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Sunday, May 31, 2020

विश्व-वैचारिकी का उपनिषद् काल: विचारनाला बनाम दृष्टियाँ

जैसे मिलावटी दूध पीने के आदती व्यक्ति का हाजमा शुद्ध दूध ग्रहण करने से ख़राब हो जाता है वैसे ही आत्महीनता के शिकार मानसिक ग़ुलामों को मौलिकता से कब्ज़ होना स्वाभाविक है। यह बात भारत के अधिसंख्य स्थापित बुद्धिजीवियों पर लागू है, चाहे वे वामपंथी हों या दक्षिणपंथी।
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जहाँ मौलिकता का अभाव दोनों ही 'पंथियों' में समान है, वहीं दोनों की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ भी हैं: वामपंथी बुद्धिविलासी होता है जिसकी बुद्धि के अंडे से अंडा ही निकलता है, चूजा नहीं। ऐसा इसलिए कि वह तर्क के लिए तर्क करता है न कि किसी समस्या के समाधान के लिए। असल में वह तर्क से वहाँ भी समस्या पैदा करने में दक्ष होता है जहाँ समस्या नहीं होती। इसके बरक्स दक्षिणपंथी निर्विवाद रूप से बुद्धिविरोधी होता है भले ही उसे बुद्धिजीवी कहलाये जाने की सनक क्यों न हो। इसी सनक में वह नितान्त दैन्यभाव से वामपंथियों का स्थूल विरोध करता रहता है। उसकी दीनता के मूल में है वामपंथी समूह से बौद्धिकता के प्रमाणपत्र की लालसा। इस प्रमाणपत्र के लिए वह अपने घोषित स्टैंड से इतर भी कोई काम करने को सदैव तत्पर रहता है।
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इस बात को  समझने के दो रास्ते हैं। पहला, आप खुद से यह सवाल करें कि आपकी समझ 'डाटा-निसृत नैरेटिव' (Data-led Narrative) पर आधारित है या 'नैरेटिव-निर्दिष्ट डाटा' (Narrative-led Data) पर?  दूसरा यह कि आप जिस किसी Ideology (विचारनाला) के प्रति जिस किसी कारण से समर्पित हैं, उसने भारत को भारत की निगाह से देखने के लिए कितनी मौलिक अवधारणाएँ दी हैं?
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उपरोक्त दोनों ही मानकों पर मुझे भारत के बौद्धिक जगत में स्वीकृत सभी विचारनालों (न कि विचारधाराओं) के पैरोकार उन ईसाई मिशनरियों के छद्म-शोध के भोंपू मात्र (सेकुलर-वामपंथी) या फिर उसके शिकार (दक्षिणपंथी) लगते हैं जिनका उद्देश्य ही पूरी दुनिया को ईसाई बनाना है न कि तथ्याधारित सत्य की खोज।
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अब चूँकि वामपंथियों का भी मूल उद्देश्य लोगों को कम्युनिस्ट बनाना होता है न कि तथ्याधारित सत्य की खोज, इसलिए शोध-प्रक्रिया की दृष्टि से ईसाई मिशनरियों और वामपंथियों में एक अद्भुत समानता भी है। सवाल है कि यह समानता क्या है? तो समानता यह है कि स्थापित सत्य को नकारने के लिए दोनों ही 'अपवाद को मुख्यधारा' (Exception as Mainstream) और 'मुख्यधारा को अपवाद' (Mainstream as Exception) साबित करने की थेथरई करते हैं। बेचारे बुद्धिविरोधी दक्षिणपंथी इस थेथरई के सामने खुद को अक्सर निरुपाय महसूस कर मन-ही-मन बुद्धिविलासी वामियों की प्रशंसा करने लग जाते हैं। यही वजह है कि वामियों के प्रति उनमें Love-Hate वाला भाव देखा जाता है यानी प्रेम और घृणा साथ-साथ।
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इस स्थिति को वामपंथियों के संदर्भ में दक्षिणपंथी समूह का स्टॉकहोम सिंड्रोम भी कह सकते हैं। लेकिन पश्चिमी वामपंथी बुद्धिजीवियों के संदर्भ में भारत के वामपंथियों का भी यही हाल है यानी कि वे भी स्टॉकहोम सिंड्रोम से ग्रस्त हैं। वस्तुतः भारत के किसी भी स्थापित विचारनाला (Ideology) के बुद्धिजीवियों की स्थिति उस महिला की तरह है जो उस व्यक्ति से अपने चरित्र का प्रमाणपत्र चाहती है जो न जाने कब से उसका यौन-शोषण करता रहा है!
पहले इनको लेकर कोफ़्त होती थी लेकिन अब वे दया के पात्र लगते हैं: अपनी जड़ों से कटे मूर्ख नायक! हाँ, इन बुद्धिजीवियों के मानस-पिता मैकाले ने उनके बारे में ठीक यही कहा था: STUPID ALIEN PROTAGONIST.
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चुनौती यह है कि उपरोक्त मकड़जाल से कैसे निकला जाए? इससे मुक्ति भले ही बहुत मुश्किल है लेकिन असंभव नहीं। आप पूछेंगे, कैसे संभव है? तो ऐसे संभव है कि चाहे जिस किस 'विचारनाला' से आप संबंधित हों, 'डाटा-निःसृत नैरेटिव निर्माण' के पथ से न भटकें चाहे 'नैरेटिव-निर्दिष्ट डाटा संकलन' के जो भी फायदे ऑफर किए जाएँ। इसी से जुडी एक सावधानी भी है कि सिर्फ तर्क के लिए तर्क करने या कमी निकालने के लिए कमी खोजने की बीमारी से बचें जो आपसे 'मुख्यधारा को अपवाद' और 'अपवाद को मुख्यधारा' साबित करवाने का अकादमिक पाप करवाती है। ये सावधानियाँ आपको बुद्धिविलासी और  बुद्धिविरोधी के बजाय बुद्धिवीर, बुद्धियोद्धा या बुद्धिवीरांगना की ऊँचाई प्रदान करेंगी।
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सनद रहे कि सदियों से दुनिया पर जिन दो विचारनालों का दबदबा रहा है वे हैं: ईसाइयत और इस्लाम। इन्हीं दोनों का आधुनिक रूप है कम्युनिज़्म। इन तीनों विस्तारवादी और कब्ज़ावादी विचारनालों में से प्रत्येक का दावा रहा है कि देश-दुनिया के हर सवाल का जवाब उसी के पास है और बाक़ी सब निरर्थक हैं। लेकिन इन विचारनालों और उनके दावों को अब संचार टेक्नोलॉजी में आई क्रान्ति से जबर्दस्त चुनौती मिल रही है। इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया पर सवार युवा वर्ग इन तीनों की बर्बरताओं और सभ्यता-संस्कृति विरोधी नीतियों के बारे में अब पहले से कहीं ज़्यादा विश्वसनीय डाटा से लैश है। इतना ही देश-दुनिया की समस्याओं के न सिर्फ आजमाये समाधानों बल्कि कई वैकल्पिक संभावित समाधानों (Perspectives) के डाटा से भी युवा वर्ग लैश है जिस कारण वह धीरे-धीरे उपरोक्त विचारनालों (Ideologies) के चँगुल से भी मुक्त हो रहा है।
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समय पर उपयुक्त डाटा उपलब्ध हो जाने के कारण एक ही समस्या के देश-काल के अनुसार वैकल्पिक समाधान भी सामने आ रहे हैं। इसका यह भी अर्थ हुआ कि हम विचारनाला के दौर (Age of Ideology) से निकलकर अब 'दृष्टियों के गुच्छ' (Bouquet of Perspectives) के दौर में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ वैकल्पिकता की प्रधानता होगी जो ताज़ा विचारों की धारा (विचारधारा) को अबाध  प्रवाहित होने की भूमि तैयार करेगा। आप चाहें तो इस नयी स्थिति को  'विश्व-वैचारिकी का उपनिषद् काल' भी कह सकते हैं।
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यहाँ यह ज़ोर देकर कहना जरूरी है कि वैचारिकी के उपनिषद् काल को संभव बनाने में संचार-माध्यमों की टेक्नोलॉजी और संचार की प्रक्रिया में आए मूलभूत परिवर्तन की अहं भूमिका है। जब जनसंचार माध्यमों (Mass Communication Media) जैसे अख़बार, रेडियो, टीवी आदि का दौर था तो 'एकतरफा जनसंचार' होता था जिसमें आग्राहक (Audience) की कोई ख़ास भूमिका नहीं होती थी। बहुत खर्चीले होने के कारण इन माध्यमों पर चुनिंदा लोगों का कब्ज़ा था और इनका राजनीतिक इस्तेमाल भी आसान था।
लेकिन इंटरनेट-मोबाइल पर सवार सर्वसुलभ सोशल मीडिया के कारण आज अकेले भारत में 45 करोड़ से अधिक लोग एक साथ प्रकाशक और आग्राहक दोनों की भूमिका निभा रहे हैं। इतना ही नहीं, वे एकतरफा जनसंचार (Mass Communication) से 24x7 'गहन अंतर्वैयक्तिक संचार' (Massive Interpersonal Communication) के दौर में प्रवेश कर गए हैं जो अंतर्क्रियात्मक (Interactive) होने के कारण विश्वसनीय होता है और इस प्रकार डाटा के तत्क्षण (Real Time) उपलब्ध होने के कारण समय रहते निर्णय लेने की क्षमता भी प्रदान करता है। चूँकि विश्वसनीय डाटा के त्वरित आदान-प्रदान की सुविधा अब करोड़ों लोगों को उपलब्ध है, इसलिए कुछ ख़ास स्वघोषित बौद्धिक लोगों के प्रेस्क्रिप्शन पर उनकी निर्भरता लगभग गौण हो गई है।
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संचार टेक्नोलॉजी और प्रक्रिया में आये क्रांतिकारी परिवर्तन ने सिर्फ समस्यायों के समाधान की वैकल्पिक दृष्टियों को ही संभव नहीं बनाया है बल्कि सत्ता संस्थान (Establishment ) के विभिन्न अंगों यथा विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और शिक्षण संस्थाओं के कार्यों और उनके कार्य-निष्पादन की गति को लेकर नित्य नयी-नयी बहसों को भी जन्म देना शुरू कर दिया है। इसमें एक तरफ़ वे चुनिंदा अभिजात लोग हैं जो प्रिंट-रेडियो-टीवी नियंत्रित एकतरफा और अत्यल्प सूचना तक अपनी पहुँच के कारण सत्ता संस्थान पर कब्ज़ा जमाये बैठे थे तो दूसरी तरफ़ इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया पर सवार करोड़ों लोग हैं जिन्होंने सत्ता संस्थान पर काबिज़ अभिजात वर्ग के सूचना के एकाधिकार और उस एकाधिकार से पैदा हुए आभिजात्य की पोल खोलकर रख दी है।
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उपरोक्त पोलखोल के कारण दुनिया में ऐसे-ऐसे लोग अपने देशों के शासनाध्यक्ष बन कर उभरे हैं जिनके बारे में सत्ता संस्थान में जमे लोगों को अनुमान तक नहीं था। इसके उदाहरण हैं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प। यह आकस्मिक नहीं है कि इन देशों में सत्ता संस्थानों और सरकारों के बीच छत्तीस का रिश्ता है। सत्ता संस्थान के विभिन्न अंग अभी भी इस बदली हुई स्थिति को स्वीकारने से इंकार कर रहे हैं क्योंकि सरकार के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया के द्वारा सीधे जनता से संवाद स्थापित कर जरूरी डाटा हासिल कर लेता है और इस डाटा के आधार पर जनहित में त्वरित फैसले लेने में समर्थ हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार की पारम्परिक सत्ता संस्थान पर निर्भरता न्यूनतम हो गई है जिस कारण न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, मीडिया और शिक्षा संस्थाओं में दशकों से जमे अभिजात वर्ग में तिलमिलाहट है।
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सत्ता संसथान और सरकार के दरम्यान बढ़ती दूरी का एक कारण वैश्विक जिहाद के सामने वोटबैंक केंद्रित लोकतांत्रिक व्यवस्था की बेपर्दा होती अक्षमता भी है। इस अक्षमता के विरोध में दुनियाभर के लोकतांत्रिके देशों में राष्ट्रीयता का उभार हो रहा है जिस कारण ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता की बागडोर दी जा रही है जो जिहाद की चुनौती से निपटने के लिए तानाशाहों की तरह फटाफट फ़ैसले ले सकें। फटाफट फ़ैसले लेनेवाले ऐसे राष्ट्रनिष्ठ प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति भी सत्ता संस्थान को रास नहीं आ रहे  और वह राष्ट्रनिष्ठ और राष्ट्रहित विरोधी ताक़तों में टकराव के कारण पैदा हो रही गृहयुद्ध की स्थिति को और हवा दे रहा है। जाहिर है कि वैश्विक जिहाद (Global Jihad) से निपटने में वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था (Global Democratic System) की अक्षमता के कारण पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का उभार (Global Resurgence of Nationalism) हो रहा है। दूसरी ओर जिहादी और राष्ट्रवादी ताक़तों के बीच टकराव से दुनियाभर के दर्जनों देशों में गृहयुद्ध (Global Civil War) के हालात बनते जा रहे हैं जिसे इन देशों के सत्ता संस्थान की शह प्राप्त है। भारत के 'नागरिकता संशोधन अधिनियम' (CAA) के विरोध में देशभर में चलाया गया 'शहीनबाग' आंदोलन उपरोक्त गृहयुद्ध की घंटी है। एक अनुमान के अनुसार इस वैश्विक गृहयुद्ध  में 35--40 करोड़ लोगों के नरसंहार की आशंका है जिसमें सबसे अधिक 5-7 करोड़ लोग सिर्फ भारत में मारे जा सकते हैं।
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सत्ता संस्थान बनाम सरकार (Establishment Vs Government ) का यह मामला स्थापित बौद्धिक वर्ग के लिए एकदम नया है क्योंकि उसकी नज़र में तो राजनीतिक सरकार और सत्ता संस्थान में कोई अंतर ही नहीं है। अभिजात वर्ग के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं कि सरकार और जनमत दोनों उसको एक साथ चुनौती दे रहे हैं। लेकिन यह भी एक कटु सत्य है और त्रासदी भी कि समाजविज्ञान और साहित्य के जानेमाने लोग न सिर्फ इस बदलाव को देख पाने में असमर्थ हैं बल्कि इसका जीजान से विरोध भी कर रहे हैं। उनके लिए एक्टिविज्म और अकादमिक चिंतन में कोई फ़र्क ही नहीं है। अनेक वरिष्ठ प्रोफेसर गर्व से यह कहते नहीं थकते कि वे 'उन लोगों में नहीं जो समय के साथ बदल जाते हैं' !
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एक प्रोफेसर को तो अपनी इच्छा के विरुद्ध भी अपनी अवधारणाओं को संशोधित करना पड़ता है अगर अद्यतन परिस्थितियों (डाटा) की ऐसी ही माँग हो। ऐसे न बदलने वाले प्रोफेसर से ज़्यादा उपयोगी तो औसत स्टोरेज क्षमता वाला कोई पेनड्राइव होगा क्योंकि जरुरत पड़ने पर आप उसमें काम की अद्यतन जानकारी (डाटा) स्टोर कर सकते हैं जिसके लिए उपरोक्त प्रोफेसर स्वघोषित रूप से अक्षम है। वैसे क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे प्रोफेसरों के जूते इनसे अधिक अकादमिक होते हैं? ऐसा इसलिए कि बमुश्किल दो हफ़्तों में आपके नये जूते खुद आपके पाँव की जरुरत के हिसाब से ढल जाते हैं। इन आचार्यों के जूते भी उनके पाँवों के अनुकूल हो ही जाते होंगे। काश ये अपने जूतों से ही सीख लेते तो देश और समाज को इतना भुगतना तो नहीं पड़ता! ©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
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Wednesday, May 27, 2020

नेहरू की बरसी पर अक्का-बक्का की श्रद्धाँजलि

अक्का: पंडित नेहरू का सबसे बड़ा योगदान क्या है?
बक्का: उन्होंने एक बहुत बड़े सिद्धान्त को जनजन तक पहुँचा दिया।
अक्का: कौन सा सिद्धान्त?
बक्का: चींटियों की मेहनत पर टिड्डों का हक़।
अक्का: मतलब 'बने रहो एड़ा खाते रहो पेड़ा'?
बक्का: सही पकड़े हो। चाहो तो हरामख़ोरी भी कह सकते हो।
अक्का: लेकिन इसे लखनवी अंदाज में क्या कहेंगे?
बक्का: माले मुफ़्त दिले बेरहम।
अक्का: लेकिन इस सिद्धान्त की जड़ तो इस्लाम और साम्यवाद में है?
बक्का: सो तो है।
अक्का: फिर इसमें पंडित नेहरू का क्या रोल?
बक्का: उन्होंने हरामख़ोरी को समाजवाद के बुर्क़ा में पेश कर दिया।
अक्का: यह तो बड़ा मौलिक काम है।
बक्का: निस्संदेह। तभी तो उनके बारे में कहा जाता है कि 'वे तन से भारतीय पर मन से यूरोपीय थे'।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
(27.5.2018) FB
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Thursday, May 14, 2020

मानवता का संदेश देनेवाली क़ुरआन की एक आयत का सच


"हमने इस्राइल की संतानों (यहूदियों) के लिए कह  दिया था कि हत्या के अपराधियों और अराजकता फैलानेवालों को छोड़ अगर किसी एक का भी क़त्ल किया तो मानों सभी लोगों (यहूदियों) का क़त्ल कर दिया और अगर किसी एक की भी ज़िन्दगी बचायी तो समझो सभी (यहूदियों) की ज़िन्दगी बचायी।
" फिर उनके (यहूदियों के) पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर पहुँचे। इसके बावजूद उनमें (यहूदियों में) बहुत से लोग ज़मीन पर ज़्यादतियाँ (अराजकता) करते रहते रहे।" (क़ुरआन: सूरा 5, आयत 32)
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पहले उपरोक्त आयत की एकदम स्थूल अर्थ की बात की जाए। एक तो यह आयत (5:32) यहूदी ग्रंथ 'तलमुद' में संकलित
अंश 'मिदराश' के एक हिस्से की सीधी फोटोकॉपी है और यह क़ुरआन में भी मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि यहूदियों के लिए ही सीधे अल्लाह द्वारा कही गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि भले यह आयत मुसलमानों को 'संबोधित' है लेकिन उनसे 'संबंधित' नहीं है जिस कारण इस आयत के 'तथाकथित मानवीय अंश' पर अमल करने के लिए मुसलमान बाध्य नहीं हैं। इसी आयत (5:32) का दूसरा हिस्सा उपरोक्त अर्थ को और बल प्रदान करता है जिसमें यहूदियों के लिए अल्लाह कहते हैं:
फिर उनके (यहूदियों के) पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण लेकर पहुँचे। इसके बावजूद उनमें बहुत से लोग ज़मीन पर ज़्यादतियाँ (अराजकता) करते रहते रहे।
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अब उपरोक्त आयत के बारीक अर्थ पर बात करते हैं। मान लीजिए कि आयत 5:32 मुसलमानों के लिए भी बाध्य है तो इस आयत में किसी की हत्या करनेवाले के साथ-साथ अराजकता (फ़ितना) फैलानेवाले के लिए भी मौत की सज़ा की बात कही गई है और जिस बात पर इस्लामी देशों के मुसलमान अमल भी करते हैं। अब असली सवाल यह है कि 'अराजकता' का मान्य इस्लामी अर्थ क्या है?
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क़ुरआन की आयतों और अवधारणाओं के अर्थ को लेकर सुन्नियों में दो किताबों की सर्वाधिक मान्यता है। एक है 'तफ़्सीर-इब्न-कथिर' और दूसरी है 'तफ़्सीर-इब्न-अब्बास'। पहली किताब के अनुसार अल्लाह के आज्ञा की अवमानना यानी 'इस्लाम को नहीं अपनाना' ही अपने आप में अराजकता फैलाने जैसा है तो दूसरी के अनुसार 'मूर्तिपूजा करना' अराजकता फैलाना है। इतना ही नहीं, दूसरी किताब (तफ़्सीर-इब्न-अब्बास) ने तो उपरोक्त आयत (5:32) के छिपे अर्थ को खोलकर रख दिया है:
"हत्या, भ्रष्टाचार और मूर्तिपूजा के अपराधी के अलावा अगर किसी ने अन्य की हत्या की तो मानों उसने पूरी मानवता की ही हत्या कर दी।"(Peter Townsend, पृष्ठ 233)
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उपरोक्त किताबों 'तफ़्सीर-इब्न-कथिर' और 'तफ़्सीर-इब्न-अब्बास' में क़ुरआन की आयत 5:32 की प्रस्तुत व्याख्याओं की पुष्टि इस आयत के ठीक बाद की उस आयत (5:33) से भी होती है जो मानवता का तथाकथित सन्देश देनेवाली आयत (5:32) से अविभाज्य रूप से जुड़ी है और जिसे 'इस्लाम में मानवता' के पैरोकार  लोग अक्सर उद्धृत नहीं करते क्योंकि यह मुसलमानों को सीधे-सीधे संबोधित भी है और उनसे संबंधित भी:
"जो लोग अल्लाह और उनके रसूल के खिलाफ युद्ध करते हैं या अराजकता फैलाते हैं, वे क़त्ल किये जाएँ या सूली पर चढ़ाए जाएँ या उनके
विपरीत दिशाओं में एक-एक हाथ-पाँव  काट दिए जाएँ (दायाँ हाथ और बायाँ पाँव/दायाँ पाँव और बायाँ हाथ) या उन्हें देशनिकाला दिया जाए। यह तो इस दुनिया में उनको मिलने वाली सज़ा है। मृत्यु के बाद दूसरी दुनिया में उनको और भी भीषण सज़ा मिलेगी।" (क़ुरआन: सूरा 5, आयत 33)
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ज़ाहिर है कि आधिकारिक  इस्लामी स्रोतों के अनुसार 'अराजकता' और 'इस्लाम में अविश्वास' दोनों दो बातें नहीं हैं और एक मुसलमान के लिए किसी ग़ैर-मुसलमान की हत्या करना एक वैध इस्लामी कृत्य है क्योंकि इस्लाम में अविश्वास असल में अराजकता फैलाने जैसा ही है और अराजकता फैलाने की इस्लामी सज़ा क़त्ल भी है। इसीलिए मदरसों के सिलेबस में 'काफ़िर वाजिबुल क़त्ल' (इस्लाम को न मानने वाले की हत्या वैध) की अवधारणा का केंद्रीय महत्व है।
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उपरोक्त संदर्भों से यह भी स्पष्ठ है कि आयत 5:32 में मानवता का संदेश का सिर्फ इतना ही अर्थ है कि एक मुसलमान के लिए हर उस मुसलमान का जीवन अमूल्य है जिसने किसी मुसलमान की हत्या न की हो। इस सिद्धांत की पुष्टि सर्वाधिक आधिकारिक हदीस 'सहीह बुख़ारी' से भी होती है: "अल्लाह के रसूल ने कहा: मुझे आदेश मिला है कि मैं लोगों से तबतक युद्ध करूँ जबतक वे यह न कह दें कि 'अल्लाह के सिवा किसी को भी पूजित होने का कोई अधिकार नहीं है'। अगर वे ऐसा कह दें और वैसे ही प्रार्थना करें जैसे हम करते हैं, वैसे ही काबा का रुख करें और ज़िबह करें जैसे हम करते हैं तो उनका जीवन और धन हमारे लिए अपने जीवन जैसा ही अमूल्य है।" (सहीह बुख़ारी 1:8:387)
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'सहीह बुख़ारी', 'तफ़्सीर-इब्न-कथिर' और 'तफ़्सीर-इब्न-अब्बास' जैसे आधिकारिक स्रोतों की व्याख्याओं की पुष्टि ख़ुद क़ुरआन की सूरा 9 की उस आयत (9:5) से भी  होती है जो बहुत बाद में यानी पैग़म्बर की मृत्यु (632 ई) से सिर्फ दो बरस पहले (630 ई) में नाज़िल हुई: फिर, जब हराम के महीने बीत जाएँ तो मूर्तिपूजकों को जहाँ कहीं पाओ क़त्ल करो; और उन्हें पकड़ो, उन्हें घेरो और हर संभव जगह में उनपर घात लगाकर बैठो। फ़िर यदि वे प्रायश्चित करें और नमाज़ क़ायम कर लें (इस्लाम को स्वीकार लें) और ज़कात (इस्लामी दान) दें तो उनका मार्ग छोड़ दो। निस्संदेह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दयावान है। (क़ुरआन: अनुवादक: मुहम्मद फ़ारूक़ ख़ाँ, पृष्ठ 197)
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यहाँ यह स्पष्ठ कर देना आवश्यक है कि क़ुरआन में आयतों को लेकर 'वरीयता' का एक सिद्धांत लागू है जिसे 'नस्ख' कहते हैं। इसके अनुसार क़ुरआन की उन आयतों का दीनी महत्व ज़्यादा है जो बाद में नाज़िल हुईं। इसका अर्थ यह हुआ कि ग़ैर-मुसलमानों के साथ धैर्य या सहनशीलता का संदेश देनेवाली आयतों से उन आयतों की मान्यता ज़्यादा है जो उनकी हत्या का आदेश देती हैं क्योंकि ग़ैर-मुसलमानों की हत्या का आदेश देनेवाली आयतें (जैसे सूरा 9: आयत 5) धैर्य या सहनशीलता का संदेश देनेवाली आयतों के बाद उतरीं। इस सिद्धांत का ख़ुलासा भी क़ुरआन में ही किया गया है (क़ुरआन: सूरा 13: आयत 39; सूरा 16: आयत 103; सूरा 2: आयत 106)। इस प्रकार बिना किसी तर्क के अगर यह मान लिया जाए कि क़ुरआन की एक आयत 5:32 दुनिया के सभी मनुष्यों के लिए करुणा और दया का संदेश देती है तो भी यह मानना पड़ेगा कि ग़ैर-मुसलमानों की कहीं भी कभी भी हत्या का आदेश देनेवाली आयत 9:5 की इस्लामी मान्यता करुणा और दया का संदेश वाली आयत से अधिक है। सूरा 9 की 5 वीं आयत (9:5) को 'तलवारी आयत' के रूप में भी जाना जाता है और यह भी कि यह अपने पहले की उन 111 आयतों पर अकेले भारी है जिनमें 'शांतिपूर्ण' या 'कम हिंसक' जिहाद की बात की गई है।



Monday, May 11, 2020

अल्ला vs मुल्ला का इस्लाम: जिहाद के चार चरणों से जुड़ी क़ुरआन की प्रमुख आयतों के उद्धरण -I

■ जिहाद 1.0 (अल्ला का इस्लाम, आयतें मक्का में नाज़िल हुईं, 13 सालों तक मूर्तिपूजा-विरोध और इस्लाम के प्रचार के बावजूद कुछ दर्ज़न लोग ही पैग़म्बर मोहम्मद के अनुयायी बने, मूर्तिपूजक क़बीला क़ुरैश के सदस्यों द्वारा मोहम्मद और मुसलमानों का उत्पीड़न, मोहम्मद द्वारा हिंसक संघर्ष की मनाही और धैर्य पर ज़ोर, 610-622 ई.):
क़ुरआन: सूरा 73: आयत 10-11; सू 52: आ 45, 47-48; सू 109: आ 1,2,6; सू 76:आ 8,9; सू 20: आ 129 ,130, सू 38:आ 15-17; सू 20: आ 134-35; सू 19: आ 83-84; सू 67: आ 26, सू  22:आ 49; सू 23:96; सू 25: आ 52; सू 29: आ 46.

■ जिहाद 2.0 (मुल्ला का इस्लाम, आयतें मदीना में नाज़िल हुईं, मक्का के मूर्तिपूजक क़ुरैश कबीले के लोग शत्रु घोषित जिनके खिलाफ आत्मरक्षार्थ हिंसा की स्वीकृति, पैग़म्बर के अनुयायी यानी मुसलमान इन मक्का वालों के कारवाँ को लूट लेते थे जिस कारण मजबूर होकर उन्हें मुसलमानों पर हमले करने पड़े , लूट यानी मालेगनिमत के पांचवें हिस्से को अल्ला के नाम पर मोहम्मद का हिस्सा घोषित किया गया, मुसलमान एक अलग समुदाय यानी उम्मा घोषित कर दिए गए, 623-24 ई.):
क़ुरआन: सूरा 22: आयत 39-41; सू 22: आ 58.

■ जिहाद 3.0 (मुल्ला का इस्लाम, आयतें मदीना में नाज़िल हुईं, सुरक्षात्मक लड़ाई की स्वीकृति को आदेश में बदल दिया गया, पहले मक्का के मूर्तिपूजक ही शत्रु थे लेकिन बाद में उहूद की लड़ाई के बाद उन मुसलमानों -- मुनाफ़िक़ -- को भी शत्रु घोषित किया गया जिनका मन मूर्तिपूजा से विरत नहीं हुआ था, इस चरण के आंरभिक दौर में यहूदी शत्रु नहीं माने गए थे क्योंकि मोहम्मद साहेब को विश्वास था कि यहूदी उन्हें मोसेज की तरह अपना पैग़म्बर मान लेंगे लेकिन ऐसा न होने पर यहूदी भी शत्रु-सूची में शामिल कर लिए गए, रणनीतिक लाभ के वास्ते कुछ समय के लिए यह भी कहा गया कि मजहब में कोई ज़ोर-जबर्दस्ती नहीं,  युद्ध में जीती गई औरतों को रखैल के रूप में रखने की अनुमति, हिंसक जिहाद सर्वोत्तम जिहाद के रूप में आदेशित, 625-28 ई. )
क़ुरआन: सूरा 2: आयत 109; सू 2 : आ 190-94; सू 2: आ 216-17; सू 2: आ 256-57; सू 8: आ 1; सू 8: आ 12-13, 15-18; सू 8: आ 38-42; सू 8: आ 67-69; सू 8: आ 72a; सू 47: आ 4-6, 15; सू 4: आ 74-78a; सू 4: आ 95-96; सू 33: आ 50; सू 48: आ 15-17; सू 48: आ 22-24; सू 48: आ 29a; सू 49: आ 15.

■ जिहाद 4.0 (मुल्ला का इस्लाम, आयतें मदीना में नाज़िल हुईं, सुरक्षात्मक लड़ाई के आदेश को दीनी दायित्व बदल दिया गया, पहले मक्का के मूर्तिपूजक-मुनाफ़िक़- यहूदी ही शत्रु थे लेकिन अब ईसाई समेत सभी ग़ैर-मुसलमान शत्रु घोषित कर दिए गए, मक्का विजय के बाद मूर्तिपूजकों का संहार कर दिया गया,
मोहम्मद ने मक्का की 360 मूर्तियों को तोड़ दिया, मक्कावालों ने 630 ई में आत्मसमर्पण कर दिया, मक्का में मूर्तिपूजकों का प्रवेश प्रतिबंधित हो गया, लड़ाई आक्रामक हो गई, इसी दौर में वह आयत-- सूरा 9:आयत 5-- भी नाज़िल हुई जिसे 'तलवारी आयत' कहा जाता है और जिसे इसके पहले नाज़िल हुई जिहाद संबंधी लगभग 111आयतों पर इसलिए वरीयता हासिल है कि यह बाद में नाज़िल हुई और जिसका ख़ुलासा सूरा 2: आयत 106 के द्वारा भी होता है, इस नियम को नस्ख या Law of Abrogation कहा जाता है, 630-32 ई.)
क़ुरआन: सूरा 9: आयत 1-6; 16; 19-22; 28; 29-31; 38-39, 41; 52,73; 81-86; 122; सूरा 5: आयत 32-33; 51.

प्राथमिक स्रोत:
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1. क़ुरआन मजीद. अनुवादक: मु.फारूक खाँ.
2. History of Jihad: From Muhammad to
    ISIS. Robert B Spencer.
3. www.answering-Islam. org.
    Rev. Richard Bailey.
4. Questioning Islam. Peter Townsend.
5. Slavery, Terrorism and Islam. Peter
    Hammond.
6. Qur'an. Translator: A Yusuf Ali.

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जिहाद क्या, क्यों और कैसे- I

जिहाद का अर्थ है: अल्लाह की राह में संघर्ष। मक्का से लेकर मदीना तक जिहाद के चार चरण हैं। पहले चरण का संबंध मक्का से है जिसका समय 610 ई से 622 ई तक का है। इसमें किसी तरह के हिंसक संघर्ष की मनाही है। दूसरे से लेकर चौथे चरण का संबंध मदीना से है और इसका समय 623 ई से 632 ई तक का है। इस दौरान पहले आत्मरक्षार्थ हिंसा को स्वीकृति दी जाती है(दूसरा चरण), फिर इस हिंसा को आदेशित कर दिया जाता है(तीसरा चरण) और अंततः हिंसा को मजहबी दायित्व के रूप में स्थापित कर दिया जाता है(चौथा चरण)। चौथे चरण के दो प्रकार हैं: (i) आक्रमण के जवाब में हिंसा और (ii) कहीं भी कभी भी ग़ैर-मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा।

प्राथमिक स्रोत:
=========
1. क़ुरआन मजीद. अनुवादक: मु.फारूक खाँ.
2. History of Jihad: From Muhammad to
    ISIS. Robert B Spencer.
3. Understanding Muhammad: A
    Psychobiography. Ali Sina.
4. www.answering-Islam. org.
    Rev. Richard Bailey.
5. Questioning Islam. Peter Townsend.
6. A God Who Hates. Dr Wafa Sultan.
7. The Atheist Muslim. Ali A Rizwi.
8. Infidel--My Life. Ayaan Hirsi Ali.
9. Slavery, Terrorism and Islam. Peter
    Hammond.
10. Al Queda, The Islamic State And The Global Jihadist Movement. Daniel Byman.
11. Political Islam. Bill Warner.
12. Qur'an. Translator: A Yusuf Ali.

द्वितीयक स्रोत:
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1. जेएनयू अड्डा. चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह.
2. जेएनयू का सच. शंकर शरण.
3. विषैला वामपंथ. राजीव मिश्र.
4. Urban Naxals. Vivek Agnihotri.
5. The Clash of Civilizations. Samuel P.
    Huntington.
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