिक ग़ुलामी का डीएनए टेस्ट

असली लड़ाई मन की थी और है... ये वो लड़ाई है जिसे 1200 सालों से देसी व्याकरण का इंतज़ार है
महान संत कबीर और योद्धा-संत गुरुगोविंद सिंह में इस्लामी हिंसा और कट्टरता को टक्कर देने का सऊर था।

सिखों में किताब को ही अंतिम गुरु मानना और सामरिक चुनौती के मद्देनजर पंथ को ढाल लेना आकस्मिक नहीं था। जो नागा लगभग समाज-बहिष्कृत रहे उन्हें सिख पंथ के तर्ज़ पर समाज का जरूरी और नियमित हिस्सा क्यों नहीं बनाया जा सका।

बुद्ध की अहिंसा को पटखनी देने के चक्कर में 'धर्मो रक्षति रक्षितः' वाला वैदिक ब्राह्मण 'अहिंसा परमो धर्म: ' के अपने ही चक्रव्यूह में मकड़े की तरह फँस गया और फँसा गया।
जबतक वर्णव्यवस्था और वांछित हिंसा को ब्राह्मणों ने नहीं छोड़ा तबतक वे समाज के अगुवा रहे। नक़ल में मारे गए गुलफ़ाम।

10 करोड़ से ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतारने वाले स्टालिन-लेनिन-माओ-पोल पॉट -चे गवारा-फिदेल कास्त्रो पैग़म्बर से कम नहीं हैं;
दीन के केंद्र में हिंसा को रखने वाले मुहम्मद इस धरती के अंतिम पैग़म्बर हैं;
ईसाई -मुसलमान बनाने के लिए सीधे या छिपाके  खूब हिंसा करने-करानेवाले संत और सूफ़ी हैं;
जबकि आत्मरक्षा में हथियार उठानेवाले प्रताप-शिवाजी-गुरुगोविंद सिंह और नागा साधू ठग-लुटेरे हो गए!

असली लड़ाई तो मन की थी और है। एक लड़ाई जिसे 1200 सालों से देसी व्याकरण का इंतज़ार है।

Economics of marriage!

Santa: Is there something called economics of marriage?
Banta: Sure.
Santa: But it's not clear to me.
Banta: Divorce is the key to understanding this economics.

It's only-Muslim Valley, have you heard of Kahmiri Pandits?

Some of my Muslim and Secular friends are wailing over how the Kashmiri Muslims would be living their life in the five districts wherein curfew has been clamped for 50 days in a row?

Dear friends, do you bother to imagine how Kashmiri Pandits were thrown out of their homes in 1990s?
Do you remember the exact deadline by which they had to leave the valley? If they exceeded this deadline, they were asked to leave back their womenfolks in their forced exile to places they had never even thought of ?
Do you imagine the conditions under which they lived?
Do you imagine how many were raped, killed or kidnapped?
No, you don't want to imagine. The Kafirs must be made to bite the dust, so commands the Almighty Allah.

The situation in Kashmir is akin to that in Iraq-Syria. It's the fight for the rule of Shari'a at both the places. No mistake in this. Not many Muslims except the ilks of Tufail Ahmad or Tarek Fatah or Hassan Nisar will have the guts to accept this. Most of them are silently praying for the heaven that Islamic Rule is! And why not so? A practising Muslim is above the law of the land, so says the Holy Book. Please refer to the following concepts:

■Kafir (Non-believers)
■Darulislam( House of Islam or Believers)
■Darulharab (House of Non-believers)
■Ghazwa-e-Hind (Islamization of India
   through Jehad)
■Qattal Fee Sabeelillah(Killing in the Way
   of the Almighty Allah)
■Jehad Fee Sabeelillah (Jehad in the Way
   of the Almighty Allah)
■Kafir Wajibul-qatl (Killing of Kafirs is
   Appropriate)


Kashmiri Muslim neighbors were hands-in-glove with Jehadis who promised Nizame Mustafa and also control over the property of the Kafirs(KPs). Holding KPs responsible for their ethnic cleansing tantamounts to holding Yazidi women responsible for their gang-rape by ISIS shantidoots! In Islam, this is known as ALTAKIYA and is HALAL too. No one except the bigots will buy this logic.

We now know all this because your MUSLIM BROTHERHOOD is doing the same globally.
Some wonderful studies are also in place:
* A God Who Hates by Wafa Sultan
* Slavery, Terrorism and Islam by Peter
   Hammond
* Allah is Dead: Islam is not a Religion
  by Rebecca B.

Thursday, August 25, 2016

A political party and a professor

A poltical party sacrifices truth and logic for the sake of vote-banks; but so does a professor too because he, in his craving for non-knowledge brute power, is invariably an anti-intellectual agent of this or that political party/group.

जेएनयू में देशप्रेमियों की तादाद क्यों बढ़ रही है?

जेएनयू वालों को लोग मकान किराये पर नहीं देना चाहते।ट्रेन में पिटाई भी करने लगे हैं।सेकुलर आत्मनिर्वासित प्रिंट-टीवी मीडिया के बावजूद देशप्रेमियों की तादाद क्यों बढ़ रही है?

टिप्पणियाँ:
■लालचन्द्र सिंह: मेरी समझ में इसका एक बहुत बड़ा कारण एक ख़ास विचारधारा के एजेंडा को सेट करते आ रहे लोगों के हाथों से सूचना-प्रवाह-विश्लेषण का निकल जाना है। इस नई पुनीत-पवित्र स्थिति के निर्माण में सोशल मीडिया जैसे प्लेटफ़ॉर्म का बहुत बड़ा योगदान है। अभी तक परंपरागत मीडिया में इन मामलों में अपवित्र कॉकस काम करता था और अगर कोई अलग रुख़ लेता भी था तो उस पर पूरा दबाव बनाकर उसकी लानत-मलानत कर दी जाती थी और उसे अलग-थलग भी कर दिया जाता था। वैसे तो डंडीमारों का यह खेल अभी भी चल ही रहा है लेकिन शुक्र है कि जनसमर्थन के भारी दबाव के चलते अब स्थिति बदल रही है और बेईमान बुद्धिजीवी डंडी मारने की हालत में नहीं रह गए हैं (नोट- बिहार में बेईमानी करके तराजू से कम तौल कर कम सामग्री देने को डंडी मारना कहते हैं।) हम पहले पढ़ते थे कि - साहित्य समाज का दर्पण है। फिर समझ में आया कि साहित्य के बजाए शायद जनसंचार को समाज का दर्पण कहना बेहतर होगा। लेकिन आज निर्विवाद रूप से सोशल मीडिया ही समाज का दर्पण है। सोशल मीडिया ज़िंदाबाद।

■ जनाब असग़र वजाहत जेएनयू पर लिखते हैं: जिसके हाथ में मीडिया है उसके हाथ में 'सत्य' है।
कुछ महीने  पुरानी बात है।हिंदी प्रदेश के दूर दराज़ इलाके में किसी बड़े संस्थान में काम करने वाले एक सज्जन से मुलाक़ात हुई।बात चल निकली JNU पर।उन्होंने विस्तार से JNU पर अनैनिकता, देशद्रोह, भ्रष्टाचार, सरकारी पैसा बर्बाद करने आदि के सभी आरोप लगा दिए।
मैंने उनसे पुछा- आप कभी JNU गए हैं ?
उन्होंने कहा - कभी नहीं गया। मैंने पूछा - क्या आपके बच्चे वहां पढ़े हैं ?
उन्होंने कहा - नहीं ।
फिर मैंने पूछा - क्या आपके संबंधी या दोस्त वहां काम करते हैं ?
उन्होंने कहा - नहीं ।
फिर मैंने पूछा - तब आपको जेएनयू के बारे में इतनी पक्की जानकारियां कैसे हैं ?
उन्होंने कहा - अखबारों में छपा है और लोग ऐसा ही बताते हैं।
■ मेरा जवाब:
पहले जेएनयू में भारत के टुकड़े करनेवाले इंशाल्लाह नदारद थे या थे तो उन्हें कोई जानता नहीं था। सारा खेल मोबाइल और इंटरनेट ने बिगाड़ दिया है। इस कारण देसी दृष्टि अब उधार की सेकुलरता को उसकी औकात बता रही है,' प्रगतिशील पोंगापंथियों ' की पोल खुल रही है।
■ वजाहत साहेब के अनुसार देशप्रेमियों की बढ़ती तादाद का कारण "भयानक प्रचार" है।
■ मेरा जवाब:
देशप्रेमियों की बढ़ती तादाद के दो कारण हैं--
1. नई टेक्नोलॉजी के कारण सूचना पर न के बराबर नियंत्रण।
2. जेएनयू  पोंगापंथियों का अड्डा है।

अंतर इतना ही है कि यहाँ की पोथियाँ अंग्रेज़ों और पूर्व सोवियत संघ तथा चीनियों के हितों के मद्देनज़र तैयार की जाती रही हैं। जैसे काबुल में भी गधे होते हैं वैसे जेएनयू में भी कुछ देसी सोच वाले दिख जाते हैं, लेकिन वे आम तौर  पर विज्ञान वाले होते हैं, समाजविज्ञान के नहीं।
नोट: आपको साहित्य का होने का लाभ है। आप वैचारिक रूप से आत्मनिर्वासित होने के बावजूद संवेदनात्मक धरातल पर ज़मीन से जुड़े हैं। यही हाल अन्य सेकुलर साहित्यकारों का भी है। लेकिन समजविज्ञान से जुड़े लोग तो लगभग पूरी तरह उखड़े हुए हैं, मानसिक ग़ुलामी और बौद्धिक कायरता की साक्षात प्रतिमूर्ति।
■ मित्र Ram Vinay Sharma ने वजाहत साहेब की वाल पर कमेंट किया है:
अब तो जेएनयू के पुराने विद्यार्थियों में से भी कुछ लोगों को यह संस्था देशविरोधी लगने लगी है. तब नहीं लगी जब इन्हें वहाँ पढाई करनी थी, वहाँ की सुविधाओं का लाभ उठाना था. तब आज से ज्यादा वामपंथी थे वहाँ. उनसे पढने में संकोच नहीं हुआ.
■ मेरा जवाब:
तब भारत के टुकड़े करनेवाले इंशाल्लाह नदारद थे या थे तो उन्हें कोई जानता नहीं था। सारा खेल मोबाइल और इंटरनेट ने बिगाड़ दिया है। इस कारण देसी दृष्टि अब उधार की सेकुलरता को उसकी औकात बता रही है,' प्रगतिशील पोंगापंथियों ' की पोल खुल रही है।
■ डॉ रामविनय शर्मा:
पोल तो सबकी खुल गयी है. वामपंथी, दक्षिणपंथी, समाजवादी और दूसरे जितने भी वादी-अपवादी हैं. यह किसी वामपंथी ने नहीं कहा है-'उघरहिं अंत न होहिं निबाहू, कालनेमि जिमि रावण राहू'. और भी-'जाके नख अरु जटा बिसाला, सो तापस प्रसिद्द कलिकाला.' भाई, हमें तो पाखंडियो की अपेक्षा उपर्युक्त पंक्तियों पर अधिक विश्वास है. इंटरनेट पर भरोसे की बात अगले अध्याय में करेंगे.
■ मेरा जवाब:
पाखण्ड तो हज़ार सालों से इस देश का राष्ट्रीय चरित्र बन गया है जिसका सर्वाधिक परिष्कृत आज के दौर के उदहारण हैं जेएनयू में समजविज्ञानों और कुछ हद तक साहित्य के पाठ्यक्रमों के सिलेबस जो निस्संदेह वामियों की करतूत है। पहले ज्ञान की परिभाषा तय कर लीजिये फिर उसे जेएनयू की उपलब्धियों पर लगा दीजिये:
कितने मौलिक विचारक?
कितने मौलिक सिद्धान्त?
कितने मौलिक शोध पत्र?
कितने जर्नल?
कितने समाधान मूलक एमफिल/पीएचडी?

बात रही तुलसीदास की तो उनकी अकेले खल वंदना पूरे देश के समजविज्ञानों के योगदान पर भारी है। क्यों? क्योंकि उन्होंने किसी मार्क्स-लेनिन-स्टालिन-माओ-चे-हो ची मिन्ह आदि की नक़ल में साहित्य नहीं रचे थे। हमारे वामपंथी परले दर्ज़े के नक्काल हैं और शिक्षा संस्थानों पर कब्ज़े के कारण 70 सालों से इसी विषबेल को बढ़ा रहे हैं। मैकाले की मानस संताने ये वामपंथी बौद्धिकता से दूर बौद्धिक हैं क्योंकि इन्हें बुद्धिविलास और बुद्धिपैशाच्य से लगाव है न कि बुद्धिवीरता से। बुद्धिवीरता की विशेषता यह है कि वह मौलिकता , हिम्मत और देशप्रेम की एकसाथ माँग करती है जबकि वामियों की सारी अकल नकल में ही खर्च हो गयी जिसका बड़ी हिम्मत और निर्लज्जता से वे देशप्रेम के रूप में नुमाया करते रहे हैं।
■ डॉ रामविनय शर्मा: बौद्धिकता का देशप्रेम से क्या सम्बन्ध ? ठीक वैसे ही राष्टवाद का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है? पता नहीं आप गुरुदेव रबिन्द्रनाथ को क्या कहेंगे? उनका एक उद्धरण आपके विचारर्थ प्रस्तुत है: 'निद्रित मनुष्यों में आपसी भेद नहीं होते. लेकिन जब वे जाग उठते हैं तब प्रत्येक की भिन्नता अलग-अलग तरह से अपने को घोषित करती है. विकास का अर्थ है ऐक्य के बीच पार्थक्य की वृद्धि. बीज में वैचित्र्य नहीं होता. कली में सारी पंखुड़ियाँ एक होकर रहती हैं; जब उनमें भेद निर्माण होता है तभी फूल विकसित होता है.' मेरा आग्रह है कि गाय पुराण को समझने के लिए एक बार 'कठोपनिषद' के पन्नों को अवश्य पलटें.
■ मेरा जवाब:
पाश्चात्य राष्ट्रवाद का रिलिजन से गहरा सम्बन्ध है, धर्म से नहीं। ठीक वैसे ही भारतीय राष्ट्रीयता का धर्म यानी कर्त्तव्य से सम्बन्ध है।
पश्चिम में बौद्धिकता का मतलब मनुष्य बनाम प्रकृति के जद्दोजहद में प्रकृति का दोहन है जबकि भारतीय बौद्धिकता आपको समावेशी बनाती है, धार्मिक बनाती है जिस कारण पश्चिम बौद्धिकता से आजिज़ एलियट अपनी कविता Wasteland का अन्त उपनिषद् के शांतिपाठ से करते हैं। इसको 'विद्या ददाति विनयम्' वाले श्लोक से जोड़कर भी देखा जाए तो बौद्धिकता और राष्ट्रीयता का भारतीय धार्मिक सन्दर्भ और स्पष्ट हो जाता है। सारा कंफ्यूजन रिलिजन और धर्म को एक मानने से पैदा होता हैं।
चूँकि अन्य शैक्षिक संस्थानों की तरह जेएनयू भी नक्कालों का अड्डा है इसलिये वहाँ रिलिजन का अनुवाद धर्म करके  भारतीय समावेशिता पर सेकुलरिज़्म को थोप दिया गया।उन्हें यह समझ ही नहीं आ सकता था कि यूरोपीय मानवतावाद, बौद्धिकता, राष्ट्रवाद और सेकुलरिज़्म ने दुनिया को उपनिवेशवाद और दो-दो विश्वयुद्ध दिए हैं ।






Ambedkar The Prophet

Ambedkar The Prophet
◆◆◆◆◆
You can term DURGA as Sex Worker;

You can brand Gandhi as SHAITAN;

You can QUESTION the very idea of India;

You can speak the language of Pakistan;

You can openly support the Terrorists who attacked our Parliament;

You can blame Lord Ram for the ills of the contemporary India;

You can paint Lord Krishna as a RANGEELA;

You can call the entire nation as INTOLERANT;

But mind you, you can't critique a self-appointed Dalit Critic (Thinker), what to talk of Baba Saheb Ambedkar who, having been reduced to a Dalit Prophet, is beyond any debate.

Had the same formula been applied to Dr Ambedkar trying to question the social ineqalities dogging the country during early 20th century, we wouldn't have had even known the real Ambedkar!

A Prophet is beyond question, be it Jesus , Mohammad or Marx. And so is the Dalit Prophet whose followers have all the support of Evangelists, Islamists and Communists.

(Note: Inspired by a chat with
Dr Tribhuwan Singh.)

जेएनयू पोंगापंथियों का अड्डा है

जेएनयू पोंगापंथियों का अड्डा है।अंतर इतना ही है कि यहाँ की पोथियाँ अंग्रेज़ों और पूर्व सोवियत संघ तथा चीनियों के हितों के मद्देनज़र तैयार की जाती रही हैं। जैसे काबुल में भी गधे होते हैं वैसे जेएनयू में भी कुछ देसी सोच वाले दिख जाते हैं, लेकिन वे आम तौर  पर विज्ञान वाले होते हैं, समाजविज्ञान के नहीं।

मेधावी देशतोड़क चाहिए या औसत देशभक्त?

हमें खूब पढ़ा-लिखा कन्हैया-ख़ालिद टाइप देशतोड़क चाहिये या औसत पढ़ा-लिखा देशभक्त?

ऐसा क्यों है कि जेएनयू और ऐसे ही गिने-चुने संस्थानों में "भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह" के नारे लगते हैं और औसत विश्वविद्यालयों से पढ़नेवाले गर्व के साथ 'भारत माता की जय', 'वंदे मातरम्' और 'जयहिन्द' के नारे लगाते हैं?

मैकॉले भगवान और इंग्लिश देवी माई!

दलित इतिहास में आज़ादी की लड़ाई
मैकॉले भगवान और इंग्लिश देवी माई ।

दलित चिंतक कहते हैं कि आज़ादी की लड़ाई इसलिये लड़ी गई कि अंग्रेज़ जातिप्रथा के खिलाफ थे और ऊँची जाति के लोग जातिप्रथा के पक्षधर। यानी आज़ादी की लड़ाई में क़ुर्बान होनेवाले या तो ऊँची जातिवाले लोग थे या पिछड़ी और दलित जातियों के बेवक़ूफ़ लोग!

यह नया इतिहास चर्चपोषित भी है। अतिवामपंथी इसे सही मानते हैं। इस्लामवादी इसे सही मानते हैं। ऐसा इतिहास पढ़ने-पढ़ाने के लिए इंग्लैंड और अमेरिका के विश्वविद्यालय आपका तहेदिल से ख़ैर मक़दम करते हैं।

जेएनयू जैसी जगहों पर इस इतिहास की दूकानें सजती हैं।इसकी प्रायोगिक परीक्षा भी होती है जिसमें पास होने के लिए कैम्पस और बाहर हो रहे धरना-प्रदर्शनों के चुनिंदा नारों पर बुलन्द आवाज़ में मचलना पड़ता है:
भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह...
*
कश्मीर माँगे आज़ादी बंगाल माँगे आज़ादी...
*
भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी...

इसीलिए दलित चिंतकों ने इंग्लैंड और अमेरिका के चर्चों की मदद से 'मेकॉले भगवान' और 'अंग्रेज़ी देवी' की मूर्तियाँ स्थापित करने की मुहिम चलाई है।
*
आप इन वंचितों-सताये हुओं का साथ नहीं देंगे?
आपको तो अनुभव है नेताजी को जितेजी मारकर नेहरू जी के साथ आज़ादी का जश्न मनाने का...
*
गाँधी और गाँधीवाद की हत्या कर काँग्रेस को एक परिवार की पार्टी बनवा देने का...
*
दंगों  और बलात्कार को भी सेकुलर और कम्युनल में विभाजित करने का...

हिन्दुस्तान-पाकिस्तान आज़ादी अपडेट

हिन्दुस्तान-पाकिस्तान आज़ादी अपडेट

■15 अगस्त 1947:
हिन्दुस्तान को अंग्रेज़ों से आज़ादी मिली।
■14 अगस्त 1947:
अधिसंख्य मुसलमानों को अंग्रेज़ों और पवित्र किताब की प्रेरणा से न जाने किससेे आज़ादी मिली तो उन्होंने पाकिस्तान बना लिया।
■ दिसम्बर 1971:
इस्लामावादी उर्दू और लाहौरी पँजाबी की दबंगई ढाका की बांग्ला को रास नहीं आई। पूर्वी पाकिस्तान आज़ाद होकर बाँग्लादेश बन गया।लेकिन 1947 में यूपी-बिहार से वहाँ गये करोड़ों मुसलमानों को यह मंज़ूर नहीं हुआ और वे इस नए देश में शरणार्थी हो गए क्योंकि बचे-खुचे पाकिस्तान (पहले पश्चिमी पाकिस्तान) ने उन्हें अपनाने से इनकार कर दिया।
■14 अगस्त 2016:
इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान से हिन्दू न जाने कहाँ चले गए? शिया, खोजा,अहमदिया, बलूच, बल्तिस्तानी और पख़्तून भी हकलान हैं।
■15(-1) अगस्त 2016:
लोकतांत्रिक देश हिंदुस्तान में आज भी पाकिस्तान से ज़्यादा मुसलमान हैं। 1947 वाले पाकिस्तान और पवित्र किताब की प्रेरणा से इंशाल्लाह न जाने और कितने पाकिस्तान भी पैदा होते रहते हैं।

शान्ति के लिए हिंसा बनाम कायर-अहिंसा

शान्ति के लिए हिंसा बनाम कायर-अहिंसा

लालकिले से प्रधानमंत्री के भाषण की एक बात तोता रटंत, अनर्गल और बौद्धिक कायरता की मिसाल लगी:
इस देश में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं।

यह देश जबतक शांति और धर्म(कर्त्तव्य) के लिए हिंसा को वरेण्य मानता रहा तभी तक ज्ञान-विज्ञान-अर्थ-सम्मान में अग्रणी रहा। जिस दिन से अहिंसा अपने आपमें उद्देश्य हो गयी उस दिन से इसका पतन शुरू हो गया।

भारत के बहुमत ने कायरता की हद तक अहिंसा का महिमामंडन किया है; यहाँ तक कि आज़ादी की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्यौछावर करनेवालों को भी हम भूला बैठे; नेताजी को जितेजी मारनेवाले लोग इस देश के कर्णधार हो गए; जो लोग अंग्रेज़ों से गलबहियां कर रहे थे उन्हीं लोगों के हाथों में हमने राजनीति-नौकरशाही-न्यायपालिका-सेना की बागडोर थमा दी। शिवाजी-गुरुगोबिंद सिंह-महाराणा प्रताप को इतिहासकारों ने ठग और लुटेरा बता दिया।

चूँकि देश की जनता और उसकी आज़ादी के लिए लड़नेवाले हिंसा के शिकार थे इसलिये हिंसकों के साथ हिंसा करना उन्हें अपना कर्त्तव्य लगा था; लेकिन बिना कुछ खोये आज़ादी की मलाई मारनेवालों ने हज़ारों-लाखों सेनानियों के नाम को इतिहास से मिटाने का काम किया जो देश के साथ की गई जयचंदी हिंसा थी। बाद में इन्हीं लोगों ने प्रचारित किया कि देश को "बिना खडग बिना ढाल" के ही आज़ादी मिल गई।

ऐसे जयचंद और मीर ज़ाफ़र आज देश को घुन की तरह खा रहे हैं।स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय-नौकरशाही-राजनीति-अदालतें सब जगह इन्होंने कब्ज़ा जमाया हुआ है। ये लोग ही "भारत तेरे टुकड़े होंगे"और "भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी" जैसे नारों के सूत्रधार हैं। क्या अहिंसा से इनका ईलाज़ होगा, प्रधानमंत्री जी?

कल को कोई यह सवाल कर बैठे कि अगर कश्मीर घाटी के लोग निज़ामे मुस्तफ़ा के लिए हथियाबंद होकर
सड़क पर उतर आये तो क्या आप सबको गोली मार देंगे?
प्रधानमंत्री का जवाब क्या होगा यह तो वे ही जानें, युवा भारत का जवाब कुछ ऐसा होगा:
जो गोली खाने आये हैं उन्हें गोली ही मिलेगी न!

अंग्रेज़ों के साथ खड़े लोगों ने 1940 के दशक में मजहब के नाम पर पाकिस्तान की माँग की थी और हिंसा से डरकर उनकी बात मान भी ली गई थी। लेकिन क्या इससे हिंसा रुक गई? हिन्दू-मुस्लिम दंगे बंद हो गए? हिन्दुस्तान के अंदर पाकिस्तान बनना बंद हो गया?

इसलिए यह देश अपने अधूरे सूत्रवाक्य को अब पूरा करने को बेकरार है। मानसिक ग़ुलामी की कोख से निकली बौद्धिक कायरता के परचमधारियों ने अब तक हमें आधी बात ही बतायी थी:

अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है।

इसका बाकी हिस्सा है:
धर्म (कर्तव्य) की रक्षा के लिए हिंसा वरेण्य है।

लाल किले से मोदी का भाषण-2016

लाल किले से मोदी का भाषण-2016

दृश्य-I
कल्पना करिये कि इस भाषण पर एक ऐसे भाषा-मनोवैज्ञानिक को अपनी राय देनी हो जो न इस देश का हो और न उसका मोदी से कुछ लेनादेना हो तो वह क्या कहेगा?

■ एक थके हुए व्यक्ति का तोतारटंत
■ इंसान जैसे दिखते रोबॉट का भाषण
■ भावविहीन दावों की झड़ी
■ बौद्धिक कायरता की मिसाल
■ अपने मन की न कह पानेवाला वक्ता

दृश्य-II

अगर उस भाषा-मनोवैज्ञानिक को मोदी के पिछले तीन सालों के भाषणों के टेप थमा दिये जाए और कहा जाए कि अब वह 2016 वाले भाषण पर अपनी राय दे तो वह क्या कहेगा?

■ असली भाषणकर्ता के सिर्फ़ शरीर की क्लोनिंग है  2016 का भाषणकर्ता; दोनों के मन में कोई तुलना नहीं।

दृश्य-III

■ लन्दन स्थित भारतीय उच्चायोग में जश्ने आज़ादी। जश्न के पहले उच्चायुक्त का सम्बोधन जिसका लब्बोलुआब यह है कि भारत आर्थिक समृद्धि की राह पर चल पड़ा है। वह दिन दूर नहीं जब वह इंग्लैंड और अमेरिका से हमक़दम होगा।

■■ नोट: इसी दौरान उच्चायुक्त के शॉफर के मन में एक सवाल कौंधा, 'भारत क्या कभी भारत नहीं होगा? ग़ुलामी से पहले तो पूरे यूरोप और अमेरिका की इकट्ठी आर्थिक हैसियत भी भारत के बराबर नहीं थी फिर भी यह देश ग़ुलाम क्यों हो गया'?

ईमान पहले मुल्क बाद में, है न यही बात सलमान साहेब?

हिन्दुस्तान जैसे काफ़िर मुल्क का प्रधानमंत्री एक इस्लामी मुल्क के खिलाफ काम करे, यह सलमान ख़ुर्शीद के लिए नाकाबिले बर्दाश्त है...ईमान पहले मुल्क बाद में, है न यही बात सलमान साहेब?

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से प्रधानमंत्री मोदी ने देश की आक्रामक बलुचिस्तान नीति का ऐलान क्या किया कि सेकुलर काँग्रेस के सलमान ख़ुर्शीद के पेट में मरोड़ उठ गई। सवाल है कि एक काफ़िर मुल्क के काफ़िर वज़ीरेआज़म की ऐसी बलुचिस्तान नीति का मुसलमान सलमान ख़ुर्शीद विरोध नहीं तो और क्या करेंगे?

असल में सलमान ख़ुर्शीद ने वही कहा है जो भारत का एक औसत पढ़ालिखा मुसलमान चाहता है। वे एक मुसलमान पहले हैं और भारतीय बाद में। बुरहान वानी के अब्बा हुज़ूर को भी इस बात की ख़ुशी हुई थी कि उनकी औलाद अल्लाह और इस्लाम की राह पर क़ुर्बान हुई।और इस्लाम का फ़रमान है:

जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह;
क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह; और
काफ़िर वाजिबुल क़त्ल।
*
माने अल्लाह की राह में जिहाद फ़र्ज़ है; अल्लाह की राह में क़त्ल फ़र्ज़ है; और काफ़िरों का क़त्ल वाजिब है।

इसे समझने के लिए सारे "जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ" तराना लिखनेवाले अल्लामा इक़बाल के उस ईमानदार संकल्प पर नज़र डालना ज़रूरी है जो उन्होंने मरने के पूर्व लिया था:

हो जाए ग़र शाहे ख़ुरासान का इशारा
सज्दा न करूँ हिन्द की नापाक ज़मीं पर।

असल में भारत काफ़िरों का देश है जबकि पाकिस्तान में शरीया लागू है।इसलिये जबतक भारत को पाकिस्तान न बना दिया जाये तबतक बलुचिस्तान को तो पाकिस्तान के साथ रहने देना ही इस्लाम के हिसाब से सही है। और जो हिंदुस्तानी पार्टी इस पर अमल करेगी उसको ही मोसल्लम ईमानवालों का वोट मिलेगा। अगले साल यूपी में चुनाव भी हैं फिर ख़ुर्शीद साहेब ऐसा स्वर्ण मौका हाथ से कैसे जाने देते!

1977 तक इसी सेकुलर काँग्रेस की इन्दिरा गाँधी की बलुचिस्तान नीति मोदी की नीति से कहीं ज़्यादा आक्रामक और प्रभावी थी।फ़िर जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और विदेशमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने दुश्मन से निशाने पाकिस्तान पुरस्कार लेने के चक्कर में बलुचिस्तान में भारतीय खुफियातंत्र को नेस्तनाबूद करवा दिया।इसके बदले में पाकिस्तान ने 'ख़ालिस्तान 1980-85 और 'कश्मीर 1990' की सौग़ात दी।

नोट: आज सलमान ख़ुर्शीद इटली वाली सोनिया गाँधी की सेकुलर काँग्रेस के मुसलमान हैं और तब की काँग्रेस संगम-प्रयाग वाली इन्दिरा गाँधी के हाथ में थी।

स्टालिन, लेनिन और माओ नायक तो हिटलर क्यों नहीं?

जोसेफ स्टालिन बैंक लूटते थे, आजीविका चलाने के लिए। बाद में कम्युनिस्ट हो गए। अपनी पत्नी समेत 2 करोड़ से ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतारा और पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों के प्रेरणास्रोत बन गए।

19 वीं सदी के अंतिम वर्षों में रूस के लोग अकाल से मर रहे थे। कॉमरेड लेनिन ने इस आधार पर उनकी सहायता से इनकार कर दिया कि जितना ज़्यादा लोग भूख से मरेंगे क्रान्ति की संभावना उतनी ही अधिक होगी। बाद में उन्होंने दुनिया की पहली कम्युनिस्ट सरकार क़ायम की और अक्टूबर क्रान्ति के  महानायक कहलाये।

नेता माओ ने अपने देश में सांस्कृतिक क्रान्ति की , चार करोड़ लोगों को मौत के घाट उतारा और चीन समेत  ग़रीब देशों में कम्युनिस्टों के महानायक हो गए। आज भी हिन्दुस्तान के जंगलों में क्रान्ति की अलख जगानेवाले लोग उनकी माला जपते हैं।

ओसामा बिन लादेन और मुल्ला उमर ने महज कुछ हज़ार लोगों को अल्ला मियाँ का प्यारा बनाया और देखते-देखते अपने लोगों के दिलों पर छा गए। लेकिन नरसंहार में सामूहिक बलात्कार और सेक्स-ग़ुलाम कारोबार की छौंक लगानेवाले अबु अल बग़दादी के नायकत्व की टी आर पी को आजकल टॉप पर चल रही है।

बिहार के भागलपुर दंगों में हज़ारों लोग मारे गए। दंगाई लोग तब के  मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की पार्टी में शामिल हो गए। 1990-2005 में बिहार हत्या-अपहरण-फिरौती के मामले में अव्वल रहा। लालू प्रसाद भी चारा घोटाले में सज़ा पाकर सामाजिक न्याय के मसीहा हो गए।

अपने आसपास देखिये कि जिसे आपने अपना हीरो माना है, क्या वह उपरोक्त मानदंडों पर खरा उतरनेवाला मर्यादा पुरुष नहीं है?

नोट: द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 60 लाख से ज़्यादा यहूदियों को मौत के घाट उतारनेवाले हिटलर को न जाने क्यों माओ और स्टालिन के बाद महायुद्ध-नायक का दर्ज़ा नहीं मिला। कहते हैं हिटलर के साथ इस अन्याय के लिए यहूदी-बहुल देश इस्राइल जिम्मेदार है।

US & China are Ideology-neutral Nations

US & China are Ideology-neutral Nations

Santa: What's common between the #USA and #China?
Banta: Both are ideology-neutral.
Santa: What? Ideology-neutral?
Banta: Yes. They are ever-ready to use any #ideology as a tool if that suits to their national interests.
Santa: For example?
Banta: China is politically a #Communist country but is using the #Capitalist System to the hilt to #Market its goods and services globally. Similarly, despite being a Capitalist economy based on non-interference by the govt, the US #Congress granted $1000 billion to bail out its #private sector.
Santa: Don't you have an example involving #India?
Banta: My son is doing his #PhD in China on an #American #Fellowship; his topic of research is The China Connection of the #Grassroots #Movements in the Central India.
Santa: How does the US benefit from it?
Banta: Grassroots means #INSURGENCY. More on this after my son is safely back home next year.

#IdeologyNeutral #AmericanFellowship
#InsurgencyMovements #CentralIndia #Recession #NationalInterest
#PrivateSector

जाहिल और जहीन मुसलमानों में क्या समानता है?

जाहिल और जहीन मुसलमानों में क्या समानता है?

मुझे उन मुसलमानों की फेसबुक पर दो सालों से तलाश है जो किताबी फ़रमान से ऊपर उठकर बात करते हों। लेकिन जाहिल और पढ़ेलिखे मुसलमान इस मोर्चे पर एक हैं कि काफ़िर का क़त्ल तक जायज़ है अगर वह मोसल्लम ईमान को गले नहीं लगाता। ख़ुदाई जुबान में इसे 'काफ़िर वाजिबुल क़त्ल' कहते हैं। पूरी दुनिया में जहाँ भी उन्हें जिस हद तक मौका मिला उस हद तक वे इस फॉर्मूले पर अमल करते रहे हैं। इस बात को पीटर हेमंडस् ने अपनी पुस्तक 'स्लेवरी, टेररिज्म एण्ड इस्लाम' में 50 से अधिक देशों से जुटाये आंकड़ों के आधार पर साबित किया है।

पाकिस्तान-बांग्लादेश में हिन्दुओं का विलोप, कैराना-मुर्शिदाबाद-मालदा से हिंदुओं का पलायन, घाटी से हिंदुओं का निष्कासन और शादी-विवाह में शरीया लागू करवाना जैसी घटनाएँ काफ़िरों प्रति इसी मजहबी घृणा की छोटी-बड़ी कड़ियाँ हैं।

कितने मुसलमान नेताओं ने कश्मीरी हिंदुओं पर वही संवेदना दिखाई है जिसकी बारिश वे जेहादी हत्यारों-बलात्कारियों पर करते रहते हैं? बलुचिस्तान पर प्रधानमंत्री मोदी के बयान से अगर पाकिस्तान की जगह किसी गैरइस्लामी (काफ़िर) देश को नुकसान हो रहा होता तो भारत के मुसलमान वोटर को परेशानी नहीं होती। फ़िर काँग्रेस के सलमान ख़ुर्शीद के पेट में भी दर्द नहीं होता। इसलिये मोदी की बलुचिस्तान नीति का ख़ुर्शीद द्वारा विरोध को किसी भी और दृष्टि से देखना सेकुलर खाल में जेहादी धूर्तता के सिवा और कुछ भी नहीं।

पिछले हज़ार सालों में एक से एक मुसलमान हो गए हैं जो भारत के सर्वोत्तम के प्रतीक थे और उन्होंने लोगों के दिलों पर राज किया। परन्तु यहाँ के अधिसंख्य मुसलमानों ने उन्हें अपना नहीं माना क्योंकि इन महान आत्माओं ने यहाँ के लोगों को मुसलमान और काफ़िर में बाँटकर देखने से इनकार कर दिया था। यही वजह है कि भारत के मुसलमानों के नायक संत कबीर या अब्दुल कलाम जैसे लोग न थे और न कभी हो सकते हैं। उनके नायक हैं ग़ोरी, ग़ज़नी, औरंगज़ेब, याकूब मेमन, अफ़ज़ल गुरु और बुरहान वानी जैसे लोग। जो इसके अपवाद हैं वे नियम को सिद्ध ही करते हैं।

अगर ऐसा नहीं होता तो पाकिस्तान नहीं बनता, कश्मीर में हिंदुओं का जातिनाश नहीं होता और भारत के अनेक हिस्सों में न जाने कितने 'पाकिस्तान' नहीं बनते।

लेकिन टेक्नोलॉजी और लोकतंत्र ने स्थिति को पारदर्शी बनाकर शांतिप्रियता की खाल को उघाड़कर रख दिया है। अगले 5 साल में वो होगा जो हज़ार सालों में किसी ने सोचा भी नहीं होगा।

आज भारत का हिन्दू-सिख-जैन-बौद्ध-पारसी बहुमत विमर्श-जिहाद कर रहा है जिसमें उसे कोई सफलता  मिलेगी इसमें घोर संदेह है। कल यही विमर्श-जेहादी मुसलमानों की नक़ल पर असली 'जिहाद' करेंगे। यानी बहुमत का भी 'मुसलमान' बनना तय है।मजहब का सभ्यता से संघर्ष तय है।160 करोड़ मुसलमानों का 600 करोड़ गैरमुसलमानों  से अबतक का भीषणतम संघर्ष तय है। इसकी छिटफुट शुरुआत दुनिया के हर हिस्से में हो चुकी है। पहले दौर की बाज़ी मुसलमानों के हाथ रहेगी, यह भी तय है लेकिन अंतिम परिणाम क्या होगा, यह भी उतना ही तय है। हालाँकि यह सब किस क़ीमत पर होगा , इसपर कुछ नहीं कह सकते।

ओलिंपिक खेल: भारत और चीन

संता: ओलंपिक खेलों के मामले में भारत और चीन की सरकारों में क्या अंतर है?
बंता: भारत सरकार खेल में जीतने पर करोड़ों रुपये देती है और चीन की सरकार जीत की तैयारी पर करोड़ों रुपये खर्च करती है।

【श्री Awatansh Chitransh की एक पोस्ट से प्रेरित।】

विदेश नीति और मुस्लिम वोटबैंक

संता: भारत की तब और अब की विदेशनीति में क्या फर्क है?
बंता: पहले पार्टीहित सर्वेसर्वा था और अब राष्ट्रहित।
संता: जैसे?
बंता: मुस्लिम वोटबैंक के लिए काँग्रेस ने बिना किसी राष्ट्रीय लाभ के जाहिल अरब देशों का समर्थन किया और एक मजबूत मित्रदेश इस्राइल का विरोध।
संता: और अब?
बंता: आज अरब देशों के मित्र अमेरिका और दुश्मन इस्राइल तथा ईरान दोनों से भारत के अच्छे सम्बन्ध हैं।
संता: क्या अब भारत से मुस्लिम वोटबैंक ख़त्म हो गया?
बंता: नहीं, दूसरे अन्य बैंक खुल गए हैं जो बतौर सूद राष्ट्रीय हित पर अडिग हैं।

'सेकुलर खाल में जेहादी' को इंग्लिश में क्या बोलते?

संता: 'सेकुलर खाल में जेहादी' को अंग्रेज़ी में क्या कहेंगे?
बंता: Wolves in sheep's clothing.
संता: समझ नहीं आया।
बंता: भेंड़ की खाल ओढ़े भेड़िया।
संता: प्राजी, लगे हाथ कुछ नाम भी बता दो।
बंता: एक-दो हों तो बताएँ।

Garima Dutt, not a million Shobha De's can match you!

The problem is not with the diversity of opinions but the homogeneity-cum-exclusivity that the ilk of Shobha De's represent. And what is this? Self-hate, yes it is congenitally made up of self-hate that is typical of the India-hating copycats of the West. This didn't go unnoticed by Octavio Paz who found them (the Indian elite) unmatched in their copycating ability globally.
Put differently, they are anti-intellectual as they select DATA to toe their line of predecided CONCLUSION and present the same as RESEARCH. Thus they don't evolve and are essentially no different from what they were 30 years back. It is in this sense that Garima Dutt's jibe on Shobha De ( SHOBHA Tu Apna Opinion Mat DE) merits attention. De was castigating India women participants at the Rio Olympics 2016 that showed complete lack of empathy.

If identifying the connections in the apparently unconnected things(mostly old, though not necessarily so) is the basis of creativity, innovation or newness, is DE any different today from what she was yesterday?

I know Garima Dutt as a highly intuitive person who refuses to accept the importance of the underlying specific and general knowledge processes that go into the making of her intuitions. Consequently, in public spaces she is not herself most of the times.
Dear GD, use your RAM and don't let the hard drive overpower you.
Good, you allowed yourself to be you this time.

Not a million DEs can match you (Garima Dutt)  if you keep looking for meanings in the reordering of facts that are anyways doubling every third day. DE is typically of the mind-age when data doubled in 50 to 100 years. Kudos!

Marx : The Greatest Ever Adman

Marx : The Greatest Ever Adman

Marx and Engels used their genius to advertise about a world that never was and that would never be.

The Communist Manifesto could very well serve as a primer on How To Write Advertising Copies for future products and services !

(Insipred by Dr Niraj Kumar Jha 's post.)

क्या कोई दलित-मन भी चिंतक हो सकता है?

क्या कोई दलित-मन भी चिंतक हो सकता है?
सवर्ण और पिछड़ा मन भी चिंतक हो सकता है?
कोई कम्युनिस्ट मन भी चिंतक हो सकता है?
मुस्लिम या ईसाई मन भी  चिंतक हो सकता है?

#चिंतक होने के लिए उन्मुक्त मन चाहिए जो जीवन-जगत की चीजों के अव्यक्त रिश्ते को वाणी दे सके। एक #दलित ने मान लिया है कि सदियों से वह वंचित है और उसके और उसकी उपलब्धियों के बीच में सवर्ण नामक समूह खड़ा है जिससे #घृणा ही उसे सफलता दिलाने में सक्षम है न कि कड़ी मेहनत और लगन।
यही हाल एक #सवर्ण मन का है जिसके लिए सारी विफलताओं के केंद्र में दलित और #पिछड़े हैं जो #आरक्षण के कारण सारी मलाई मारे जा रहे हैं।

#कम्युनिस्ट के लिये दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ में #बुर्जुआ शोषण है इसलिये एक ख़ूनी #क्रान्ति के द्वारा बुर्जुआ सत्ता का नाश ही एकमात्र उपाय है।

वैसे ही एक #ईसाई का यह निष्कर्ष है कि सभी ग़ैर-ईसाइयों को सभ्य बनाने (ईसाई बनाना) में ही उसकी और दुनिया की असली #मुक्ति है।इसके लिये यानी परमपिता के आदेश को तामील करने की राह में #छल-बल सबकुछ जायज़ है।

अग्रज ईसाइयों के नक्शेक़दम एक #मुसलमान के लिए तबतक चैन हराम है जबतक सारी दुनिया के काफ़िरों को चाहे जैसे हो मुसलमान न बना दिया जाए(दारुलइस्लाम); इस्लाम कबूल न करने पर उनकी हत्या भी वाजिब है (#काफ़िर_वाजिबुल_क़त्ल)।

#चिंतनीय बात यह है कि जब एक दलित, सवर्ण, पिछड़े, कम्युनिस्ट, ईसाई या मुसलमान के लिए सबकुछ पहले से #तय है तो फिर चिंतन के लिये बचा क्या? जब चिंतन के लिये कुछ नहीं बचा ही नहीं तो फिर ये लोग चिंतक कैसे हो गए!

#कबीर मुसलमान नहीं थे, इसलिए चिंतक थे।
#रविदास दलित नहीं थे, इसलिये चिंतक थे।
#बुद्ध- चाणक्य -#शंकराचार्य-#ओशो सवर्ण नहीं थे, इसलिये चिंतक थे।
#गाँधी और लोहिया पिछड़े नहीं थे , इसलिये चिंतक थे।
#इक़बाल जबतक "मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा" तराना नहीं लिखा था तबतक चिंतक थे।
#जिन्ना मुसलमान थे, इसलिये चिंतक नहीं थे।
लेनिन-स्टालिन-#माओ कम्युनिस्ट थे, इसलिए चिंतक नहीं थे।
#नेहरू आधा कम्युनिस्ट आधा यूरोपवादी थे, इसलिये चिंतक नहीं थे।

जे है से कि:
आप या तो दलित हैं या चिंतक, दोनों एक साथ नहीं।
सवर्ण-पिछड़े हैं या चिंतक, दोनों एक साथ नहीं।
ईसाई-मुसलमान-कम्युनिस्ट हैं या चिंतक, दोनों एक साथ नहीं।
इन्हें चिंतक मानना तो #सुहागरात में #रक्षाबंधन के गीत गाने जैसा है।
फ़िर भी आप दोनों पर जिद करेंगे तो मेरे गाँव के चौक-चौराहे के अड्डेबाज़ बेसाख़्ता बोल पड़ेंगे:
#हँसुआ के लगन #खुरपी के विआह(विवाह)!

सिंधु के कोच के खिलाफ जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन?

सिंधु के कोच के खिलाफ जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन?

संता: सेकुलर गिरोह ने पी गोपीचंद के खिलाफ जन्तर-मन्तर पर धरना का ऐलान किया है।
बंता: पर क्यों?
संता: क्योंकि वे पुरुष होकर भी पी वी सिंधु के कोच क्यों हैं?
बंता: ये सिंधु  कौन है?
संता: ओलिंपिक में रजत जीतनेवाली पहली महिला खिलाड़ी।
बंता: सिंधु को गोपीचंद से क्या प्रॉब्लम है?
संता: वो बेचारी क्या बोलेगी। खुद गोपीचंद ने पुरुष अहँकार में बयान दिया है कि उन्होंने तीन महीनों तक उसे मोबाइल से दूर रखा और दो हफ़्ते तक आइसक्रीम -मीठा दही नहीं खाने दिया।
बंता: लेकिन इससे सिंधुू को क्या नुकसान हो गया?
संता: इस पुरुष कोच ने बेचारी महिला खिलाड़ी की आज़ादी का दमन किया। ऐसा नहीं होता तो संभव है कि वह स्वर्णपदक जीत लाती।
बंता: लेकिन ऐसी बंदिशें तो कोई महिला कोच भी लगाती ताकि खिलाड़ी का प्रदर्शन बेहतर हो।
संता: तो सेकुलर गिरोह उसका भी विरोध करता।
बंता: लेकिन क्यों?
संता: क्योंकि उन्हें पुरुष-जात से ही चिढ़ है।
बंता: फ़िर एक महिला की शादी सिर्फ़ महिला से होगी? सिर्फ़ महिला ही माँ-बाप-भाई-बहन-गुरु-डॉक्टर- सैनिक सबकुछ  बनेगी?
संता: प्राजी, ऐसे कैसे होगा? अगली पीढ़ी तो जन्म ही नहीं लेगी।
बंता: महिला के जीवन से पुरुष को और पुरुष के जीवन से महिला को निकाल देने पर और क्या होगा?
संता: फ़िर ये सेकुलर गिरोह के लोग ऐसी हरकतें करते ही क्यों हैं?
बंता: कोई केमिकल लोचा लगता है।
संता: हमने बेफालतू अपना टैम ख़राब किया।

#गोपीचंद #सिंधु #बैडमिंटन #ओलंपिक्स
#Gopichand #Olympics #Badminton
#Sindhu

ईश्वर, अल्ला, धर्म और मजहब

ईश्वर, अल्ला, धर्म और मजहब

संता: ईश्वर और अल्ला तो एक ही है न ?
बंता: ऐसा जरूर होता अगर धर्म और मजहब एक ही  होता।
संता: मतलब?
बंता: मजहब तो ज़न्नत प्राप्त करने का एक मैन्युअल है जिसमें आगे-पीछे इधर-उधर की कोई गुंजाइश नहीं है।
संता: और धर्म?
बंता: यह तो कर्त्तव्यबोध की एक कामधेनु-नाव है जिससे निजी और सामाजिक जीवन की वैतरणी को पार किया जा सकता है।
संता: ये थोड़ा जटिल नहीं है?
बंता: जीवन कोई कम जटिल है!
संता: मैं कह रहा था कि धर्म की इस जटिलता का मजहबी लोग बड़ा मज़ाक उड़ाते हैं।
बंता: वे ज़िन्दगी का भी ऐसे ही मज़ाक उड़ाते हैं।
संता: सो कैसे?
बंता: मजहब के नाम पर कभी पेशावर में नन्हे बच्चों को हलाल करते हैं तो कभी इराक़-सीरिया-भारत में औरतों का सामूहिक बलात्कार।

(डॉ प्रदीप सिंह के लिए।)

#ईश्वर #अल्ला #धर्म #मजहब #पेशावर #सीरिया #इराक़ #तहार्रुश
#Ishwar #Allah #Dharma #Majhab #Deen #Peshawar #Syria #Iraq #Taharrush #GangRape

The Case for Shaikha Salwa: What Papa Hemingway Would Have Said ?

The Case for Shaikha Salwa: What Papa Hemingway Would Have Said ?

A section of the Indian social media remained divided almost for a week (16-21 August ) into pro- and anti-Islamic camps over the alleged report (Financial Times, 14.8.16) of a Qatari Princes, Ms Shaikha Salwa,  having group sex with three men in her London apartment room,  while three others were waiting for their turn.
The vigorous responses to the report invite a few questions that merit our attention.

● Is it the first case of group sex with hired men in the world?
¶ The answer is NO.

● Is it the first case of orgy in Europe or America?
 ¶ The answer is NO. In fact the pornographic movies (depicting orgy or otherwise) are protected as the right to freedom of expression under the Second Amendment of the US constitution.

● Is it the first case in Asia or Africa?
¶ The answer is NO. In fact , the orgy is depicted on the walls of some of the oldest temples in India lending a definite element of sacredness to the act. The West and South Asian Turk, Afghan and Mughal harems with thousands of inmates and sex slaves, both female and male, testify to this.

● Is orgy unheard of in the Islamic world of today?
¶ The answer is NO. In fact , it may be more common in the Islamic world than anywhere else. Why? A man is allowed to have four wives who can be divorced conveniently through the Shari'a sanctioned system of Triple Talaq.
This, in turn, makes a woman too vulnerable  to decline her husband's demand for orgy.

● Is it really about Islamic world vs the rest? Should it really be so?
¶ No. It's not as the carnal desires are universal though they may acquire extra-normal dimensions if suppressed by religion or any other agency.

● Is group sex abhored globally?
¶The answer is NO. In fact , it has huss-hussed acceptance among the elites all over the world. It's becoming almost a status symbol among the filthy-rich.

● What's so special about  Shaikha Salwa having group-sex in her London apartment?
¶ First, this involves a member of the Qatari Royal Family that, along with Saudi Arabia, sponsors Wahabism, the most conservative sect of Islam globally.

¶ Second, it involves a woman who , at least officially, is an adherent of Islam, a religion that gives only very limited rights to a woman over her body so much so that Jehadis are guaranteed  72 hoors (virgins) in their afterlife in the  zannat(Islamic heaven).

¶ Third, and the most important from gender perspective globally, the dominant partner in this case is a woman exercising her choice ( of location, timing, manner, number and types of hired male partners).

¶ Fourth, Shaikha Salwa (a woman from the developing world) decided to consume the sex-services sold by six men from the developed world (Europe). The seventh man's job was to help her find these six men with expertise in specific acts of orgy and also rescue her in case these paid human robots went violent breaching the terms of contract.

Looked at with a non-gender-neutral eye, the courage of the Qatari Princess has almost no parallels globally. Her capacity to risk her reputation back home should be a matter of envy as well as a source of inspiration for those females who want to have males on their own terms and conditions. In fact, even males can take a few lessons from her.
It needs no emphasis that she has aroused burning envy among the affluent men and women all over the world irrespective of their race, religion or region.

By exercising her rights, not given by her religion (Islam), she has proved that 'if there is a will there is a way'. Who knows, she or her ilk turns out to be tomorrow's icon for the Islamic women fighting for complete rights over their bodies. Hers was an act of defiance resulting from absence of even bare minimum body rights granted publicly.
Her coming to an unknown world to enjoy those rights that should have naturally belonged to her merits no less attention.

Dear, Shaikha Salwa, I thank thee. It is our bad luck that we can't boast of a Papa Hemingway today. Had he been alive, he would have dared the whole world: Salwa is my family member. Don't you even think of causing any harm to her!

#QatariPrincess #ShaikhaSalwa #TheCaseForSalwa #Hemingway #PapaHemingway
#WomansRightsOverHerBody
 #OrgyWithSix #SexScandalWithSevenMen #GroupSex
#Islam #TripleTalaq #PornMovies #SecondAmendment #USA
#FinancialTimes #England #London #Europe

Anti-India Psychological Warfare is Outsourced to the Secular Press

Anti-India Psychological Warfare is Outsourced to the Secular Press

Santa: What's this fad called outsourcing?
Banta: What the secular liberal press does in India for Pak-sponsored Jehadis.
Santa: OHT (Overhead Transmission) ho gaya.
Banta: This is just about the  psychological war waged by a section of the press on behalf of Pakistan to demoralize the armed forces and the govt in their fight against Jehadis who first threw the Hindus out and now are hell bent upon turning the only-Muslim-valley into an Islamic state.
Santa: But those manning the Indian press are mostly Indians.
Banta: Yes, physically only; psychologically they are Non-resident Pakis.
Santa: Quite intriguing.
Banta: So is it. The Indian education system is programmed to produce India-hating copycats. That's why they are for Pakistan as it amounts to being anti-India.
Santa: But if the choice is between India and Russia?
Banta: It's simple. They are for India as Russia has no anti-India agenda.
Santa: This is no less than a disease.
Banta: Doubtless.
Santa: But how to cure it?
Banta: By developing in them the capacity to retrieve the best that the country has for itself and the rest of the world.
Santa: For example?
Banta: Respect for all without losing ground to any.
Santa: And so says our Waheguru...
Banta: Waheguru ki khalsa, Waheguru ki fateh.
Santa: Sat Shri Akal.

They are Non-resident Pakistani by default!

They are Non-resident Pakistani by default!

Santa: The social media khadkus miss no opportunity to target our celebrity TV journalists. Why?
Banta: Yaar, they often play as journalist-clones of Pak-bred terror tycoons.
Santa: So what?
Banta: How can they be so blatantly anti-India without any reason?
Santa: They are said to be suffering from chronic Attention Deficiency Hyper Activity Syndrome(ADHAS) which, for secular-liberal brigade in India, is as good as having a compulsive feeling of being Non-resident Pakistanis (NRP).
Banta: But, being Indian, they could be anti-Pak as well.
Santa: This was possible only if India and Pakistan were friends.
Banta: Why?
Santa: In that case, being anti-Pak would automatically mean being anti-India too.
Banta: The secular-liberals are pro-Pak because it necessarily means being anti-India.
Santa: True.
Banta: But why?
Santa: They are the products of the education system that was raised to perpetuate the colonial rule. And, that was possible only if the educated people hated everything that was Indian.
Banta: You mean they do all this by default?
Santa: Praji, you got it right.

माँझी की मजदूरी और उसका प्रेम

इस देश में 'श्रम के सौन्दर्य' की स्थापना करनी है और  'कौशलपूर्ण भारत' (Skill India) की मुहिम को सफल बनाना है तो 'मजदूरी और प्रेम' के राज की उद्घोषणा करनी ही पड़ेगी। और इसके लिए पहाड़ का सीना चीरनेवाले  दशरथ माँझी (The Mountain Man) से बड़ा कौन 'ब्रांड आम्बेसडर' हो सकता है।

#SkillIndiaBrandAmbassador
#SkillIndia #DashrathManjhi
#ManjhiTheMountainMan
#SkillIndiaBrandAmbassadorManjhi
#LabourOfLove #LabourAesthetics

ए चन्दरकान्त, तनी अँगरेजी पादल बन्द कर~

जून 1976, गाँव: रूपनारायनपुर, जिला: मुजफ्फरपुर , बिहार

सातवीं पास करते ही राष्ट्रीय ग्रामीण प्रतिभा छात्रवृत्ति मिल जाने के कारण शहर के ज़िला स्कूल में दाख़िला लेना पड़ा।कुछ महीने बाद गाँव लौटा तो अपने संगी-साथियों से बातचीत के दौरान कोई-कोई वाक्य बज्जिका के बजाये खड़ी बोली हिन्दी में बोल जाता था जिसपर उनका चट जवाब होता:

ए चन्दरकान्त, तनी अँगरेजी पादल बन्द कर~

एनिमल फार्म के नेहरू और नेताजी

 एनिमल फार्म के नेहरू और नेताजी
संता: एनिमल फार्म का गदहेस्ट (बेंजामिन) भारत के किस बड़े नेता की याद दिलाता है?
बंता: पंडित नेहरू।
संता: सो कैसे?
बंता: दोनों को लोकतंत्र से गहरा लगाव था और दोनों ने अपने परिवार को इस काम में अनासक्त भाव से घुसेड़ दिया।
संता:  फ़िर घोड़ा (बॉक्सर) किसकी बरबस
याद दिला जाता है?
बंता: नेताजी सुभाषचंद्र बोस।

ये जो पब्लिक है

ये जो पब्लिक है जो भी करती है ठीक ही करती है।
लालू सज़ायाफ्ता प्रसाद के हाथों बिहार में बिजली को ठेंगा दिखाते हुए लालटेन की वापसी करायी। अब लोग हत्या-अपहरण-फिरौती में लग गए तो लालू जी जंगल का चारा देखें कि हिंसक गतिविधियों पर टैम भेस्ट करें?

लोगबाग तो इतना बकलोल हैं कि उन्हें यह तक याद नहीं कि हिटलर को कितना जनसमर्थन था यहूदियों को सच्चा रास्ता दिखाने के लिए।

फ़िर जेहादियों को अवाम ने कितना समर्थन दिया था ताकि वे कश्मीरी हिन्दुओं को 1990 के दशक में सच्चा रास्ता दिखा सकें! आज 50 से ज़्यादा देशों की पब्लिक का जेहादियों को खुला समर्थन है ताकि वे पूरी दुनिया को दारुल इस्लाम ( शांति - आवास) में बदल सकें।

लेकिन आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है कि पब्लिक ने ठीक नहीं किया है। 30 वर्षों बाद एक ऐसी पार्टी को पूर्ण बहुमत दिया जो काँग्रेस नहीं है।
ख़ैर पब्लिक ने गुनाह किया है तो देश इसकी सज़ा अभी और भोगेगा।

पहले 2G, 3G, ये G वो G होता रहता था और आजकल? शहर बुलन्द होता है राजमार्ग पर आधीरात में; देश की दशा ठीक करने के लिए सेकुलर नेताओं को पाकिस्तान से मदद माँगनी पड़ रही है; जेएनयू में  'भारत तोड़ो' शीर्षक नाटक का रिहर्सल कर रहे कलाकारों को भक्तों द्वारा देशद्रोही करार दे दिया जाता है।

अब तो यही कहकर संतोष करना पड़ेगा कि पब्लिक भी तो इंसानों का ही  समूह है और इंसानों से ग़लती हो जाती है। लेकिन यह अपवाद है जिससे नियम सिद्ध ही होता है कि "ये जो पब्लिक है, सब जानती है" और जो करती है अच्छा ही करती है।

जाति पर दुष्प्रचार के लिए ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ भी दोषी

जाति को लेकर पढ़ेलिखे लोगों में जोे धुंध,शर्म या घृणा और क्रोध  है उसके लिए अकेले डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर के अज्ञान और बदले की भावना को दोष देना या तो धूर्तता है या मूर्खता। इसके लिए अम्बेडकर से भी ज्यादा जिम्मेदार है पारम्परिक बौद्धिक वर्ग जो प्रचण्ड आत्महंता दम्भ और कायरता की प्रतिमूर्ति था और जिसे यहाँ के परम्परागत समृद्ध समुदायों से पूरा समर्थन था।

ब्राह्मण के दम्भ और कायरता से बनिये का धंधा समृद्ध होता था। विश्वास न हो तो किसी भी राजनैतिक दल का इतिहास पलट लीजिये। भला हो चीनी माल का जिसने पहली बार  ब्राह्मणों पर बनिया-विश्वास को डिगा कर रख दिया है। कायरता यहाँ भी अपना रँग दिखायेगी, मानेगी नहीं।

पिछले 250 सालों में अखिल भारतीय स्तर पर गाँधी-तिलक को छोड़ उन पारम्परिक बौद्धिकों के नाम गिनायिये जिन्होंने शंकराचार्य की तरह समसामयिक मुद्दों पर पूरे देश के साथ भारतीय दृष्टि से रणनीतिक विमर्श किया हो। आज की क्या स्थिति है? उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव (2017) में काँग्रेस का शीला दीक्षित को उतारना क्या दर्शाता है?
गोविंदाचार्य, उमा भारती, कल्याण सिंह और शंकरसिंह वाघेला के साथ जो भाजपा में हुआ था वो क्या था?

The Brahmin brain and the Buddhist compassion

The Brahmin brain and the Buddhist compassion could together do wonders to India. But if only they could come together!

गाँधी और अंग्रेज़

 गाँधी और अंग्रेज़

संता: प्रथम विश्वयुद्ध में गाँधी जी ने अंग्रेज़ों की खुलकर मदद की थी?
बंता: हाँ।
संता: क्यों?
बंता: वे अंग्रेज़ों की मदद से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ना चाहते थे।
संता: लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में तो उन्होंने 'करो या मरो' का नारा दिया था?
बंता: तबतक वे अंग्रेज़ों की मज़बूरी बन चुके थे।

कश्मीरी आतंकवादी- आईएस भाई-भाई

 कश्मीरी आतंकवादी- आईएस भाई-भाई

संता: कश्मीरी आतंकवादियों और आईएस में क्या समानता है?
बंता: कश्मीरी आतंकवादी इस्लामी राज्य पाकिस्तान की माला जपते हैं जबकि आईएस पूरी दुनिया को ही एक इस्लामी राज्य में बदलना चाहता है।
संता: तब तो पाकिस्तान भी एक दिन आईएस के अधीन होगा?
बंता: एकदम नहीं।
संता: क्यों?
बंता: एक भाषा और एक मजहब के बावजूद जब अरब में 20 से ज़्यादा देश हैं तो उर्दूभाषी दक्षिण एशियाई देश पाकिस्तान क्या ख़ाक आईएस का हिस्सा बनेगा?

Sen is a modern day Jaichand

Sen is to Indian Interests what  JAICHAND was to Chauhan. Like Jaichand, Sen misses no opportunity to fill his stomach by singing to the tune of today's Ghauris.

This Nobel laureate is most ig-Noble  in misusing his status as an Economist to further the ends of a political group and thus exposing both his ignorance about the issue at hand and his attention-seeking disorder.
His place is either a Rehabilitation Centre or Jail, no third option.

Sen today is an academic equivalent of paid news

Santa: Prof Amartya Sen says that Kashmir brutality is the biggest blot on our democracy.
Banta: He himself is the academic equivalent of paid news.
Santa: How?
Banta: He never talked about the ethnic cleansing of Kashmiri Hindus who suffered genocides, rapes, kidnappings and finally exile at the hands of Jehadis who want Islamic Rule in the Valley.

Conversion in the name of relationship

◆Losing an argument is better than losing a relationship◆

But a Gandhi or for that matter a Sanatani would not mind losing any relationship for the sake of Truth.
This ARGUMENT-RELATIONSHIP saying has its origins in the frustration of Christian Missionaries who were not able to convert the Pagans (Hindus) as fast as they wanted because they were weak in their arguments that lacked facts and truthfulness.

Finally, to speed up conversion to Christianity, they started exhorting the pagans in the name of relationships. That way conversion to Islam through brute force was more direct and thus easy to deal with in the long run.

अमर्त्य सेन का जेहादी-प्रेम

अमर्त्य सेन का जेहादी-प्रेम
संता: नोबेल पुरस्कार बहुत तोप चीज़ होती है।है न ?
बंता: तभी तो जगदीशचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द को नहीं मिली।
संता: लेकिन अमर्त्य सेन को तो मिली।
बंता: अब समझूँ कि वे कश्मीर में हिंदू-नरसंहार पर चुप रहते हैं और नरसंहारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर दुखी क्यों  हो जाते हैं।

Islam not alienation is the reason for the Kashmir Jehad

The agenda of Kashmiri Jehadis is the same as that of ISIS in Iraq-Syria: Nizame Mustafa or ISLAMIC Rule by annihilating the rest if necessary.

Good that the OIC has voiced its support for Jehadis. This is an unintended diplomatic win for India.
Has OIC ever discussed the strategy to deal wih the Syrian refugee crisis? No. Why? They are unanimous on the command of the Allah to turn the Darul Harab (non-Islamic states) into Darul Islam (Islamic states) through Jehad including Kafir Wajibul Qatl (killing of Kafirs is justified).

Had it not been so, they wouldn't have had engaged in the Ethnic Cleansing of Kafirs (Kashmiri Pandits) in the valley.

 Valley Muslims have completely lost their moral rights of putting the blame on  Alienation until what they mean by this is :
non-cooperation of the government in their efforts to bring the valley under Islamic Rule.

Manufacturing Caste: Colonialism, Evangelism and Votebank Politics in India

Manufacturing Caste:
Colonialism, Evangelism and Votebank Politics in India

Today(24.8.16) I happened to read a post that compared Political Islam with Caste in India. The point is that Politics is expressly embedded in Islam and, like Communism, it is just an ideology to grab power by hook or by crook. On the other hand, CASTE as we see today is a GIFT of the British Colonialism and the European (mainly British) Evangelism to the colonized India with no option of REJECTION.

What's Islam without politics?
Not even 10 % of what it actually is. Religiousity of Islam is not universal, it is EXCLUSIVE and thus limited to those having complete faith in the Almighty Allah.
Ref:
1. Allah is Dead: Islam is not a religion by  Rebecca B
2. A God who hates by Wafa Sultan

Pre- Renaissance Christianity was more barbaric than any faith ever practised on the planet earth. ( Crusades ; Genocides of Pagans in Europe, Americas, Goa; Slavery till 19th Century)

Annihilation of the Other is Religiously sanctioned by all Semetic Faiths including Communism (which compares so well with Islamic concepts such as Darul Islam, Darul Harab, Jehad, Kafir Wajibul Qatl, Qattal Fi Sabeelillah, Jehad Fi Sabeelillah, Ghazwa-e-Hind et al).

What's is the evidence of the humiliation of Shudras preceding the Islamic invasions?
Books banned by the British prove otherwise by sourcing the beginning of humiliations as we know today to the deindustrialuzation wrecked by the colonialists and thus, with socio-economic data, prove that the CASTE is the social fall out of the economic ruins of the producing communities(Shudras).
Ref:
1. India in Bondage by J K Sunderland (1929)
2. The Case for India by Will Durant (1930)
3. देशेर कथा , सखाराम देउस्कर (1904)


The credibility of data presented in the aforementioned books banned by the British is further strengthened by the OECD Economist Angus Madison in his
book WORLD ECONOMY AT THE MILLENNIUM(2000). In his address at the Oxford University, Dr Shashi Tharoor had used Madison's findings to castigate the UK in terms of its Economic and Social roles during nearly two hundred years of its colonial exploitation.

To appreciate the aforementioned facts, one needs to walk out of his/her Activist's shoes and be a learner.

For better understanding of the issue, please visit the wall of
Dr Tribhuwan Singh who specializes on the issue.

Why Evangelists, Islamists and Maoists are not strange bedfellows?

Why Evangelists, Islamists and Maoists are not strange bedfellows?

Communism is an extension of Semetic Faiths that have Fear and Violence embedded in them by their Prophets. The only exception to this was Lord Jesus who epitomized Compassion. Not only did Jesus faced Crucifixion, his self-appointed successor St. Paul replaced this Compassion with Evangelism as an end in itself. What you see today is actually Papacy that is not even a poor clone of Compassion-driven Christianity as preached by Jesus.

Inquisitions in Goa by the Portuguese Evangelists are just a reminder of how cruel they could become if let loose unbridled as they did with the Pagans of Europe and the Red Indians in Americas.

Churches in the West have no visitors but huge moneys are traveling to Asia and Africa for raising Churches as instruments of Western Diplomacy.

No wonder, Evangelism is a global business today. Every evangelist loves Poverty and Insurgency that are high on the agenda of the Missionaries who have the history of having cleared the roads for colonialists in Asia, Africa and Americas.

Is it just a coincidence that you have separatist and insurgency movements dogging the non-Hindu majority areas where the natives have been lured into Catholicism (NE Satates) or where Hindus were converted to Islam through the power of the sword over centuries(Kashmir)?

Is it also just a coincidence that Communists (Maoists or Naxalites) , theoretically anti-God though, join hands with the Evangelists (Chhattishgarh, Jharkhand) and Islamists (JNU, Hyderabad & Jadavpur Universities) in their drive to annihilate the OTHER (Kafir, Pagan, Bourgeoisie) ?

Saturday, August 20, 2016

The case for Sheikha Salwa


A section of the Indian social media remained divided into pro- and anti-Islamic camps over the alleged report (Financial Times, 14.8.16) of a Qatari Princes, Ms Sheikha Salwa,  having group sex with three men in her London apartment room,  while three others were waiting for their turn.
The vigorous responses to the report invite a few questions that merit our attention.

● Is it the first case of group sex with hired men in the world?
¶ The answer is NO.

● Is it the first case in Europe or America? ¶ The answer is NO. In fact the pornographic movies (depicting orgy or otherwise) are protected as the right to freedom of expression under the Second Amendment of the US constitution.

● Is it the first case in Asia or Africa?
¶ The answer is NO. In fact , the orgy is depicted on the walls of some of the oldest temples in India lending a definite element of sacredness to the act. The west and south asian Turk, Afghan and Mughal harems with thousands of inmates and sex slaves, both female and male, testify to this.

● Is orgy unheard of in the Islamic world of today?
¶ The answer is NO. In fact , it may be more common in the Islamic world than anywhere else. Why? A man is allowed to have four wives who can be divorced conveniently through the Shari'a sanctioned system of Triple Talaq.
This, in turn, makes women too vulnerable  to decline their husband's demand for orgy.

● Is it really about Islamic world vs the rest? Should it really be so?
¶ No. It's not as the carnal desires are universal though they may acquire extra-normal nature if suppressed by the religion or any other agency.

● Is group sex abhored globally?
¶The answer is NO. In fact , it has huss-hussed acceptance among the elites all over the world. It's becoming almost a status quo among the filthy-rich.

● What's so special about  Sheikha Salwa having group-sex in her London apartment?
¶ First, this involves a member of the Qatari Royal Family that, along with Saudi Arabia, sponsors Wahabism, the most conservative sect of Islam globally.
¶ Second, it involves a woman who , at least officially, is an adherent of Islam, a religion that gives only very limited rights to a woman over her body so much so that Jehadis are guaranteed  72 hoors (virgins) in their afterlife in the  zannat(Islamic heaven).
¶ Third, and the most important from gender perspective globally, the dominant partner in this case is a woman exercising her choice ( of location, timing, manner, number and types of hired male partners).
¶ Fourth, Sheilha Salwa (a woman from the developing world) decided to consume the sex-services sold by six men from the developed world (Europe). The seventh man's job was to help her find these six men with expertise in specific acts of orgy and also rescue her in case these paid human robots went violent breaching the terms of contract.

Looked at with a non-gender-neutral eye, the courage of the Qatari Princess has almost no parallels globally. Her capacity to risk her reputation back home should a matter of envy as well as a source of inspiration for those females who want to have males on their own terms and conditions. In fact, even males can take a few lessons from her.
It needs no emphasis that she has aroused burning envy among the affluent men and women irrespective of their race, religion or region.

By exercising her rights, not given by her religion (Islam), she has proved that 'if there is a will there is a way'. Who knows, she or ilk turns out to be tomorrow's icon for the Islamic women fighting for complete rights over their bodies. Hers was an act of defiance resulting from absence of even bare minimum body rights granted publicly.
Her coming to an unknown world to enjoy those rights that should have naturally belonged to her merits no less attention.

Dear, Sheikha Salwa, I thank thee. It is our bad luck that we can't boast of a Papa Hemingway today. Had he been alive, he would have dared the whole world: Salwa is my family member. Don't you even think of causing any harm to her!

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Thursday, August 11, 2016

बुद्धिजीवी मतलब Pappu can't dance ***la

भारत का पढ़ुआ तबका मतलब
Pappu can't dance  ***la

जब पाँच फीट 5 ईंच वाले 7 फीट हाइट वाले को इसलिये छाँट देते हैं कि 'ऐसी हाइट का चलन अपुन के यहाँ नहीं है'..भारतीय आभिजात्य वर्ग के लिए यहाँ की विरासत वैसे ही है जैसे  'बंदर के  हाथ में नारियल'।
आप बड़े शौक से कह सकते हैं कि 'Pappu can't dance  ***la'

क्रांति की आउटसोर्सिंग

(क्या आप इस पोस्ट का शीर्षक देने की कृपा करेंगे?)

संता: प्राजी, क्रान्ति क्या होती है?
बंता: बहुत बड़ी चीज़ होती है।इसमें असली क्रांतिकारियों और ग़रीबों की बलि चढ़ती है।
संता: कुछ समझा नहीं!
बंता: सबसे पहले रूस में क्रान्ति हुई जहाँ 1917 से 1960 के बीच दो करोड़ से ज़्यादा लोगों की बलि देनी पड़ी।
संता: और चीन में?
बंता: अरे हाँ, रूस के अनुभव से प्रेरित होकर चीन ने चार करोड़ का आँकड़ा पार कर लिया।
संता: और भारत में कभी क्रान्ति हुई कि नहीं?
बंता: कॉमरेडों ने सब रूस और चीन के भरोसे छोड़ा हुआ था।हालाँकि चीन की लाल सेना ने तो 1962 में कोशिश भी की थी।
संता: रूस से कोई मदद?
बंता: वहाँ वालों ने अब क्रान्ति के धन्धे को ही राम राम कर दिया है।
संता: तो भारत वाले ख़ुद ही क्यों नहीं क्रान्ति कर लेते?
बंता: यहाँ वाले शुभ-लाभ में भरोसा रखते हैं।
संता: मतलब?
बंता: वे आउटसोर्सिंग की फिराक़ में हैं।
संता: चीन के अलावा कोई और आउटसोर्सिंग सेंटर है क्या?
बंता: हैं तो कई लेकिन अमेरिका, सऊदी अरब और  पाकिस्तान प्रमुख हैं।
संता: पूंजीवादी देश अमेरिका और इस्लामी देश पाकिस्तान-सऊदी अरब साम्यवादी क्रान्ति करायेंगे?
बंता: इस्लामी देश इस्लामी क्रान्ति का ठेका लेते हैं लेकिन अमेरिका जहाँ कहीं जिस किसी क्रान्ति में फ़ायदा दिख जाए उसी की सुपारी ले लेता है; खासकर सोवियत संघ के पतन के बाद क्रान्ति बरपा करने की अमेरिकी चुनौती बढ़ गई है और बिज़नेस भी। पिछले 30 सालों में अफगानिस्तान, इराक़ और सीरिया में इस्लामी क्रान्ति क्या अमेरिकी मदद के हो सकती थी?
संता: ख़ैर ये बताओ कि भारत में पहले भी आउटसोर्सिंग हुई थी क्या?
बंता: बिल्कुल।
संता: जैसे?
बंता: मोहम्मद ग़ोरी, महमूद ग़ज़नी, बाबर,  नादिरशाह और अँगरेज़ आख़िर क्यों पधारे थे!
संता: लेकिन ये सब तो हमलावर थे।
बंता: भारत-व्याकुल लोग तो 1962 के चीनी सद्प्रयास को भी भारत पर हमला कह देते हैं।

दलित चिंतक तो दलित ही रहेगा चाहे आप जो कर लीजिये

दलित चिंतक तो दलित ही रहेगा चाहे आप जो कर लीजिये; सोये हुये को जगाया जा सकता है, सोने का नाटक करनेवाले को नहीं। जब दमित बने रहने में फ़ायदा हो तो कोई क्योंकर मुक्त होना चाहेगा? हींग लगे न फिटकिरी और रंग चोखा।इसलिये सोने का नाटक करनेवाले के बजाय सोये हुए यानी शूद्रों को जगाइये तो पूरा देश जगेगा।
*
दलित अंग्रेज़ों की अनैतिक मानस संताने हैं जबकि शूद्र भारत माता के जिगर के टुकड़े जिनके चलते यह देश दो हज़ार सालों तक (अंग्रेज़ों के आने के पहले) दुनिया का आर्थिक सुपरपावर था। (सन्दर्भ: डॉ Tribhuwan Singh और
डॉ सोलंकी की फेसबुक वाल।)
*
ग़ज़नी के भांजे सालार मसूद की एक लाख की फौज को बहराइच(उत्तरप्रदेश) में धूल चटानेवाले (1034 ईस्वी) महाराज सुहलदेव पासी भी शूद्र ही थे। लेकिन न सेकुलर इतिहासकार उन्हें पसन्द करते हैं न दलित बुद्धिजीवी। अपनों से ऐसी बेरुखी क्यों? उसी प्रकार संत कबीर दास(जुलाहा) या संत रविदास (मोची) के नाम पर दलित चिंतक असहज से हो जाते हैं।

संत कबीर अपने को 'राम का कुत्ता' कहते थे जबकि दलित चिंतक दुर्गा को सगर्व और सक्रोध 'सेक्स वर्कर' कहते हैं। दूसरी ओर इतिहास पुरुष भगवान ईशा मसीह की कुआँरी माँ मैरी पर एकदम चुप रहते हैं। उनकी यह चुप्पी माता मैरी के प्रति आदर भाव के कारण नहीं बल्कि एक साज़िश के तहत है क्योंकि अगर ऐतिहासिक कुआँरी मैरी आदरणीया देवी हैं तो  'मिथकीय दुर्गा' 'सेक्स वर्कर' कैसे हो सकती हैं?
*
बकौल Sumant Bhattacharya , सनातन में चूँकि कोख पर नारी का अधिकार है इसलिए ईशा मसीह की माँ हमारे लिए स्वाभाविक तौर पर दैवीय हैं।इसके लिए हमें किसी अमेरिकी-यूरोपीय विश्वविद्यालय, ईसाई मिशनरी या मोमिन-पोषित स्कालरशिप और विदेशयात्रा की जरूरत नहीं है।

ऐसा लगता है कि बेचारे कबीर या रविदास का विरोध समाज की कुरीतियों से था, अपने सनातनी समाज और देश से नहीं, इसलिये दलित चिंतक उनको घास नहीं डालते। वे करोड़ों लोगों के पथ-प्रदर्शक थे और हैं; वे दलित नहीं मुक्त थे, इसलिये करोड़ों लोगों की मुक्ति के कारक बने। बाबा साहेब अम्बेडकर का परिवार भी कबीरपंथी था।
*
कबीर की बुनकरी और रविदास की चर्मकारी उनके भरण-पोषण के लिए काफ़ी थी, इतना कि शहंशाहों के ताज उनके सामने हाज़िरी बजाएँ। लेकिन हमारे दलित चिंतक पता नहीं क्यों ताज देखते ही लार टपकाने लगते हैं; और न सिर्फ़ आज बल्कि पीढ़ी- दर-पीढ़ी दलित बने रहना चाहते हैं।
इससे यह भी जाहिर होता है कि दलितापा एक मानसिक स्थिति है जिसका सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है जैसे कि  जेहादियों का शिक्षा और समृद्धि से।

सवाल उठता है कि जो शौक से या पेशेवर दमित-वंचित-कुचलित-कुंठित है वह चिंतक कैसे हो सकता है ? जो ख़ुद सत्ता और धन की गिरफ़्त में है वो किसी और को मुक्ति कैसे दिला सकता है? ऐसे लोगों के लिए ही कबीर कहते थे:

"माया का गुलाम गिदर क्या जाने बंदगी"।
*
कबीर ने यहाँ गीदड़ की उपमा ही क्यों दी? इसलिये कि दूसरे जानवरों की मेहनत से अर्जित भोजन पर चतुर-धूर्त गीदड़ अपना हाथ साफ करता है; वह श्रम के सौंदर्य का नहीं बल्कि काहिली और धूर्तता का प्रतीक है।
*
इसका कोई यह अर्थ न लगाए कि कबीर ने 500 साल पहले ही आज के दलित चिंतकों को लक्षित करके कुछ कहा होगा।वे वैसे भी भविष्यवक्ता नहीं बल्कि भविष्यद्रष्टा और भविष्यनिर्माता थे क्योंकि उन्हें अपने श्रम पर पूरा भरोसा था; वो तो उनके समकालीन 'सियार' थे जिनके जीवन का सूत्रवाक्य था:
'माले मुफ़्त दिले बेरहम'।

जो भी हो, 'दलित' की अवधारणा का गर्भधारण उनलोगों ने किया जो अभी भी मानते हैं कि मानव-जन्म ही पाप का फल है और जिस पाप से दुनिया को मुक्ति दिलाना हर ईसाई (ख़ासकर गोरे) का फर्ज़ है। राम जाने उसी फर्ज़ के चक्कर में बेचारे अबतक न जाने कितना फर्जीवाड़ा कर चुके हैं; पाप से मुक्ति और स्वर्ग की चाहत जो न कराये!
*
एक बात साफ है कि दलित चिंतक भले ही सलीबफरोशों के साथ मायामोह में चिपके हों पर  'सलीब का बोझ' उठाना उन्हें मंज़ूर नहीं।वे धम्मचक्र की शरण में जाना पसंद करते हैं ताकि  जीवनभर वे घोषित तौर पर दमित-कुंठित-वंचित-दुःखी-प्रताड़ित बने रहें और श्रम को हेय मानने के बावजूद श्रमिकों के नाम पर मलाई मारते रहें।
*
एक जन्मजात ईसाई मित्र का कहना है: बॉस, अपुन का ईसा मसीह तो बेलाग्ग बोलता है ऊँट भले ही सूई के छेद से निकल सकता लेकिन पैसावाला तो एकदम हैवन(स्वर्ग) के अंदर नहीं जाने सकता।फिर तुम्हारा मालदार दलित चिंतक ईसाई बनने का फालतू का टेंशन काहे को लेगा।
*
पर ऐसा कोई लोचा हिन्दू या बौद्ध धर्म में एकदम नहीं है।फिर पद-पैसा-विदेशयात्राबाज़ दलित चिंतक भाईलोग ईसाई बनकर स्वर्ग की अपनी सीट क्यों गवाएँ!

जाने क्यों 'ढोल-गवाँर' मार्का संत तुलसीदास की खलवंदना की एक चौपाई पर अपन के घासलेट दिमाग की सूई मानों अटक गई है:
गुन अवगुन जाने सब कोई।
जो जेहि भावे निक तेहि सोई।।
(गुण-अवगुण की पहचान रहते हुए भी लोग वही काम करते हैं जिसमें उनका मन लगता है।)
मिसाल के तौर पर शराब-गाँजा-चरस के दुष्परिणामों को जानते हुए भी लोग इसलिये उनका सेवन करते हैं क्योंकि ऐसा करना उन्हें भाता है।

नोट: चूँकि दलितापा निहित स्वार्थवश एक ओढ़ी हुई नकली मानसिक अवस्था है, यह अब किसी ख़ास जात और मजहब तक सीमित नहीं रही। मनरेगा और इस तरह के अनेक कार्यक्रमों ने हर जात-मजहब में 'दलित' पैदा करके ख़ासकर कृषि को अपूर्णीय क्षति पहुँचाई है।
*
दलितापा का यूरोपीय शिकार बना यूनान। कैसे? कुछ आप भी बोलिये।

दलितापा का सम्बन्ध जात से नहीं है...

चूँकि दलितापा स्वार्थवश एक ओढ़ी हुई नकली मानसिक अवस्था है इसलिए यह अब किसी ख़ास जात और मजहब तक सीमित नहीं रही। मनरेगा और इस तरह के अनेक कार्यक्रमों ने हर जात-मजहब में 'दलित' पैदा करके ख़ासकर कृषि को अपूर्णीय क्षति पहुँचाई है।
*
दलितापा का यूरोपीय शिकार बना यूनान। कैसे?

नोट: ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग इस प्रलाप पर ध्यान न दें।

नोट: ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग इस प्रलाप पर ध्यान न दें।

समाजवादी सोवियत संघ के लेनिन-स्टालिन नायक हैं क्योंकि उन्होंने दो करोड़ लोगों को भवसागर पार करवाया।
इसी अनुभव का लाभ उठाते हुए 25 बरस बाद साम्यवादी चीन के चेयरमैन माओ ने चार करोड़ का आँकड़ा पार कर लिया और वे क्रान्ति के महानायक हो गए।
फ़िर अपनी ज़मीन और जान को बचाने के लिये आत्मरक्षा में हथियार उठानेवाले किसान नेता ब्रह्मेश्वर 'मुखिया' बिहार के कसाई कैसे हो गए?

पोंगापंथियों ने 450 सालों तक कबीर को कवि नहीं माना तो क्या इस दौरान वे कवि नहीं थे?
शिवाजी और गुरु गोविन्दसिंह को ईसाई मिशनरी तथा सेकुलर-वामपंथियों ने ठग और लुटेरा कहा तो क्या पिछले 150 सालों तक वे हमारे योद्धा  नहीं रहे?

मानसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तो क्या महाराणा प्रताप हमारे प्रेरक और नायक नहीं रहे? पता करिये कितने लोगों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई में अकबर और मानसिंह से प्रेरणा ली थी?

सफलता ही अगर पैमाना है तो क्यों न जयचंदों और मीर ज़ाफ़रों को राष्ट्रीय नायक घोषित कर दिया जाए? तिलक- गाँधी-अरविन्द -भगत सिंह-नेताजी को कूड़ेदान में डाल सिर्फ़ नेहरू को देश का पहला और अंतिम भाग्यविधाता घोषित किया जाए?

नोट: धन्यवाद! आप ज्ञान के बोझ से दबे मानसिक दलित नहीं हैं तभी आप इस प्रलाप पर ध्यान दे पाये।

'क्या होना चाहिए' बनाम 'क्या संभव है'

इस्लाम और साम्यवाद आतंकवाद के पर्याय क्यों?

सवाल मनुष्य को बदलने का उतना नहीं है जितना कि वह किसी खास देशकाल में जो भी है जैसा भी है उसका कैसे उसकी और समाज की बेहतरी के लिए उपयोग हो। यानी क्या होना चाहिए से ज़्यादा ज़रूरी है यह जानना कि क्या सम्भव है जो पहले से बेहतर है। यह तभी संभव होगा जब मनुष्य के लालच (अर्थ, काम) को उतनी ही स्वीकृति मिलेगी जितनी की उसके कर्त्तव्य और त्याग को (धर्म, मोक्ष)।

मनुष्य को बदल डालने के चक्कर में साम्यवाद और इस्लामवाद दोनों आतंकवाद का पर्याय बन गए हैं जबकि पूँजीवाद हर संकट के बाद और मजबूत होकर उभरता है।

साम्यवाद स्खलित हो चुका है, फेल हो चुका है और भारत के जमे हुए साम्यवादी भारत-विरोधी ताक़तों और देशों के एजेंट बनकर रह गए हैं।जो ईमानदार हैं लेकिन बुद्धिवीर नहीं वे बुद्धिपिशाच और बुद्धिविलासी कॉमरेडों के लिए कामधेनु-भीड़ से ज़्यादा कुछ भी नहीं।

दूसरी तरफ इस्लामवादी पूरी दुनिया में अपनी आख़री लड़ाई लड़ रहे हैं।आज भी उनके हाथ में छठी सदी की तलवार है जबकि जिनको को वे हलाल करना चाहते हैं उनके पास दुनिया भर के ज्ञान-विज्ञान की असीमित ताक़त है।

एक तरफ़ तलवार लेकर खड़े 160 करोड़ साम्यवादी-इस्लामवादी हैं तो दूसरी तरफ़ 600 करोड़ जीवन-वादी जो मनुष्य के सभी नैसर्गिक गुणों को सहज स्वीकार एक बेहतर समावेशी दुनिया बनाने की ज़िद के साथ एक हाथ में ज्ञान की मशाल तो दूसरे में आत्मरक्षार्थ अत्याधुनिक हथियार का रिमोट लिये खड़े हैं।

सवाल यह नहीं है कि जीत किसकी होगी बल्कि सवाल यह है कि यह भीषणतम विश्वयुद्ध कब होगा और उसमें हम कहाँ खड़े होंगे। एक बात जो पक्की है वह यह कि मनुष्य को उसकी नैसर्गिक ताक़त और कमज़ोरियों से विलग करनेवाली तलवार को खण्ड-खण्ड होकर बिखर जाना है।

People as CITIZENS vs people as VOTERS

How best to decipher the REAL character of the unending array of events, issues and ideas claiming to represent the REAL India?

It's really confusing if you find yourself on one or the other end of the political and intellectual spectrum constituted largely of Leftism & Rightism.

However, if you look at every event and the related issue as a challenge in the light of 'who gets what?' and 'who pays the most for it?', the answers are not difficult to find though it requires a lot of courage to accept and even more to put the same in public domain. Yes, courage is the most scarce and dangerous 'commodity' in the market for and by the intellectuals.

Finally, it is all about people as CITIZENS vs people as VOTERS ( ready to bargain for anything unscrupulously through sheer numbers or votebank transactions).

Monday, August 8, 2016

Jai Ho, Dollar God!

Conspiracy against Dalits is as true as the existence of the Weapons of Mass Destruction in Iraq prior to the US attack.
Incidentally, the story of 'Atrocities on Dalits' in India too has US connections.
Jai Ho, Dollar God!

Sunday, August 7, 2016

गाँधी-हत्या के लाभार्थी: घोषित राष्ट्रवादी, काँग्रेसी और अंग्रेज़

एक औसत सरकारी राष्ट्रवादी के डीएनए में क्या है यह जाने बिना असल राष्ट्रवादियों को बड़ी निराशा होगी जैसा कि मोदी जी के कल(6अगस्त 2016) के 'टाउन हॉल' के बाद होता दिख रहा है।

तो एक औसत सरकारी या घोषित राष्ट्रवादी के लक्षण क्या हैं?
आप इन तीन पैमानों पर उसे परखिये यानी यह पता करिये कि वह
1. बुद्धिविरोधी,
2. बुद्धिवंचित या
3. बुद्धिवंचक
या किसी दो का मिलाजुला रूप है कि नहीं?
फ़िर यह पता करिये उसमें किस लक्षण का आधिक्य है। एक बात पक्की है कि वह हर हाल में बुद्धिविलासियों या बुद्धिपिशाचों यानी सेकुलर-लिबरल-कम्युनिस्टों से ईर्ष्या करता है और मन ही मन उनके जैसा बनना चाहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो उसके जैसे लोग अपने बीच के सावरकर जैसे बुद्धिवीरों की विरासत को आगे बढ़ाते न कि सत्ता में आने के बाद वह मूर्खता करते जो वाजपेयी ने एक विदेशमंत्री (1977-80) के रूप में इन्दिरा गाँधी की बलुचिस्तान नीति को मटियामेट करके किया। इसी के बाद पाकिस्तान ने भारत को ख़ालिस्तान और कश्मीर में जबर्दस्त दख़ल का तोहफ़ा दिया था।

इसके मूल में है मानसिक ग़ुलामी जनित बौद्धिक कायरता।भारत इसलिए ग़ुलाम नहीं हुआ था कि यहाँ योद्धाओं की कमी थी, बल्कि इसलिए कि यहाँ के बौद्धिक (सामान्यतः ब्राह्मण ) और श्रेष्ठ (सेठ या बनिया) तबके को कायरता की हद तक अहिंसा का रोग लग गया था। पता करिये कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अविभाजित बंगाल में विद्रोह की अगुआई करनेवाले ज़्यादातर किस समुदाय से आते थे? क्रांतिकारी सामाजिक और धार्मिक आन्दोलन छेड़नेवाले किन समुदायों से आते थे?
विवेकानन्द, अरविन्द घोष, रासबिहारी बोस, नेताजी, राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण सरीखे लोग पारम्परिक बौद्धिक समुदाय (ब्राह्मण) से क्यों नहीं थे?

पिछले दो हज़ार सालों में शंकराचार्य के बाद अखिल भारतीय देसी रणनीतिक सोच रखनेवाला कौन हुआ? गाँधी को छोड़ शून्य बटा सन्नाटा है। बौद्धिक कायरता की हद देखिये कि वे नेताजी का काँग्रेस से निकाला जाना बर्दाश्त कर लेते हैं; उनकी मृत्यु की झूठी ख़बर देनेवाले, संविधान में धारा 370 घुसेड़नेवाले और सेना को चीनी हमले के पहले निःशस्त्र कर देनेवाले नेहरू को सर आँखों बिठाते हैं, लेकिन भारत के लिए लंबा सपना देखनेवाले रणनीतिक दृष्टिसम्पन्न गाँधी के विचारों की हत्या कर डालते हैं।
सो कैसे?

गाँधी हर चीज़ को भारतीय दृष्टि से देखते थे जो तन से भारतीय और मन से ग़ुलाम नेहरू को एकदम पसंद नहीं था।नेहरू की आँखों के काँटा हो गए गाँधी जब उन्होंने कहा कि कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। गाँधी न तन से कायर थे न मन से। भारतीय आभिजात्य की मानसिक ग़ुलामी और बौद्धिक कायरता के मद्देनज़र उन्होंने अहिंसा को एक स्ट्रैटेजिक औज़ार की तरह इस्तेमाल किया था। ऐसा नहीं होता तो 1942 में वे 'करो या मरो' का नारा क्यों देते?

भारत के एक राष्ट्रवादी नाथुराम गोडशे ने
 इस आकाशधर्मी रणनीतिकार की हत्या क्यों की? इसलिए नहीं कि वह कायर था या उसे अपनी जान का डर था बल्कि वह हिन्दू-बौद्धिक कायरता का अप्रतिम उदाहरण था जो जाने-अनजाने अंग्रेज़ों और उनके मानसिक ग़ुलाम पिट्ठू नेहरू के हाथों का खिलौना बन गया क्योंकि वह भी नाक के आगे देखने में असमर्थ था; उसे पाकिस्तान से आती हिंदुओं की लाश तो दिख रही थी लेकिन यह नहीं दिख रहा था कि अंग्रेज़ों और अभिजात वर्ग की मदद से नेहरू भारत और भारतीयता की ही हत्या करने में लगे हैं। इस लिहाज से गोडशे समेत ज़्यादातर राष्ट्रवादी जमात के लोग इस्लामी और बर्तानवी अत्याचार की प्रतिक्रिया में पैदा हुए अन्धविरोधी थे न कि आधुनिक भारत को निर्माण करने की देसी दृष्टि को लेकर आगे बढ़नेवाले नेता।वैसे गोडशे ने तीन ही गोलियाँ चलायी थीं तो चौथी कहाँ से आ गई? यानी गाँधी को मारने का पक्का इंतज़ाम था।

गाँधी की मौत के बाद देसी बौद्धिक राष्ट्रीयता वैसे ही टूअर हो गई थी जैसे आज वह छली गयी महसूस कर रही है। यह समझने के लिए ख़ुद से यह सवाल
पूछिये कि गाँधी की मौत से किसको फायदा हुआ?

1. अंग्रेज़ों को जिनकी रगरग से गाँधी वाकिफ़ थे और जिन्हें अपने मनमाफ़िक टट्टू दल को सत्तानशीन करने का पूरा मौका मिल गया;

2. नेहरू को जिन्होंने अंग्रेज़ों की मदद से अपने प्रतिद्वंदियों को रास्ते से हटाया और काँग्रेस को एक फैमिली बिज़नेस में तब्दील कर दिया(नेशनल हेराल्ड मामले को इसी सन्दर्भ में देखना उचित है);

3. भारत के स्वदेशी उद्योग की जगह कांग्रेस- पोषित चुनिंदा घरानों को जिन्होंने लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने में कांग्रेस की मदद की;

4. सोवियत संघ और चीन के पैसों पर पलनेवाले कम्युनिस्टों को जिन्होंने जेएनयू जैसे शीर्ष शिक्षण संस्थानों पर काबिज़ हो नयी पीढ़ी के मन में भारत और भारतीयता के प्रति गर्व के बदले शर्म की भावना भर दी; और,
5. बुद्धिविरोधी राष्ट्रवादियों को जिन्हें पंजाब और बंगाल से किसी तरह जान बचाकर दिल्ली पहुँचे हिन्दुओं में पैठ बनाने का मौका मिल गया।

सवाल उठता है कि आज़ादी के समय तो ऑफिसियल राष्ट्रवादियों की बौद्धिक कायरता और नेहरू की मानसिक ग़ुलामी ने मिलकर भारत की राष्ट्रीयता का गला घोंटा था लेकिन आज?■

Saturday, August 6, 2016

हिंदुओं में पैदा होने लगे 'मुसलमान'...

भारत में अगर 20 करोड़ की जनसंख्या वाले अल्पसंख्यक मुसलमानों को विशेष अधिकार हैं तो इसका क्रेडिट बहुमत हिंदुओं और उनके हिंदुत्व को जाता है न कि इस्लाम, क़ुरआन या शरीया को।
विश्वास न हो तो पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौद्धों, शियाओं आदि के हाल पर एक नज़र डाल लीजिये।
*
लेकिन पिछले दो सालों में वहाबी-पोषित और पाक-समर्थित मुस्लिम उलेमा ने जो भारत-तोड़क शक्तियों के साथ मिलकर हिंदुत्व पर हल्ला बोला है उसने हिंदुओं में भी 'मुसलमान' पैदा करना शुरू कर दिया है।
*
इन नये-नये बने हिन्दू-मुसलमानों ने अपने 'क़ुरआन-हदीस' के साथ-साथ अपने 'पैग़म्बर' और 'यज़ीद'  की तलाश भी शुरू कर दी है। बाक़ी है तो सिर्फ़ करबला।
*
आप पूछेंगे--इमाम हुसैन कौन?
'हिंदुत्व'।
जितेगा कौन?
'यज़ीद'।
यानी हिन्दू हार जाएँगे?
'हिन्दू नहीं, हिंदुत्व हारेगा।'
फिर यज़ीद कौन?
'वही नया-नया बना हिंदुओं में 'मुसलमान' '।
इसको रोकने का कोई तरीक़ा?
'ये तो ईमानवाले बताएँगे अगर अरब के वहाबियों और उनके पाक आकाओं को मंज़ूर हो तब'।

Your silence is too loud to be ignored, dear educated Muslims!

The loud silence of the educated Muslims over the religiously sanctioned barbaric practices is fast widening the trust deficit between them and the rest globally.
I shudder to think if the CLASH of CIVILIZATIONS is imminent?

Secularism: a quick way to getting rich?

Are secular journos so because they owe their wealth to Secularism?

I
Is there any direct correlation between being a Secular Journo Icon and his/her financial position?
For example, what's is the worth of wealth declared by the follwing secular icons?

a. Barkha Dutt
b. Rajdeep Sardesai
c. Shekhar Gupta
d. Ravish Kumar
II
Do you also find that the Secularism of a journo icon is directly proportional to his or her familial relationship with a political party?
For example , are the aforementioned icons related by blood or marriage to certain political parties?

Note: This is just a hypothesis. You are advised to increase the sample size to reach a conclusion that can be generalized to the whole population.

बलात्कारी जब 'बिहार की बेटी' की बिरादरी के हों!

बलात्कारी जब 'बिहार की बेटी' की बिरादरी के हों!

संता: लश्कले तोयबा की जांबाज़ इशरत जहाँ को बिहार की बेटी कहनेवाले नीतीश कुमार बुलंदशहर में माँ-बेटी के सामूहिक बलात्कार पर चुप हैं?
बंता: बलात्कारी इशरत की ही बिरादरी के थे।
संता: अच्छा तो यह समधियाने का मामला  है!

तहार्रुश यानी एक अरबी 'रेप गेम' ?

तहार्रुश यानी एक अरबी 'रेप गेम' ?

क्या यह सही है कि ईमानवालों ने एक अरबी 'रेप गेम' का ईजाद किया है जिसका नाम है
तहार्रुश?
*
इसमें तीन घेरों में शिकार (काफ़िर लड़की, महिला) को फँसाया जाता है। ये घेरे शांतिदूत नरों के होते हैं।अंदर के घेरे के लोग बलात्कार का खेल खेलते हैं, उसके बाद के घेरे के लोग ताली पीटते हैं और अंतिम यानी सबसे बाहर के ईमानदार लोग यह सुनिश्चित करते हैं कि इस पाक खेल को कोई देख न पाये।
*
कोई चश्मदीद गवाह नहीं तो बलात्कार भी नहीं! अगर शिकायत हुई तो पीड़िता या तो पागल घोषित होगी या झूठी।
*
कोई यह भी कह सकता है कि उसने ईमानवालों को फँसाने के लिये रात के अँधेरे में अपना अपहरण करवाकर ख़ुद ही 'बलात्कार' करवा लिया हो। विरोधी पार्टीवाले तो ईमानवालों को फँसाने के लिए पीड़िता के बाप या पति के सामने ही ऐसा करवा सकते हैं।बस पति या बाप को यह साबित करना होगा कि वे सचमुच दुःखी हैं।
*
सेकुलर सरकार है
समाजवादी सरकार है
ग़रीब-गुरबा की सरकार है
ऊपर से नीचे तक अपनों की सरकार है
तब भी सोशल मीडिया की साज़िश बरकरार है।

Friday, August 5, 2016

लोग भड़कना बंद कर दें तो भड़कानेवाले का क्या होगा?

जनाब असग़र वजाहत ने अपनी वाल पर स्टेटस अपडेट किया है कि कुछलोग फेसबुक पर उनका नाम देखते ही वैसे ही भड़क उठते हैं जैसे लाल कपड़ा देखकर साँड।
*
इससे याद आया कि तारेक फ़तह , तुफैल अहमद , वफ़ा सुल्तान, हसन निसार और हिरसी अली का भी नाम देखते ही कुछ लोग भड़क जाते हैं।
वैसे ही कुछ लोग औरंगज़ेब का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं तो कुछ लोग दारा शिकोह का।
*
भड़कने वाले ये लोग अलग-अलग हैं या एक ही कुल से ताल्लुक रखते हैं?
दोनों का तुलनात्मक अध्ययन कैसा रहेगा?
या यह मान लिया जाये कि भड़कने वालों का क्या, वे तो भड़कते ही रहेंगे?
क्या यह भी हो सकता है कि लोग भड़कना बंद कर दें तो भड़काने वाले की दुकान ही बंद हो जाए?
*
सेकुलर दास ने धीरे से बताया है कि लाल-सलाम वाले तो लाल कपड़ा और साँड दोनों का इंतज़ाम कर देते हैं लेकिन बिना फीस के नहीं।

Thursday, August 4, 2016

नदीम भाई, राम राम!

नदीम भाई,
राम राम। आपकी इच्छा है कि मैं म्यांमार में आतंकवाद पर लिखूँ। मेरी प्रार्थना है कि म्यांमार में आतंकवाद पर आप लिखिये। इतना स्पष्ट है कि वहाँ पर मुसलमानों का कुछ-कुछ वही हाल है जो पाकिस्तान और बाँग्लादेश में हिंदुओं का है लेकिन उतना बुरा नहीं जितना कि अपने ही मुल्क की कश्मीर घाटी में हिंदुओं का।
आपको शायद याद हो कि कश्मीर में जेहादियों की अगुआई में और पड़ोसी मुसलमानों के मूक समर्थन से 1990 के दशक में लगभग तीन लाख हिन्दुओं का जातिनाश हुआ था। म्यांमार पर आपका ध्यान चला गया लेकिन कश्मीर ओझल रहा।
*
जैसे इराक़-सीरिया में आईएस के अत्याचार आपका ध्यान खींच नहीं पाते अगर आप और आईएस हमलों के शिकार लोग शिया न हों लेकिन इस्राइल में हमलावर इस्लामी गुटों पर जवाबी कार्रवाई आपकी निगाह से बच नहीं पाती, वैसे ही मेरी एक व्यक्ति के रूप में निजी सीमाएँ हैं।
*
हालाँकि इन सीमाओं को आप एक हिन्दू की सीमाएँ नहीं कह सकते क्योंकि एक मुसलमान के रूप में आप जो मुद्दे उठाते हैं उसे हिंदुओं का लिबरल-लेफ्ट तबका ख़ूब समर्थन देता है जबकि यही बात मुसलमानों के लिए सच नहीं है।
यानी इस्लामी मुद्दों पर आपको हिंदुओं का साथ ख़ूब मिलता है जबकि हिन्दू मुद्दों पर मुसलमानों का साथ लगभग नदारद रहता है।
इसको आप हिंदुओं की मूर्खता के नाम से जानते हैं जो सही मायने में उनकी ताक़त है जो उन्हें आख़री किताब और आख़री दूत के सिंड्रोम से बचाकर नयापन देती है।
*
तुलसीदास कह गए हैं:
गन अवगुन जाने सब कोई।
जो जेहि भाव निक तेहि सोई।।

जाकि रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति देखि तिन तैसी।।

आपके जवाब की प्रतीक्षा में,
आपका कृपापात्र,
चन्द्रकान्त।

Mn Nadeem

इन तीनों में सर्वाधिक घातक क्या है?

भारत के लिए इन तीनों में सर्वाधिक घातक क्या साबित हुआ है:
1. तुर्क-अफ़ग़ान-मंगोल-ईरानी हमले
2. अंग्रेज़ी ग़ुलामी
3. वामपंथी विचारधारा ?

क्या आपको सेकुलर कहा जाना गाली जैसा लगेगा?

आपमें से कितने ऐसे हैं जिन्हें सेकुलर कहा जाना गाली जैसा लगेगा?
सेकुलर लोगों को बुरहान वानी, अफ़ज़ल गुरु, याकूब मेमन, दाऊद इब्राहिम और कन्हैया कुमार से बेहद लगाव है।

कांग्रेस के परिवारवाद से कम घातक नहीं है भाजपा की बौद्धिक कायरता

कांग्रेस के परिवारवाद से कम घातक नहीं है भाजपा की बौद्धिक कायरता

जिस तरह से कांग्रेस की कमज़ोरी परिवारवाद है उसी तरह भाजपा की कमज़ोरी बौद्धिक कायरता है जो इसके डीएनए में है। आज भारत में जो कुछ पाकिस्तान कर पा रहा है उसकी बड़ी वजह है जनता पार्टी की सरकार के जनसंघी विदेशमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के निर्देश पर पाकिस्तान से अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे बलूचियों को मिल रही भारतीय सहायता का बंद हो जाना।
*
जिस तरह लड़क भुरभुर में अंतरराष्ट्रीय नेता बनने के चक्कर में नेहरू कश्मीर मामले को बिलावजह संयुक्त राष्ट्रसंघ ले गए उसी तरह वाजपेयी ने बलूचों को मिल रही सहायता बंद करवाकर पाकिस्तान से PoK खाली करने के बजाय उसे पंजाब में ख़ालिस्तान आन्दोलन को खड़ा करने और बाद में कश्मीर घाटी में पैठ बढ़ाने का समय और हौसला दे दिया।
*
कश्मीर पर नेहरू की बचकानी हरकत से हुये नुकसान को इन्दिरा गाँधी ने पाकिस्तान को बाँटकर कम किया और वो बलुचिस्तान को स्वतंत्रता दिलाकर पाकिस्तान की कमर तोड़ने में सक्षम हो जातीं।लेकिन बीच में आ गए जनता पार्टी सरकार के कवि ह्रदय विदेशमंत्री वाजपेयी।
*
जिस वीपी सिंह की सरकार के दौरान कश्मीरी पण्डितों को भगाया गया उस सरकार को भी भाजपा का समर्थन था।
भाजपा की बौद्धिक कायरता के पीछे हिन्दुओं की हज़ारसाला ग़ुलामी और फिर उससे पैदा हुई मानसिक ग़ुलामी है जो इसकी राष्ट्रीयता पर भी भारी पड़ जाती है।
*
इसी बौद्धिक कायरता का ताज़ा उदाहरण है बदजुबान बसपा नेता के सामने निस्सहाय होना। अन्य मिसालें हैं:
1980 में जनसंघ के नये अवतार भाजपा से डॉ सुब्रमण्यम स्वामी को अलग करना(स्वामी को आपातकाल के दौरान जनसंघ ने राज्यसभा का सांसद बनाया था), 1990 के दशक में अप्रतिम रणनीतिकार और स्वतंत्रचेता गोविंदाचार्य को पार्टी से बाहर निकालना, जनाधार वाले पिछड़े नेताओं उमा भारती और कल्याण सिंह को बर्दाश्त नहीं कर पाना और  2002 के गुजरात दंगों के बाद मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए वाजपेयी का राज़ी हो जाना।
*
यहाँ यह कहना जरूरी है कि वाजपेयी जी के प्रिय नेता थे नेहरू।

सेकुलर खाल में जेहादी?

क़ुरआन-हदीसों के हवाले से आईएस-अलक़ायदा-तालिबान सरीखे संगठनों का कहना है कि 160 करोड़ मुसलमानों की जिम्मेदारी है कि वे शेष बचे 600 करोड़ ग़ैर-मुसलमानों को या तो मुसलमान बना दें या उनका क़त्ल कर दें।अगर यह सही है तो पूरी दुनिया में क़तलोगारत की जड़ में यही बात है।
*
लेकिन क़ुरआन-हदीसों के हवाले से इसे ग़लत साबित करनेवाले भी खुलकर अपनी बात कहें और आईएस के संदर्भो को झूठा करार दें।
*
अगर आईएस के सन्दर्भ सही पाये गए तो क्या सुशिक्षित और सभ्य मुसलमान यह कहने की हिम्मत जुटा पाएँगे कि वे गैर-मुसलमानों के प्रति नफ़रत भरने या हिंसा के लिए कौल देनेवाले किसी भी सन्दर्भ को नहीं मानते।
*
ये सन्दर्भ हैं:
काफ़िर वाजिबुल क़त्ल
क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह
जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह
दारुल हरब
दारुल इस्लाम
ग़ज़वा-ए-हिन्द
जिहाद
*
अगर सुशिक्षित-सभ्य मुसलमान अब भी अपनी चुप्पी नहीं तोड़ते हैं तो इसका मतलब यह निकलेगा कि वे भी मन से आईएस के साथ हैं, सेकुलर खाल में जिहादी हैं और वे तभी तक चुप हैं जबतक ग़ैर-मुसलमान उनसे मजबूत हैं और  इस्लामी जिहाद की सच्चाई से अनभिज्ञ हैं।

नोट: श्री तुफैल चतुर्वेदी की पोस्ट से प्रेरित।

क्या जनता हमेशा सही होती है ?

अगर जनता हमेशा सही होती है तो
हिटलर और मुसोलिनी को अपने-अपने देश की जनता का ही नहीं बल्कि यूरोप के बड़े हिस्से का समर्थन था।ऐसे में लाखों लोगों को मौत के घाट उतारनेवाले इन तानाशाहों का विरोध करनेवाले भी एक तरह के मानसिक विकृति के शिकार कहे जाएँगे? बोले तो सेकुलर-वामी-इवांजेलिस्ट-इस्लामिस्ट ब्रिगेड!
*
असल में 'लालू और लालू की जनता' के लिए ज़ार-ज़ार रोने वाले भी फ़ासिस्ट की परिभाषा पर एकदम खड़े उतरते हैं बस अंतर यही है कि ये 'सेकुलरिज़्म की खाल' ओढ़े हुए जिहादी हैं वैसे ही जैसे हिटलर भी सोशलिज्म की खाल ओढ़ कर फ़ासिस्ट बना था।
*
ऐसी  बौद्धिक कायरता और मानसिक ग़ुलामी सिर्फ़ इस्लामी देशों में पाई जाती है जहाँ 'अंतिम किताब और अंतिम पैग़म्बर ' के आधार पर समाज और सत्ता चलती है।
*
गुँजन सिन्हा जी, आपकी एक-एक पोस्ट खँडहर होते वर्तमान और विकृत होते भविष्य की दास्तान है।आज बिहार के लिए आप वही दस्तावेज़ तैयार कर रहे हैं जो 1960-70 के दशक में महाश्वेता देवी ने बंगाल के लिए किया था।आपको शत-शत नमन।

जब नागार्जुन को नहीं छोड़ा तो नामवर को कैसे बख्श देते?

कम्युनिस्टों ने जो सलूक राहुल-बाबा नागार्जुन-रामविलास शर्मा के साथ किया वही नामवर सिंह के साथ भी किया...
बधाई हो डॉ नामवर सिंह जी!
*
एक ज़माने में महान इतिहासविद्-साहित्यकार-घुमक्कड़ बहुभाषी महापंडित त्रिपिटिकाचार्य राहुल सांकृत्यायन को कम्युनिस्ट पार्टी ने संगठन से निकाल दिया था...
*
उसी पार्टी के एक सदस्य(अब दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर) ने बाबा नागार्जुन के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया था कि वे पार्टी लाइन से हटकर साहित्य-सृजन कर रहे हैं...
*
उसी कम्युनिस्ट पार्टी की पहल पर बाकी सेकुलर-वामी गिरोह ने नामचीन आलोचक डॉ रामविलास शर्मा के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी कर उनपर भगवाकरण का आरोप लगाया जब वे वेदों और भारतीय भाषाओं पर नितान्त मौलिक उद्भवनाएं दे रहे थे...
*
और एक कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक संघ ने हिंदी के सर्वाधिक चर्चित वामपंथी आलोचक डॉ नामवर सिंह से उस दिन अपने को असम्बद्ध घोषित किया जिसके अगले दिन (28.7.2016) वे अपने जीवन के 90 वर्ष पूरे कर रहे थे और उनके सम्मान में इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने एक गोष्ठी का आयोजन किया था।
*
सवाल है आज भारत के वामियों की टीक कहाँ गड़ी है? कल तक अमेरिका को पानी पी पीकर गाली देनेवाले वामियों को किसी-न-किसी अमेरिकी संस्था से अनुदान मिलता है और वहाँ के विश्वविद्यालयों में उनके बाल-बच्चे स्थापित हैं।क्या यह पैसा अमेरिका को गाली देने के लिए मिलता होगा?
हाँ, ऊपर-ऊपर से अमेरिका-विरोध और अंदर से जयचंदी कार्यों के लिए। विश्वास न हो तो पता लगा लीजिये कि जेएनयू के अलावा कहाँ-कहाँ देशभक्ति के नारे लगे थे:
'भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह इंशाल्लाह...'?

भक्ति बनाम गद्दारी आंदोलन

आज जो कोई देशहित की बात करता है उसे 'भक्त' करार दे दिया जाता है। बात भी सही है नहीं तो इस्लामी हमलों के दौरान कबीर-मीरा-नानक-तुलसी की अगुवाई में चले आन्दोलन को भक्ति आन्दोलन नहीं कहा जाता।
*
लेकिन इतिहास में कभी 'गद्दारी आन्दोलन' भी चला था क्या जैसे आज अफ़ज़लप्रेमी गिरोह टीवी और अखबारों की मदद से चला रहा है?

मैं सांप्रदायिक हूँ क्योंकि मैं राष्ट्रवादी हूँ

मैं सांप्रदायिक हूँ
क्योंकि
मैं राष्ट्रवादी हूँ।
और आप?
*
मैं सांप्रदायिक हूँ
क्योंकि
मैं हिन्दू हूँ।
और आप?
*
मैं सांप्रदायिक हूँ
क्योंकि
मेरे सांप्रदायिक देश में
तीन सुपरस्टार हैं:
ख़ान, ख़ान और ख़ान
जो एकदम सेकुलर हैं।
और आप?
*
मैं सांप्रदायिक हूँ
क्योंकि
................................
(आपको जो भाये यहाँ लिख दीजिये)।
और आप?
*
मुझे गर्व है
कि मैं साम्प्रदायिक हूँ।
और आपको?

वैधानिक चेतावनी: सेकुलराइटिस के मरीज़ को इस पोस्ट से ब्रेन हैमरेज का ख़तरा।

Secularism vs Sanatan

Palanivelu Rangasamy:
Do you think Secularism is something external to Sanatan Dharma?

Ans: Sanatan precedes Secularism by millennia ; Sanatan is a positive concept while Secularism is negative; Sanatan is inclusive while Secularism is exclusive; Sanatan is duty-based while Secularism is religion-based; and, Sanatan is in the DNA of India while Secularism is external to Indian Mind but integral to mentally slave copy cat intellectuals.

भारत का विभाजन क्यों हुआ?

भारत का विभाजन क्यों हुआ?

संता: भारत का विभाजन क्यों हुआ?
बंता: ज़्यादातर ईमान वालों को डर था कि कहीं उनके साथ वैसा ही सलूक न होने लगे जैसा कि काफ़िरों के साथ सैकड़ों साल तक होता रहा था।
संता: लेकिन नये देश का नाम पाकिस्तान क्यों पड़ा?
बंता: क्योंकि 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ' वाले अल्लामा इक़बाल की अंतिम तमन्ना थी:
'हो जाए ग़र शाहे ख़ुरासान का ईशारा
सज्दा न करूँ हिन्द की नापाक ज़मीं पर'।

Wednesday, August 3, 2016

जनाब अब्दुल मबूद ने फ़रमाया है

जनाब अब्दुल मबूद ने फ़रमाया है:
झूठा और अँधा राष्ट्रवाद आतंकवाद की जननी है।

मेरा जवाब:
सही फ़रमाया। 'आँख' की खेती तो दास कैपिटल और क़ुरआन-हदीसों में होती है जो राष्ट्रवाद-विरोधी हैं, अंतरराष्ट्रीय हैं। अंध-राष्ट्रवादी हिटलर ने 40 लाख को मौत के घाट उतारा, अंतरराष्ट्रीय स्टालिन-माओ ने 6 करोड़ को और उसके पहले से दारुल इस्लाम की चाहत रखनेवालों ने 1400 सालों में इन सबको पीछे छोड़ दिया क्योंकि नरसंहार के बाद हरेक के लिए 72 हूरों और दरया-इ-दारु वाली ज़न्नत की सुपारी सिर्फ़ यहीं ली और दी जाती है।

नायक वही जो यहाँ चार वहाँ 72 दिलाये

नायक वही जो ख़ून की नदी बहाये
नायक वही जो 'पाकिस्तान' बनाये
नायक वही जो नारी को सिर्फ़ मादा बनाये
नायक वही जो यहाँ चार वहाँ 72 दिलाये ?
*
कहते हैं किसी भी समुदाय, समाज या देश की असली पहचान उसके नायकों से होती है। ऐसे में भारत के मुसलमानों के नायकों पर एक नज़र डालना कैसा रहेगा?
*
कौन हैं ये नायक?
बिन क़ासिम, मोहम्मद ग़ोरी, ग़ज़नी, सिकंदर लोदी, बख़्तियार ख़िलजी, तुग़लक़, औरंगज़ेब, नादिरशाह, जिन्ना, ओसामा बिन लादेन, मुल्ला उमर, बग़दादी, हाफ़िज़ सईद, दाऊद इब्राहिम, याकूब मेमन, अफ़ज़ल गुरु, ज़ाकिर नाइक और बुरहान वानी।
*
लेकिन इसी देश में मुल्ला दाऊद, रहमान, बाबा फरीद, बाबा बुल्लेशाह, हब्बा ख़ातून, सलीम चिस्ती, कबीर, जायसी, रहीम, रसख़ान, दारा शिकोह, मीर, नज़ीर, ग़ालिब, ज़फ़र, नज़ीबुल्ला, अशफ़ाक़ुल्ला, मौलाना आज़ाद और अब्दुल कलाम जैसे लोग हो गए जिनके रोम-रोम में प्रेम बसा था, त्याग बसा था, भारत की मिट्टी की खुशबू थी, और जिन्होंने इसी दुनिया को स्वर्ग बनाने के लिए अपना जीवन होम कर दिया।
*
इन लोगों ने इस्लामी हमलावरों के अत्याचारों के बरअक्सस आम मुसलमानों के लिए बाकियों के मन में सम्मान और सद्भाव की नदी बहाई। ऐसा नहीं होता तो 1857 के संग्राम के दौरान हिन्दू बहुल फ़ौज़ी बूढ़े और अशक्य बहादुरशाह ज़फ़र को अपना राजा घोषित नहीं करते।
*
लेकिन 20वीं और 21वीं सदी के पढ़े-लिखे मुसलमानों ने अपने ऋषि पूर्वजों की बहाई प्रेमगंगा की जगह दारुल इस्लाम के नख़लिस्तान को चुना; सर्वमत समभाव वाले भारत की जगह इस्लामी राज्य पाकिस्तान बनाया तथा संतों-दरवेशों की जगह आततायी- नरसंहारी हमलावरों, शासकों और कठमुल्लों को अपना नायक बनाया।
*
आज उनका दिलोदिमाग अरबोईरान में प्रवाहित ख़ून की नदियों से आप्लावित है, मानों कह रहा हो 'धरती पर कहीं स्वर्ग है तो वहीं है, वहीं है'।
और उनपर फ़र्ज़ है कि शेष दुनिया को भी वैसे ही स्वर्ग में बदल डालें।
*
आश्चर्य नहीं कि यूरोप और अमेरिका में एशियाई-अफ़्रीकी मूल के ईमानवाले और  ताज़ा-ताज़ा गये इराक़ी-सीरियाई शरणार्थी इस फ़र्ज़ को निभा रहे हैं।ऑरलैंडो-नीस-ब्रुसेल्स-पेरिस के शांत्याकांक्षी (शांति+आकांक्षी) हमले इसके चंद उदहारण हैं।एशिया में यही काम पेट्रो डॉलर और पवित्र किताब के पवित्र गठजोड़ से हो रहा है।बाली-काबुल-कांधार-पेशावर-बलुचिस्तान-कश्मीर-दिल्ली(संसद)-मुम्बई इसके गवाह हैं।

बुद्धियोद्धा नामवर सिंह बनाम बुद्धिविलासी वामपंथी



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भारत का ऑफिसियल राष्ट्रवादी तबका या तो बुद्धिविरोधी है या वुद्धिवंचित।
दूसरी तरफ़ सेकुलर-वामपंथी-लिबरल गिरोह
बुद्धिविलासी है या बुद्धिपिशाच।
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लेकिन मानसिक ग़ुलामी के शिकार दोनों हैं, हीनभावना से ग्रस्त दोनों हैं। इसलिये दोनों ही बौद्धिक कायरता के अप्रतिम उदहारण हैं।
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पर साथ ही दोनों तरफ़ कुछ बुद्धिवीर भी हैं जो वाद-विवाद-संवाद में विश्वास रखते हैं। ऐसे ही लोगों के कारण केंद्र सरकार के अधीनस्थ 'इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र' ने हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित आलोचक और भारतीय चिंतक नामवर सिंह के 90 साल के होने पर उनके सम्मान में 28 जुलाई को एक कार्यक्रम किया जिसका , ज़ाहिर है, बुद्धिविरोधी और बुद्धिविलासी दोनों तबके ने विरोध किया।
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अब उस आयोजक संस्थान के अध्यक्ष श्री
रामबहादुर राय और सचिव डॉ सच्चिदानंद जोशी को उनकी बुद्धिवीरता के लिए धन्यवाद देना तो बनता है न?
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आदरणीय डॉ नामवर सिंह इसी तरह बुद्धियोद्धा की मानिंद बुद्धिविरोधियों और बुद्धिविलासी- बुद्धिपिशाचों के कलेजे पर मूँग दलते हुए शतायु हों, ईश्वर से यही प्रार्थना है।
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मोबाइल -इंटरनेट पर सवार मध्यवर्ग

भारत का 35 करोड़ मध्यवर्ग मोबाइल-इंटरनेट पर सवार है जबकि राजनीतिक पार्टियाँ, नौकरशाही और न्यायपालिका मन से टीवी-अख़बार पर।

अपराध, अपराधी और पीड़ित की जाति में संबंध: कुछ सेकुलर सवाल



1. क्या जाति बता देने से बलात्कार की शिकार महिला की पीड़ा कम हो जाती है?

2. क्या बलात्कारी की जाति बता देने से उसका अपराध बढ़ जाता है और उसके भविष्य में अपराध नहीं करने की संभावना बढ़ जाती है?

3. अगर ऐसा है तो इसका कोई वैज्ञानिक आधार होगा।किस देश के किस वैज्ञानिक ने यह खोज की?
4. चूँकि बात वैज्ञानिक है तो यह हर जाति के लोगों पर लागू होगी?

5. इसलिए बलात्कार के हर मामले में पीड़िता और आरोपी की जाति सार्वजनिक क्यों नहीं की जानी चाहिये?

6. क्यों न हर तरह के अपराधियों की जाति सार्वजनिक की जाए ताकि अपराधी की जाति और अपराध के बीच का वैज्ञानिक संबंध उजागर हो सके?

7. वैसे भी क्या यह अम्बेडकरी संविधान की मूल भावना(बराबरी) के ख़िलाफ़ नहीं है कि बलात्कार या अन्य अपराधों में पीड़िता-पीड़ित की जाति का खुलासा तभी करें जब वह दलित या 16 % आबादी वाला अल्पसंख्यक यानी मुसलमान हो?

8. इस लिहाज से क्यों न बुलंदशहर में माँ-नाबालिग बेटी से सामूहिक बलात्कार काण्ड को एक मिसाल के तौर पर पेश करते हुए पीड़िताओं और आरोपियों की जाति का खुलासा कर दिया जाए?
9. क्यों न उन टीवी चैनलों-अख़बारों को पुरस्कृत किया जाए जो पीड़िता और आरोपी की जाति-मजहब खोजकर लाएँ?

नोट:  इस मामले में पत्रकारिता के नायक-नायिकाओं से बहुत उम्मीद है, खासकर बरखा दत्त, रवीश कुमार, राजदीप सरदेसाई, शेखर गुप्ता और ओम थानवी से।

Wahabis, Missionaries and India

Q1 Why is India a challenge to Wahabi Arabs and largely Christian Europeans?
Q2 Why do they fund Exclusion Studies and Divisive Projects in India?

A:
Arabs speak one language, have one religion but are divided into 20 plus countries mostly at odds with each other; most of Europe has one religion but is divided into over two dozen countries; but India is one despite over half a dozen religions , innumerable Faiths, thousands of languages and equal number of subcultures.
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No wonder the Arabian and European missionaries as well as governmental
institutions fund Exclusion Studies and Divisive Projects in India to bring India at par with them.This has become blatantly clear during the last ten years.
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Despite these foreign interventions, it appears unlikely that India will succumb to their designs, thanks to the Inclusive Hindu Dharma that gives primacy to Duties as opposed to the Rights primed by Exclusive Semetic Religions.
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Also, to better understand this, you should apply some quantitative tools to measure inclusivness and divisiveness such as 'X amount of divisiveness per one lakh population' and apply the same to reach comparative figures between India and any other country of your choice.

भक्ति आन्दोलन जो मोबाइल और इंटरनेट पर सवार है

हज़ार साल पहले जब इस्लामी हमले और अत्याचार शुरू हुए तो दक्षिण भारत से आई भक्ति ने आन्दोलन का रूप ले लिया।सामाजिक-राजनैतिक अनाचार से मुक्ति के लिए भक्तों ने सिर्फ़ भगवान का सहारा लिया, मुल्ले-पंडितों को दरकिनार करते हुए। कबीर ने तो ख़ुद को 'राम का कुत्ता' कहा जिसका काम था राम-प्राप्ति के रास्ते के जंजालों को काट-काटकर साफ़ करना।
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देश में आज भी एक भक्ति आन्दोलन चल रहा है जो मोबाइल और इंटरनेट पर सवार है जिसका सर्वाधिक विरोध वे लोग कर रहे हैं जो टीवी-अख़बार से चिपके हैं।
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कौन हैं ये लोग?
इस्लामी हमलावरों से इनका कोई गुणसूत्र मिलता है क्या?
कौन है आज का 'राम' जिसकी भक्ति ने हज़ार साल बाद फ़िर आन्दोलन की ज्वाला भड़का दी है?
कौन है 'राम का कुत्ता' और क्या हैं उसके रास्ते के जाल-जंजाल?
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इन सवालों के जवाब तलाशने की हिम्मत सिर्फ़ और सिर्फ़ सोशल मीडिया के बुद्धिवीर कर सकते हैं, बुद्धिविरांगनाएं कर सकती हैं... विश्वविद्यालयों में महंती कर रहे मानसिक ग़ुलामी जनित बौद्धिक कायरता के जीवंत कारीगर प्रोफेसर नहीं।

About Crime, Caste and Religion...


Assuming one incident of crime a day for a population of 20 thousand, what could be the total number of crimes every day in India ?
About 62500 !
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This means, in all probability, people belonging to each caste and religion will figure in both the categories: those who commit crimes and those who are victims of these crimes.
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So what is the real challenge? Naming the caste of victims if they happen to be Dalits and Muslims only?
Or looking at the share of each Caste and Religion or Dharma in the total number of crimes over a period of time, say 100 years (to establish any credible relationship between caste/religion/faith on the one hand and the crime on the other) ?
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In the latter case, it is possible to identify and contrast the past and the present  trends in crimes;  and, so also predict the future trends and accordingly take appropriate preventive measures.
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If the caste of victim has to be mentioned in case of he/she being a Dalit or a Muslim only, there would hardly be a day when a dalit or a Muslim is not a victim of one or the other crime.The same applies to all castes, religions or faiths because the total number of crimes committed every day is very large in a country with a huge population, 125 crore(1250 million).
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In view of this, will it not be appropriate to disclose the caste of the alleged perpetrator of a crime as well as of the victim irrespective of the latter is Dalit/Muslim or not?

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