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Friday, December 30, 2016

अब तो छुट्टी माँगता!

दोस्तो,
पिछले 26 महीनों के इस फेसबुकिया सफर में आपने मेरी लगभग 1200 पोस्टें पढ़ीं,
उसपर कुछ कहने का समय निकाला,
उसे लाइक किया या बगैर बटन दबाये उसे पढ़ा
और न जाने मुझे क्या-क्या सिखाया।
*
सैकड़ों किताबों से गुजरकर 40 सालों में जो बातें ओझल रहीं उन्हें आपने इस दौरान मानों जिन्दा ला खड़ा किया।
कुछ ने कह के सिखाया तो ज्यादातर ने अपने मौन से सँवारा।
कुछ लोग आभासी दुनिया से वास्तविक दुनिया में मित्र हो गए तो कुछ दशकों के बिछड़े मित्र आ मिले।
*
जो चीज़ हम सबमें कॉमन थी वह है 'विमर्श-जेहाद', जिसे एक अवधारणा के रूप में पहली बार दोस्त Sumant Bhattacharya की वाल पर पढ़ा।
*
आप सबने मुझसे मेरा परिचय कराने में जो रोल अदा किया है उसके लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं।
देश के इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति, साहित्य, संस्कृति, कला और सबसे ऊपर इसके भविष्य को लेकर जो तड़प मैंने आपमें पाई है वह वाणी से परे है।
*
यह साफ लगने लगा है कि आप जैसे लाखों बुद्धियोद्धाओं ने इस विशाल देश की गाड़ी को सही अर्थों में नवजागरण के राजमार्ग पर चला दिया है। इससे मिली खुशी को समेटने के लिये भी एक उम्र चाहिए।
*
इसलिए अब तो विमर्श-जेहाद के साथ-साथ अपुन को
उत्सवधर्मी होना माँगता,
आपके लिये प्रार्थनाएँ करना माँगता,
आप सबको बड़ी-से-बड़ी लकीर खिंचते देखना माँगता,
आँखे मूँदकर आपको महसूसना माँगता,
आपके लिखे को पढ़-पढ़कर चोरी-चोरी आनंदित होना माँगता,
और यह सब करन वास्ते छुट्टी माँगता!
आपका अपना,
चन्द्रकान्त।
30।12।16

गाँधी, शंकराचार्य और चाणक्य

पिछले हज़ार सालों में गाँधी के जैसा दूरगामी अखिल भारतीय रणनीतिक सोच रखनेवाले महानुभावों के नाम बताइये। मेरे हिसाब से पिछले 2500 सालों में गाँधी से पहले (गाँधी से बड़े हों, मैं यह विश्वास के साथ नहीं कह सकता) सिर्फ चाणक्य और शंकराचार्य हुये हैं लेकिन आप इस लिस्ट को बढ़ा सकें तो ख़ुशी होगी।

#गाँधी #अखिल_भारतीय_रणनीतिक_सोच #शंकराचार्य #चाणक्य
#Gandhi #Chanakya #Shankaracharya #PanIndianStrategicUnderstanding
26।12।16

अपनी-अपनी ज़न्नतों के लिए

तैमूर तो लंगड़ा था
आततायी नरसंहारी था।
तो क्या
बिन क़ासिम, ग़ोरी, ग़ज़नी
बाबर, नादिरशाह, अब्दाली
औरंगज़ेब, चंगेज़ ख़ान, लेनिन
माओ, पोल पॉट, स्टालिन, चर्चिल
पॉल, फ्रांसिस, ज़ेवियर, डिनोबली
मैकॉले, क्लाइव, हिटलर
और इनके अनुयायी
कम लंगड़े हैं?
मन के इन लंगड़ों को जो
मन में ही नहीं मारा तो
अपनी ज़न्नतों के लिए
ये कभी भी कुछ भी कर सकते हैं।
सावधान!
26।12।16

संता: कश्मीरी हिंदुओं के पलायन पर किसी बड़े डायरेक्टर की फिल्म?

संता: कश्मीरी हिंदुओं के पलायन पर 1990 से अबतक किसी बड़े डायरेक्टर ने एक भी फिल्म नहीं बनायी?
बंता: कोशिश तो की लेकिन आईडिया ही रिजेक्ट हो गया।
संता: मतलब?
बंता: बॉलीवुड के लिए दो सेंसर बोर्ड हैं। पहला जो आईडिया को ओके करता है, उसका हेड ऑफिस पाकिस्तान में है और दूसरा जो फिल्म बन जाने पर उसे पास करता है, उसका हेड ऑफिस हिन्दुस्तान में है।
संता: अब तो तू यह भी कह देवेगा कि अपना दाऊद भाई  पहले बोर्ड का आजीवन अध्यक्ष है?
बंता: सही पकड़े हो।

#कश्मीर #कश्मीरी_हिन्दू #हिन्दू_पलायन #हिन्दू_जातिनाश #बॉलीवुड #दाऊद_इब्राहिम
#पाकिस्तान #सेंसर_बोर्ड #हिन्दुस्तान
#KashmiriHinduInExile #KashmirInExile
#Exodus #EthnicCleansing
#DawoodIbrahim #Pakistan #CensorBoard
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26।12।16

अल्लामा इक़बाल का पुनर्पाठ जरूरी

अल्लामा इक़बाल का पुनर्पाठ जरूरी है।उनकी कविता और विचारों को जेहादी-भर्ती में बहुत कारगर पाया गया है।
जरा गौर करिये:

हो जाए अगर शाहे ख़ुरासान का ईशारा
सजदा न करूँ हिन्द की नापाक ज़मीं पर ।

वैसे  Tufail Ahmad ने साफ-साफ उन्हें विश्वविद्यालयों में प्रतिबंधित करने की बात कही है।
ये हमारे सेकुलर-लिबरल-वामी अकल से इतने पैदल क्यों हैं?
सब के सब आख़िरी रोटी ही खाए रहै क्या जो फालतू के एक जेहादी को इतना सम्मान देते रहे?
इतना तो इतिहास के बकलोल को भी पता होगा कि इक़बाल मियाँ जब  अंग्रेज़ों की स्काॅलरशिप पर इंग्लैंड गए तो पाकिस्तान का आइडिया देकर आ गए लेकिन शायरी में भी 'पाकिस्तान का रायता' फैला गए, इसका राज़ तो अब खुल रहा है।

ये सेकुलर-वामी-लिबरल भी न जिस पत्तल में खाते उसी में छेद करते? फिर चर्च की तरह दसियों साल बोलते कि 'पत्तल में छेद करना महाभूल थी'!
लगता है कि इन लोगों ने महाभूल के महाकुंभ आयोजन की सुपारी ले रखी है।

कोई आश्चर्य नहीं अगर वे अब तुफैल अहमद के पीछे पड़ने की महाभूल कर बैठें!
तथास्तु ।

#इक़बाल_की_पोलखोल #अल्लामा_इक़बाल #इक़बाल
#जेहादी_शायर
#EqbalExposed #JehadPoetry #Eqbal
#AllamaEqbal
27.12.16

काफ़िरों की दृष्टि से इस्लामी इतिहास !

काफ़िरों की दृष्टि से इस्लामी इतिहास की कोई किताब देखी-सुनी-पढ़ी है?
*
काफ़िरों के बिना दारुलहरब, जज़िया, काफ़िर-वाजिबुल-क़त्ल, जिहाद , ग़ज़वा-इ-हिन्द और ज़न्नत असंभव हैं।ऐसे में काफ़िरों की दृष्टि से इस्लामी इतिहास और कुछ नहीं बल्कि Subaltern History, History from Below या वंचितों की निगाह से इतिहास-लेखन है।
*
तैमूर, औरंगज़ेब, क़ासिम, चंगेज़ आदि पर जो नया विमर्श है वह काफ़िर पीड़ितों के वारिसों द्वारा इस्लामी उत्पीड़कों के इतिहास को लिखने का जन-प्रयास है। यह एक जनान्दोलन है जो इस बात का प्रमाण है कि इतिहास को 'इतिहासकारों' के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। यही अंतर है विज्ञान और इतिहास में।
*
क्या कॉमरेड, आपकी क्या राय है?

कॉमरेड कहते हैं कि अबतक का इतिहास शेर को मारने वाले शिकारी की दृष्टि से लिखा गया है, अब उसे Subaltern दृष्टि यानी धोखे से मारे गए शेर की दृष्टि से लिखने का समय है। कॉमरेड जी, काफ़िर तो जज़िया देते थे, करोड़ों की संख्या में नरसंहार, बलात्कार और घोर अपमान (माल-असबाब की तरह रखे और बेंचे गए) का शिकार हुए। वंचित होने के लिये क्या चाहिए? थोड़ा उनकी दृष्टि से भी देख लीजिए, दो-चार साल तो लोग आपपर विश्वास कर लेंगे। इससे भी बड़ी बात यह कि आपको भी अपने पाप धोने का मौका मिल जाएगा अगर आप पाप-पुण्य को मानते हों!

#काफ़िर #इस्लामी_इतिहास #काफ़िरों_का_इतिहास
27.12.16

मानसिक ग़ुलामों को भी आज़ाद ख़याल शायर ग़ालिब इतना क्यों भाते हैं?

मानसिक ग़ुलामों को भी आज़ाद ख़याल शायर ग़ालिब इतना क्यों भाते हैं?


फेसबुक मित्र सुश्री Saira Qureshi ने याद दिलाई कि आज ग़ालिब का जन्मदिन  है। फिर क्या था मैं 19 वीं सदी के हिन्दुस्तान की यात्रा पर निकल पड़ा। जो देखा वो क्या था?
*
कल्पना करिये एक जहाज़ की जो डूबने को अभिशप्त है और जिसपर सवार लोग निराश-हताश हैं कि अब क्या, डूबना तो है ही। ग़ालिब इसी जहाज़ और इसके यात्रियों के ऐसे शायर हैं जो घनघोर स्वाभिमानी, करुणामय और प्रतिभावान है। वे दर्द को आनंद तक ले जाते हैं और उसके सामने एक व्यक्ति के रूप में घुटने नहीं टेकते। लेकिन इसीलिए हमारे मानसिक ग़ुलाम बुद्धिजीवी वर्ग को ग़ालिब (भीषण रूप से आज़ाद ख़याल होने के बावजूद) इतना भाते हैं।
 *
यह दीगर बात है कि इस आज़ाद ख़्याली के बावजूद समाजी ज़िन्दगी का कोई वैकल्पिक सपना जो कबीर और नज़ीर में है वो ग़ालिब में अनुपस्थित है जबकि ग़ालिब का समाज अंतिम साँसे लेता हुआ समाज है, विकल्प के लिये तरसता समाज है क्योंकि 1857 की क्रान्ति हो चुकी है, अवाम ने अपनी तड़प दर्ज़ कर दी है लेकिन पढ़ुआ वर्ग अपनी मानसिक ग़ुलामी से बाहर आने को तैयार नहीं। ग़ालिब इस वर्ग की त्रासद स्थिति के प्रखर आलोचक भी हैं और प्रतिनिधि भी। ग़ालिब की यही ताक़त उन्हें कालबद्ध और कालजयी दोनों बनाती है।
*
अभी भी एजाज़ हुसेन और दिनकर द्वारा उनपर लिखी टिप्पणियों की रौशनी में और इस रौशनी से बाहर जाकर भी उन्हें समझने की कोशिश कर रहा हूँ। सबसे बड़ी चुनौती उनके पाठकों के मन को डिकोड करने की है। कुछ-कुछ ऐसे जैसे जो लोग यहूदियों को पसंद करते हों वे हिटलर को भी पसंद करें या जो लोग गाँधी को पसंद करते हों वे दंगे भी फैलायें।
*
फिर भी जो बात आईने की तरह साफ़ है वो यह कि नज़ीर अकबराबादी को छोड़ "वली से ग़ालिब तक किसी में भी अन्याय के विरोध की उमंग नहीं है" और ज्यादातर पर अकबर इलाहाबादी का यह व्यंग्य फिट बैठता है:

पेट मसरूफ़ है क्लर्की में,
दिल है ईरान और टर्की में।
*
क्या यह आकस्मिक है कि उर्दू शुअरा नज़ीर और अकबर को ऊँचे पाये का शायर नहीं मानते? एक और ख़याल आ रहा है कि 20वीं सदी के मध्य में हिन्दुस्तान को आज़ादी मिलने, इसके मजहब के आधार पर बँटवारे (पाकिस्तान निर्माण) और 21 वीं के शरुआती दौर के पाकिस्तान के मानस तथा हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों को समझने के लिए 1750 से 1950 के बीच की उर्दू भाषा और उसके साहित्य की दिशा-दशा(चाल-चरित्र) का अध्ययन बड़ा दिलचस्प होगा। साहित्य के इस समाजशास्त्रीय अध्ययन पर फिर कभी।


27.12.16

You don't hate but they do

It's your choice that you don't hate anyone based on his caste, creed, religion, faith or even absence of it. But this doesn't ensure that you will not be target of hatred by others too. If in doubt, have a look at the following concepts fundamental to Islam and google for yourself to verify whether these are examples or not of hatred embedded in that religion:

1. Qattal Fee Sabeelillah
2. Jehad Fee Sabeelillah
3. Kafir Wajibul Qatl
4. Darul Harab
5. Darul Islam
6. Ghazwa-e-Hind

27।12।16

टीवी-अख़बार: 'अँधा बाँटे रेवड़ी फिर- फिर खुद को दे'

टीवी-अख़बार वालों को कौन बताये कि इनके "चाँद का मुँह" टेढ़ा हो गया है!
सोशल मीडिया में तो 'खुल्लम खेल फ़र्रुखाबादी' चलता है!!

अख़बार-टीवी ने अपने-अपने तुलसी और सूर बनाये, मीर और ग़ालिब बनाये और एक दौर ऐसा आया कि उनकी स्थिति ऐसी हो गई जैसे 'अँधा बाँटे रेवड़ी फिर- फिर खुद को दे'।
*
फिर आया इंटरनेट, मोबाइल और सोशल मीडिया। रियल टाइम में सवाल पूछने और सुनने-सुनाने का युग।आज 100 करोड़ से ज्यादा मोबाइल कनेक्शन हैं, 35 करोड़  स्मार्टफोन हैं, 50 करोड़ लोग ऑनलाइन हैं और इन लोगों ने हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियाभर के
भारत-वंशियों की एक चौपाल-सी बना दी है।
*
इस चौपाल के गप्प-सर्राके 24x7 चलते रहते हैं और इनके चर्चों ने टीवी-अख़बारों के मीर-ग़ालिबों और सूर-तुलसियों को उनकी औक़ात बता दी है। अब इन टीवी-अख़बार वालों को कौन बताये कि इनके "चाँद का मुँह" टेढ़ा हो गया है क्योंकि अब सौंदर्य के प्रतिमान बदल गए हैं! 'दृष्टि बदलते ही दृश्य बदल जाते हैं'।
*
खैर, आपको वे लोग आजकल स्यापा और रुदाली करते दिखते हैं कि नहीं? दिख जाएँ तो अदब में कोई कमी नहीं  पर बौद्धिक धुलाई भी मुसलसल चलती रहे। यह सफाई अभियान का दौर है, है कि नहीं?
भई, खुल्लम खेल फ़र्रुखाबादी। और क्या!

#अख़बार #टीवी #सोशल_मीडिया
#Newspapers #TV #SocialMedia

28।12।16

लफ्फाजी में मार्क्स बेज़ोर हैं।

लफ्फाजी में कि। उनकी शैली का सर्वाधिक लाभ विज्ञापन वालों ने उठाया लेकिन उसके भी पहले हिटलर और मुसोलिनी ने उनकी शैली यानी लफ्फाजी प्रतिभा से लाभ उठाया।
*
कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लफ्फाजी के सिवा क्या है?

"दुनिया के मजदूरों एक हों"!

"खोने के लिए सिर्फ बेड़ियाँ और पाने के लिए सारी दुनियाँ"!

वैसे लफ्फाजी में मार्क्स को मात देनेवाले कौन हो सकते हैं?

#मार्क्स #लफ्फाजी #कम्युनिस्ट_मैनिफेस्टो
#विज्ञापन_की_भाषा #हिटलर #मुसोलिनी
#दुनिया_के_मजदूरों_एक_हो
28।12।16

संता: टीवी-अख़बार वालों के "चाँद का मुँह टेढ़ा"

संता: टीवी-अख़बार वालों को कौन बताये कि इनके "चाँद का मुँह टेढ़ा" हो गया है?
बंता: सोशल मीडिया में तो 'खुल्लम खेल फ़र्रुखाबादी' चलता है।
28।12।18

संता: इक़बाल टंच सेकुलर हैं!

संता: पाकिस्तान -विचार के पिता अल्लामा इक़बाल टंच सेकुलर हैं?
बंता: तभी तो वीर सावरकर कम्युनल हैं।
संता: सो कैसे?
बंता: ब्रो, उन्होंने इक़बाल के पाक-विचार का विरोध जो किया था !

#इक़बाल #सावरकर #सेकुलर #कम्युनल #पाकिस्तान #हिंदुस्तान #भारत
#Iqbal #Sawarkar #Secular #Communal #Pakistan #Hindustan #Bharat #India
28।12।16

दाढ़ी और टोपी का चलन

मेरे एक फेसबुक मित्र Sarveshwaram Krishnam ने अपनी वाल पर लिखा है:
"मुसलमानों में दाढ़ी रखने और टोपी लगाने का प्रचलन बहुत ही तेजी से बढ़ रहा है।"
*
क्या यह पोस्ट किसी अव्यक्त चिंता के कारण है या महज एक ऑब्जरवेशन ?
कोई-न-कोई फैशन या ट्रेंड हमेशा रहता ही है फिर इसमें ख़ास क्या है?
यह दाढ़ी-टोपी पोस्ट कहीं दाएश (आईएसआईएस) के अबु अल बग़दादी ब्राण्ड पहनावे को लक्षित करके तो नहीं लिखी गई है?
लोग वहाबी इस्लाम के नंबर एक जेहादी अबु अल बग़दादी से प्रेरित होकर ही बड़ी दाढ़ी, लंबा कुर्ता,  जालीदार टोपी, छोटी मूछ और छोटा पायजामा अपना रहे हैं तो इसमें कौन सी अनहोनी घट गई?
*
अगर बेटों के नाम गर्व से बिन क़ासिम, ग़ोरी, ग़ज़नी, तैमूर, औरंगज़ेब, अब्दाली और नादिरशाह रखे जा सकते हैं...
संसद हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु को शहीद घोषित कर भारत की सुप्रीम कोर्ट को क़ातिल ठहराया जा सकता है...
4.5 करोड़ चीनियों के नरसंहार के जिम्मेदार माओ और 2.5 करोड़ सोवियत संघियों के नरसंहार के जिम्मेदार स्टालिन को महानायक माना जा सकता है...
चीनी हमले का पूरब से आती लाल किरण कहकर स्वागत किया जा सकता है...
नरेंद्र मोदी को हटाने के लिये भारत के दो पूर्व काबिना मंत्री पाकिस्तान से मदद माँग सकते हैं...

तो वहाबियों के पहनावे अपनाना कौन सी बड़ी बात हो गई?
*
यह सभ्यताओं का संघर्ष है और संघर्ष प्रतीकों से ही लड़े जाते हैं...
अब जिसे जो व्यक्ति और प्रतीक भायेगा वह उसी को अपने जीवन में उतारेगा न ?
आपको गाँधी, शिवाजी, राणा प्रताप, चाणक्य, शंकराचार्य, राम, परसुराम, ताण्डव करते शंकर, कृष्ण, शंबूक, चन्द्रगुप्त, कबीर, रसखान, गुरुगोविंद सिंह, गुरु तेगबहादुर, दारा शिकोह, समुद्रगुप्त, भगत सिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, आज़ाद, तिलक, विवेकानंद, लाजपतराय, दयानंद, ओशो, लक्ष्मीबाई, बिरसा मुंडा, पटेल, असफाक़ुल्ला, हमीद और कलाम जैसों को अपने प्रतीक या नायक बनाने से किसी ने रोका हुआ है क्या?
*
कहीं आप इस सभ्यतागत संघर्ष में दुश्मन से यह तो उम्मीद नहीं कर रहे कि वह आपके नायकों और प्रतीकों के परचम तले  लड़े? तब तो आप लड़ और जीत भी चुके जैसे पिछले हज़ार सालों से गंगा-जमुनी झण्डा फहराते आये हैं!
28.12.16

इक़बाल पर सवाल

मेरे एक सेकुलर-वामी मुसलमान मित्र ने मेरे सामने एकदम से एक क्रांतिकारी सवाल रख दिया:

अगर रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत (जनगण मन) और बांग्लादेश (आमार सोनार बांग्ला) के राष्ट्रगान लिख सकते थे तो महान अल्लामा इक़बाल भारत (सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा) और पाकिस्तान (सारे जहाँ से अच्छा पाकिस्तान हमारा... मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा?) के राष्ट्रगीत के रचयिता क्यों नहीं हो सकते?
आपकी क्या राय है?

(नोट: नोबेल पुरस्कार नहीं मिलने से इक़बाल वैसे ही कुंठित हो गए थे जैसे काँग्रेस में गाँधी की लोकप्रियता के बाद जिन्ना।)
*
N e e l K a m a l
http://nation.com.pk/blogs/10-Oct-2015/until-we-start-denouncing-ilm-ud-din-s-legacy-mumtaz-qadris-will-keep-sprouting-up-in-pakistan
#shameonIqbal

A b h i s h e k C h a u h a n
सारे जहाँ से अच्छा की इन लाइन के वास्तविक मायने कोई बतायेगा मुझे

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको।
उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा।। सारे...
बिक्रम प्रताप:

इकबाल की लेखनी और उनके व्यक्तित्व को अलग-अलग भी देखा, महसूस किया जा सकता है। जरूरी नहीं सबको टोटैलिटी में ही तौला जाए। जो पहलू आलोचना के लायक है, उसकी जमकर आलोचना और जो पहलू सराहना के लिए लायक, उसकी जमकर सराहना। मेरी निजी राय।
CPS
बिल्कुल, जैसे औरंगज़ेब का नाम आते ही हमारे अंदर का उदार सेकुलरदास जग जाता है और राणा प्रताप-शिवाजी-गुरु गोविन्दसिंह-दयानंद-अरविंद-बंकिमचंद्र-विवेकानंद के नाम सुनते ही कैमटोज़ अवस्था में चला जाता है। जिन्ना को तो आडवाणी ही पाकिस्तान जाकर सेकुलरता का सर्टिफिकेट दे आये थे।
AsAhishnu pandya
हमारी आदर्शवादी बुद्धि जीविता हमें कहां ले जा रही है ?
लगता है इस आदर्शवाद का अंत हमारे खत्म होने के बाद ही होगा।
तभी तो हम आमिर खान के मंतव्य को भूला कर मात्र रचना धर्मिता के गुणगान करते रहते हैं।
N i k e s h P r a t a p D e v
अमार सोनार बंग्ला तो बांग्लादेश बनने से पहले लिखा गया था न?
C p S
1920 के दशक में लाहौर में आर्य समाज के प्रभाव से जले-भुने मुल्लों ने सरस्वती और दुर्गा को अश्लील अंदाज़ में पेश करना शुरू कर दिया था। इसके बाद आर्यसमाजी राजपाल मल्होत्रा (राजपाल संस के संस्थापक) ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम था "रंगीला रसूल"। इसका मुल्लों ने काफ़ी विरोध किया और महाशय राजपाल पर जानलेवा हमले शुरू हो गए। अंततः इलमुद्दीन नाम का एक लोहार युवक छूरा मारकर उनकी हत्या करने में सफल हो गया। एक साल के अंदर उसे फाँसी की सज़ा हो गई। उसी इलमुद्दीन की लाश के क़ब्र में रखे जाते वक़्त अल्लामा इक़बाल की आँखों में गर्व के आँसू छलछला आये:
हम देखते ही रह गए और यह एक बढ़ई का लड़का बाज़ी मार गया!
P u n d i r

पूरी जिंदगी को अंधेंरे में रखों और फिर उसे सूरज की रोशनी में लाओं तो उसकी आंखों को एकाएक कुछ नहीं दिखता लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि दोनों अँधेंरों में अंतर नहीं है। एक रोशनी से महरूम रखे गए हुए इंसान की जिंदगी का अंधेरा तो दूसरा अंधेरे में रखे गए इंसान को रोशनी से सामना करने में आंखों में घिर आया हुआ शुरूआती अंधेरा है। बात ये नहीं कि मोदी या किसी भाजपा के सरकार में आने से देश में बदलाव आता दिख रहा है। सर मैंने इस देश को जितना देखा है ( ज्यादातर हिस्से को रिपोर्टिंग के सिलसिले में घूमा है, कार से ज्यादातर हिस्से और लोगों के साथ बात चीत कर समझने के सहारे) उसमें आपस में एक दूसरे के साथ बातचीत शुरू होने या फिर यात्राओं के सहारे नजदीक आने की प्रक्रियाओं के सहारे ही बदलाव आना शुरू हो गया। मैं हमेशा आश्चर्यचकित रहा कि यदि लोककथाओं में देशाटन शिक्षा का एक अनिवार्य हिस्सा था तो फिर ये गायब कैसे हो गया। लोक का बोध कैसे गायब हो गया। एक होने का हिस्सा कहां चला गया। और विदेशी हमलावरों के विरोध में एक जुट प्रयास क्यों नहीं हो पाया। हो सकता है किसी ने इस पर काम किया हो मैं अभी देख नहीं पाया ( ये मेरी अल्पज्ञता है लेकिन मैं कोशिश कर रहा हूं) लेकिन इस्लाम के धर्मांध सुल्तानों के  स्थानीन जनता के रीति-रिवाजों को कुचलने या फिर उनके लिए मंहगें कर चुकाने की बाध्यता के चलते ये पंरपरा पूरी तरह से खत्म हो गई थी। फिर जो भी हमला हुआ उसका मुकाबला स्थानीय तौर पर किया गया। दूसरी और हमलावर दुनिया भर में एक तलवार के तौर पर एक पंरपराओं के तहत लड़ रहे थे। खौंफ और आतंक की वो दास्तां कितनी भयावह रही होगी जिसने एक पूरी सभ्यता को अपने ही खोल में सिकुड़ने के लिए मजबूर कर दिया। बाहरी हमलावरों के करीब जाने की बाध्यता ने इस प्रकिया में अपने अंगों से अलगाव को और तेज किया होगा।
इकबाल ने सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां जब लिखा जब उन्हें लग रहा था कि अंग्रेजों की वापसी का मतलब है इस देश पर शरिया का शासन आना। लेकिन जैसे ही उनको लगा कि ये तो जनतंत्र की तरफ जा रहा है तो उन्होंने पाकिस्तान के लिए लिखना शुरू कर दिया। ये इतिहास को अंधा करने वालों की कवायद थी कि उसको इस देश में सम्मान दिया गया। क्योंकि जो उन साहब ने खुरासान के शाह के इशारे पर इस देश के लिए सम्मान दिया उसके लिए उनको किताबों में किस नाम से नवाजना चाहिए था ये सभी लोगों को मालूम होना था। पूरे इतिहास में लेखकों ने इस बात को स्थापित करने की कोशिश की -- बंटवारा हिंदु्ओं की ओर से भी मांगा ज रहा था। ये कौन सा बंटवारा था जो होने के बावजूद एक देश अपने को पाकिस्तान और इस्लाम के किले के तौर पर धर्म को राज्य का मुख्य अंग बना देता है दूसरी ओर अपने मुल्क का हिस्सा खोने के बावजूद बंटवारा मांगने वाले लोग अपने सीने पर पड़े हुए जख्मों को खाकर भी धर्म और राज्य का रिश्ता अलग-अलग रखते है। इतिहास में इसी अतंर को खत्म करने की कोशिश वामपंथी इतिहासकारों ने मुसलसल तौर पर की है। और यही कारण है कि इस देश की पीढ़ी समझ ही नहीं पाई कि इकबाल की सही जगह कहां है। मैं आज सुबह क्षमा शर्मा का एक लेख पढ़़ रहा था जिसमें बड़ी हैरानी जताईं गई कि इस देश में सौ साल से बिना नागा किए हुए उर्दू की एक मैंगजीन छप रही है। मैं इस लिए हैरान था कि उनको क्या लगता था कि ये मैंगजीन ईरान या अमेरिका या ब्रिटेन से छपनी चाहिए थी। अरे उर्दू यही पैदा हुई भाषा थी तो यही छपनी थी और कहां छपनी थी। पाकिस्तान और बांग्लादेश की उम्र अभी सौ साल हुई नहीं तो फिर कहां छपती लेकिन क्षमा जी क्षमा करे ये उनकी महानता है कि उन्होंने आश्चर्य किया।
29.12.16

Stockholm syndrome

Are the behavioral traits of most Muslims of India-Pakistan-Bangladesh-Afghanistan examples of Stockholm Syndrome or Post-Trauma Stress Disorder ? Medical practitioners or psychiatrists may please enlighten us.
29।12।16

ले मंतर बनाम दे मंतर

भारत में काम करनेवाले के खिलाफ सब के सब हाथ धोकर पीछे पड़ते हैं, इसमें जाति-मजहब-विचारधारा बेमानी है। सेलेक्शन जिसका हो जाता है वह कौन सा काम में रुचि रखता है? और रुचि रखता है तो भी कौन उसे करने देता है? इसलिए काम की गुणवत्ता अप्रभावित रहती है, चाहे उसे ज़्यादा अंकवाला जनरल श्रेणी का व्यक्ति करे या फिर कम अंकों वाला रिज़र्व श्रेणी का। चर्चा के केंद्र में सिर्फ 'ले मंतर' है इसलिए झगड़ा है; चर्चा के केंद्र में 'दे मंतर' होता तो कोई झगड़ा नहीं होता। मामला अधिकार बनाम कर्तव्य का भी है।
29.12.16

Stating a problem

Dr Niraj Kumar Jha:
The problem with us is that when we speak of a problem we also kill the possibility of a solution with the same statement.

Chandrakant P Singh :
Yes, we do so because we think through the mind of those who created the problem. No doubt, we remain proudly colonized mentally.

#Problem #Problematizing #Solutions #ProblemCreation #ProblemSolving
#ProblematizingThroughForeignEyes
#SolutionThroughForeignEyes
#LocalProblemsForeignSolutions
#DesiProblemBidesiSolutions
#देसी_मुर्गी_विलायती_बोल
29.12.16

संता: कौन कितना कम्युनल?

 कौन कितना कम्युनल?
संता: प्राजी, ये कैसे पता लगे कि कौन कितना कम्युनल है?
बंता: अपने हिंदुस्तान में तो भई, जो जितना सेकुलर वो उतना कम्युनल।
संता: कैसे?
बंता: जैसे 'जो जितना पढ़ुआ वो उतना भड़ुआ'।
29।12।16

संता: पड़ोसी बाहर, विदेशी अंदर!

 पड़ोसी बाहर, विदेशी अंदर!
संता: बर्मा और बांग्लादेश के शरणार्थियों को जम्मू-कश्मीर में बसाया जा रहा है।
बंता: घाटी के जेहादियों को कश्मीरी हिंदुओं की घर-वापसी से ऐतराज़ है, हम-ईमान विदेशी शरणार्थियों से नहीं।
29।12।16

संता: इतिहास का रंग भगवा ?

संता:सुना आजकल सिर्फ़ भगवा रंग के इतिहास का चलन है?
बंता:जैसे पहले लाल और हरे का था!
29।12।16

संता: नमो दौर का राष्ट्रवाद ?

संता: मोदी के दौर में  इतिहास का हिन्दूकरण ही राष्ट्रवाद हो गया है?
बंता: जैसे नेहरू  के ज़माने में इस्लामीकरण और  कम्युनिस्टीकरण था!
29।12।16

अब आप ही बताइये कि आपका इतिहास कैसा है?

अब आप ही बताइये कि आपका इतिहास कैसा है?

एक बात तो साफ है कि किसी भी देश के इतिहास को अगर सिर्फ इतिहासकारों के भरोसे छोड़ा गया तो उसका वही हाल होगा जो भारत का हुआ:
विश्वविद्यालयों में आत्म-घृणा का गौरवपूर्ण शोधपाठ।

असली इतिहास तो
जनता के वर्तमान का हमक़दम होता है,
हमसफ़र होता है,
उनकी जुबान पर होता है,
उनके सुख-दुःख के गीतों में होता है,
उनकी जीत-हार की गाथाओं और काव्यों में होता है
और
जो उन्हें वही सुकून देता है जो शाम को अपने घोंसलों में पंछी पाते हैं
या
फिर माँ की गोद में-बाप के कंधे पर उनके बच्चे।

पर उनका क्या जिनके पूर्वज बर्बर हों,
आततायी हों,
नरसंहारी-बलात्कारी-मक्कार-फरेबी-लुटेरे हों?

वे तो इतिहास को मृत घोषित कर देंगे
या
फिर उन सबको बर्बर साबित कर देंगे
जिनको उन्होंने अपनी बर्बरता का शिकार बनाया।

तो इतिहास झूठा है
अगर वह माँ-दादी-नानी की लोरी नहीं है,
इतिहास फरेब है
अगर वह बाप-दादा-नाना का कंधा नहीं है,
इतिहास अफ़ीम-शंखिया-धतूर है
अगर वह जीवन में उमंग नहीं भरता,
इतिहास दुश्मन का एजेंट है
अगर वह अपनों को बाँटने के नित नये-नये तरीके ढूँढ़ लाता है,
इतिहास महज एक विषकन्या है
अगर उसके पहलू में जाकर आपको आनंद नहीं मिलता...

अब आप ही बताइये कि आपका इतिहास कैसा है?

भारत के इतिहास के साथ इतनी छेड़छाड़ हुई है कि कथा-पुराण और मिथक ज्यादा विश्वसनीय लगते हैं। यूँ कहिये कि लगते नहीं बल्कि हैं।
पिछले 1000 हज़ार सालों की सच्चाई या तो इस्लामी हमलावरों के दरबारी इतिहासकारों, ग़ाज़ी की पदवी पाने के लिए ख़लीफ़ा को लिखे आग्रह-पत्रों या फिर चीनी-फ़्रांसिसी यात्रियों  और 1757-1947 के दौरान भारत आये ग़ैर-अंग्रेज़ विद्वानों(खासकर अमेरिकी) के लेखन से पता चलती है।

लेकिन जेएनयू-दिवि-अलीगढ़ विवि आदि में इन स्रोतों को या तो इंट्री नहीं मिलती या फिर ग़लत सन्दर्भ में उद्धृत कर दिया जाता है।किसी तरह यह साबित होना चाहिये कि भारत तो बस गुलाम होने के लिये ही बना था और जब तक गुलाम नहीं हुआ था तबतक अंधकार युग में रह रहा था!

इतना प्रेम है देश से इन इतिहासकारों का कि अन्धकारयुग यानी प्राचीन भारत पर तथ्यगत चर्चा से भी घबड़ाते हैं! इसी अंधकार युग में वेद-उपनिषद्-रामायण-महाभारत-अष्टाध्यायी-चरक संहिता आदि जो रचे गए!!


नोट:
1. गलती से कुछ लोग छेड़ू इतिहासकारों को चारण या भाँट कह देते हैं। घूम आइये राजस्थान और पता चले कि किसी चारण ने अपने आश्रयदाता की हौसला अफजाई न की हो तो बताइये। चारण और भाँट तथ्यों को आगे-पीछे करते हैं, जीवन-सत्य को नहीं।
2. जेएनयू में "भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह" के नारे इसलिए लगे कि इसके बीज जेएनयू की स्थापना के समय ही डाल दिए गए थे जब काँग्रेस और मुस्लिम लीग में इस शर्त पर समझौता हुआ था आज़ादी की लड़ाई में लीग की भूमिका पर पर्दादारी की जाए। बस लोकतांत्रिक भारत में इतिहास लेखन को संस्थागत रूप से पार्टीहित की बलि चढ़ा दिया गया।
30.12.16

बेचारे बलात्कारी!

संता: हिन्दुस्तानी मन माने क्या?
संता: एक औरत जिसे इस बात की चिंता है कि उसके बलात्कारी को कोई तकलीफ तो नहीं हुई!
संता: ऐसा क्यों?
बंता: क्योंकि उसके मन में यह बात बैठा दी गई है कि  उसके साथ यह सब कुछ न होता अगर वह औरत न होती।
संता: यह सब किया किसने?
बंता: अभी तक पता नहीं चल पाया है।
संता: यह सब पता करने का जिम्मा किसका है?
बंता: बेचारे बलात्कारियों का!
30.12.16

बरखा रानी, ज़रा झूम के बरसो

बरखा रानी, ज़रा झूम के बरसो
सेकुलर सईंया जा न पाए
झूम के बरसो
बरखा रानी, ज़रा झूम के बरसो।
(एक बम्बइया गीत 10 फीसद बदलाव के साथ।)
30.12.16

देशकाल को ठेंगा दिखाता Happy New Year!

नये वर्ष का सम्बन्ध जहाँ आप रहते हैं
उसकी ऋतु से है, मौसम से है
सूरज से है, चाँद से है, ज़मीन और आकाश से है
पेड़-पौधों से है, रस से है, गंध से है;
और यह विज्ञान है,
कपोल कल्पना नहीं।
*
कैसा लगता है ठण्ड में नया साल मनाना,
ऐसे मुल्क में जहाँ ग्रीष्म,वर्षा, शरद के अलावा
बसंत ऋतु भी हो जब मन-मतंग मदमस्त हो जाता है?
कुछ तो लोचा है भाई,
नहीं तो हमारे गाँव में इसका इंतज़ार लोग क्यों नहीं करते,
ढोर, पंछी, नदी-नाले, प्रकृति कहीं किसी के अंग उमंग में फड़कते क्यों नहीं?
भारत का आभिजात्य इसी कड़क ठण्ड में कड़क दारू पीकर कपड़ा-उतार नृत्य देखते हुए देशकाल को दिलोजान से झुठलाने की हाड़तोड़ कोशिश करता है जब वह कहता है:
Happy New Year!
30।1216

ईमानदार नेता से बड़ा देश का भी कोई दुश्मन नहीं

सुना मोदी जी इस New Year के कुछ घण्टे पहले देश को संबोधित करेंगे। 
माने कि 2016 में नोटबंदी लाकर खर्चे की नसबंदी कर दी, अब 2017 के पहले मिलन-पल भी बर्बाद करके छोड़ेंगे! 
ये मैं नहीं कह रहा, देश के दिल दिल्ली के सेकुलर पत्रकार कह रहे हैं। 
*
एक कहावत है कि 'धंधे में ईमानदार दोस्त से बड़ा कोई दुश्मन नहीं'। मैं तो कहूँ कि राजनीति में भी ईमानदार नेता से बड़ा देश का भी कोई दुश्मन नहीं। 
*
तभी तो खुद को भारतरत्न से नवाज़ने वाले हमारे पहले परिधानमंत्री चाचा नेहरू (उनके कपड़े फ्राँस में सिलते और इटली में धुलते थे!) ने संविधान लागू होने के कुछ ही सालों में जीप-घोटाला हो जाने दिया! व्यक्ति की हो चाहे देश की, ऊपर की कमाई "दूज के चाँद की तरह होती है जो रोज-रोज बढ़ती है"।
30।12।16

Santa: Bro, what's history?

Santa: Bro, what's history?
Banta: A concubine.
Santa: And sociology?
Banta: The life-partner.
30.12.16

इतिहास और समाजशास्त्र

संता: इतिहास क्या है?
बंता: शाहेवक़्त का लौंडा-ग़ुलाम।
संता: और समाजशास्त्र?
बंता: सुख-दुःख का साथी।
30.12.16

History and Sociology

History plays a concubine while sociology the life-partner. What we see in India is the havoc caused by the change of roles.
#CPS
30.12.16

Sunday, December 25, 2016

असग़र वजाहत की पोस्ट में चन्द्रकान्त प्र सिंह


(प्रोफेसर असग़र वजाहत की वाल से जो उन्होंने 21 दिसम्बर को लिखी और जिसका लिंक मैंने 23 दिसम्बर 2016 को अपनी वाल पर दिया।)
फेसबुक पर श्री चंद्रकांत पी सिंह की पोस्ट के संदर्भ में यह लिख रहा हूं यदि आप चाहें तो  पहले श्री चंद्रकांत पी सिंह की पोस्ट को पढ़ सकते हैं।
मैं कहना चाहता हूं कि क्या  देश के लोगों के बीच अविश्वास ,घृणा और हिंसा की भावना फैलाना  देशभक्ति या देश प्रेम  है ?
या देशवासियों के प्रति आपसी प्रेम भाव , विश्वास और एकता स्थापित करना देशभक्ति और देश प्रेम है?

मैं बहुत लंबे समय से देख रहा हूं कि facebook पर खुलेआम हिंदू और मुस्लिम संप्रदाय के लोग एक-दूसरे के खिलाफ घृणा, हिंसा की भावना फैला रहे हैं । हमें इतिहास बताता है कि भारत विभाजन से पहले इसी प्रकार की  घृणा और हिंसा फैलाई गई थी।जिसकी निंदा की जाती है।
आज आजादी के70 साल बाद यह हिंसा और घृणा की भावना क्यों फैलाई जाती है? क्या कारण है ?उसका क्या आधार है ? और उसका क्या उद्देश है ?इस पर विचार करना हर उस आदमी का कर्तव्य है जो इस देश में शांति, एकता, भाईचारा और विकास चाहता है। इसलिए हमारा फर्ज बनता है कि हम कि हम देश की एकता और अखंडता को तोड़ने वाले उन लोगों और शक्तियों का विरोध करें । वे चाहे हिन्दू हों या मुसलमान या किसी और धर्म या जाति के हों। वे देश का भयानक अहित कर रहे हैं।कुछ लोग मानते हैं कि ऐसे लोगों और शक्तियों को 'इग्नोर' किया जाना चाहिए पर मैं यह नहीं मानता। ये देश विरोधी लोग साधारण जनता को भड़काने का काम करते हैं जो देशद्रोह जैसा है।

साल भर पहले आज के दिन (23.12.16)

साल भर पहले आज के दिन (23.12.16)
*
अपराध की प्रकृति से अपराधी की सजा तय होनी चाहिए न कि उम्र से।अगर 16 साल का व्यक्ति जघन्य तरीके से बलात्कार कर सकता है तो वह नाबालिग कहाँ रहा?
इसका सबसे ज्यादा लाभ उठाएँगे आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देनेवाले जब वे तय उम्र से कुछ महीने कम उम्र वालों से संगीन अपराध करवायेंगे ।

इसका विरोध कर रहे अफ़ज़लप्रेमी गैंग पर बहस के बजाए मुद्दे की गंभीरता पर बहस होनी चाहिए । ये सब बुद्धिवंचक हैं जो अपनी बुद्धि का उपयोग देश को मानसिक रूप से गुलाम बनाए रखने और बरगलाने के लिए करते हैं। ये सिर्फ तन से भारतीय हैं , मन से हैं पक्के काले अंग्रेज़।

अपराधी के लिए उम्र-सीमा समय, समाज और संचार तकनीक सापेक्ष होनी चाहिए और व्यापक दृष्टि रखते हुए इसे पूरी तरह न्यायालय पर छोड़ देना चाहिए।आतंकवादी गतिविधियों के मद्देनजर यह जरूरी है।
हमारी न्यायालय प्रणाली बिना अकल के नकल का वैसे ही उदाहरण है जैसे शिक्षा व्यवस्था।

भला हो सोशल मीडिया का जो अंग्रेज़ों के अलावा भी अब  दूसरों को समझदार मानने में उतनी दिक्कत नहीं होती जितनी पहले होती थी क्योंकि अंग्रेज़ों के स्वार्थी, धूर्त, झूठे, मक्कार, और नरसंहारी होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते रहते है।

किसी सेकुलर -लिबरल-वामी आत्मा को आपत्ति हो तो उसे कृपया साहसपूर्वक यहाँ दर्ज करे।
वैसे बुद्धिविलास के लिए बदनाम इस ब्रिगेड में कोई तो बुद्धिवीर होगा जो अपनी मानसिक गुलामी की बेरियाँ तोड़ सच का सामना करेगा।
इसमें भी अगर ज्यादातर लोग बुद्धिवंचक निकले तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे।

नाबालिग अपराधी को लेकर भारत का कानून यूरोपीय जरूरत की नकल लगता है।एक तरफ तो यूरोपीय दंपति बच्चे पैदा करने और पालने का 'झंझट' मोल नहीं लेना चाहते तो दूसरी तरफ अपनी आबादी को भी विलुप्त होने से बचाना चाहते हैं।
पहली चाहत टूटे हुए परिवार और आवारा-अपराधी बच्चे का कारण है और दूसरी चाहत इन अपराधी बच्चों को दंड से बचाने का।
यह बूढ़े होती आबादी का लक्षण है जिसे एक युवा आबादी वाले देश के नक्काल हुक्मरानों ने ओढ़ लिया है।

भारत में न बच्चे के लालन-पालन को झंझट मानते हैं और न ही यहाँ आबादी के विलुप्त होने का संकट है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है:

लालयेत पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत।
प्राप्तेषु षोड्से वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत ।।

एक तरफ तो हम कहते हैं कि हमारी आबादी का 75 प्रतिशत युवा हैं और दूसरी तरफ उन देशों के बाल-कानूनों की नकल कर रहे हैं कि जहाँ की बहुसंख्य आबादी बुजुर्गों की श्रेणी में है!
ऐसी ही मानसिकता पर क्षुब्ध होकर प्रसिद्ध साहित्यकार आक्टेवियो पाज़ ने कहा था कि नक्काली में भारत के बुद्धिजीवी बेजोड़ हैं ।

#बुद्धिविलासी #बुद्धिवीर #बुद्धिवंचक

(23.12.15 की एक पोस्ट का परिवर्द्धित रूप।)

दलित चिंतकों के आदर्श कबीर-रविदास नहीं, जोगेन्दर मंडल हैं!

दलित चिंतकों के आदर्श कबीर-रविदास नहीं, जोगेन्दर मंडल हैं!

तथ्यों और सत्य के मामले में दलित चिंतकों की स्थिति वाक़ई चिंतनीय हैं क्योंकि वे अपने निजी स्वार्थों और मानसिक गुलामी के पांव तले दबे हुये दलित हैं! इसलिये वे दलितापे के चिंतक ह, दलित-हित चिंतक नहीं हैं। चिंतक तो मुक्त होता है: थोपी हुई दृष्टि से, टुच्चे स्वार्थों से; वह दलित हो ही नहीं सकता। तभी तो कबीर और रैदास चिंतक थे, संत थे, कवि थे, महान समाज सुधारक थे लेकिन दलित नहीं थे।

कितने दलित चिंतक खुलकर कबीर और रैदास को अपने आदर्श मानते हैं? इस लिहाज से दलित चिंतकों की नमक हलाली क़ाबिले तारीफ़ है, जिसका खाते हैं उसका बजाते हैं।

बंगाल के धुलागढ़ में दलितों पर शांतिदूतों ने अत्याचार किये, दलित चिंतक चुप रहे और चुप हैं। केरल में एक दलित की बलात्कार के बाद शांतिदूतों ने हत्या कर दी, दलित चिंतक फिर भी वहाबी और वेटिकन के नमक के फर्ज़ से नहीं डिगे।

उनके आदर्श हैं जोगेन्दर मंडल जिह्नोंने अँगरेज़ आकाओं की सलाह पर अपने राजनीतिक कैरियर के लिए जिन्ना से हाथ मिलाकर  पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान) और पूर्वी बंगाल (पहले पाकिस्तान और अब बांग्लादेश ) के करोड़ों दलितों की ज़िंदगी और इज़्ज़त ही दाँव पे लगा दी।

 पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह गए ज्यादातर हिन्दू दलित थे और उनकी आबादी पाकिस्तान में लगभग एक चौथाई से 2% और बांग्लादेश में लगभग 30 % से 8 पर आ गई है। उन्हें इस्लामी अबे जमजम से पवित्र कर दिया गया ताकि उनके पड़ोसी ग़ाज़ी होकर 72-हूरों वाली ज़न्नत के रसीदी टिकट ले सकें जहाँ दारू का दरिया है और इच्छा हो तो गिलमे यानी कमसिन लौण्डे भी।

कभी किसी दलित चिंतक को इस पर अपनी जुबान खोलते देखा-सुना? नहीं न! इसे कहते हैं नमक हलाली।
23।12।16

फिल्म दंगल के बहाने मोदी का मंगल-गान!

बड़े साहबज़ादे ने 'दंगल' के लिए ऑनलाइन टिकट-आदेश भेजा तो बाकी लोगों के साथ मैंने भी बड़ेदिन पर फिल्म देख ली।
*
इस फिल्म को देखते हुये एक मिनट के लिये भी मोदी और देश का आभिजात्य वर्ग (भाजपा समेत विपक्ष, नौकरशाही, बुद्धिजीवी तबका )मेरी आँखों से ओझल नहीं हुये। सो कैसे?
*
फिल्म का नायक महावीर सिंह फोगट माने मोदी,
गाँव घर के लोग मतलब देश के लोग,
फोगट ने बेटी गीता को देश के लिये कुश्ती में स्वर्णपदक दिलाने की ठान ली है मतलब कालेधन-भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई जिसका एक हथियार है नोटबंदी,
स्पोर्ट्स अकादेमी का कोच और निचले स्तर तक उसके लोग मतलब भ्रष्टाचार में लिप्त राजनैतिक-बौद्धिक-नौकरशाही तंत्र।
*
जैसे लाख बहकावे एवं सामाजिक-मनोवैज्ञानिक-आर्थिक चुनौतियों के बजवजूद गाँव-घर के लोग अंततः फोगट के साथ खड़े हैं, वैसे ही मोदी के साथ पूरा देश खड़ा है...
लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में व्यवस्था से ऊपर से लेकर नीचे तक जुड़े लोग आज मोदी के खिलाफ हैं...जैसे स्पोर्स्ट्स अकादेमी का कोच जब सब जगह से फेल हो जाता है तो फोगट को धोखे से एक सूनसान कमरे में बंद करवा देता है ताकि दंगल लड़ते वक़्त जब गीता अपने बाप को न देखे तो वह मनोवैज्ञानिक रूप से टूट जाए... लेकिन पूर्व नेशनल कुश्ती चैंपियन फोगट ने अपनी बेटी को तैरना सिखाते वक़्त एक बार कहा था:
हर वक़्त बाप तुम्हारे साथ नहीं होगा, तुम्हें ख़ुद ही संघर्ष करके बाहर निकलना होगा... और मैच से पहले बेटी जब अपने कोच बाप से रणनीति पूछने गई तो उसने पूरी सिद्दत से कहा: यह याद रखो कि तुम देश के लिए खेल रही हो, लाखों लड़कियों के लिये मिसाल बननेवाली हो और मिसालें भूली नहीं जातीं।
क्या मोदी ने देश की जनता को तैयार नहीं कर दिया है हर मनोवैज्ञानिक लड़ाई में विजयी होने के लिए?
*
सन्देश साफ है: निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचते ही सारा तंत्र आपके खिलाफ खड़ा हो जाएगा लेकिन अंततः खुद पर भरोसा और आम लोगों का भरोसा ही  काम आएगा।
*
आप ही बताइये भक्त के सिवा और किसकी औकात है दंगल के बहाने मोदी-मंगल गान की!

नोट:
1. तीन घंटे की इस फिल्म का एक सेकण्ड भी बेकार नहीं है। कहानी, गाने, निर्देशन, कैमरा, सेट डिज़ाइन, लोकेशन, कॉस्ट्यूम, संगीत, पात्रों के अभिनय कुछ भी ऐसा नहीं जिस पर आमिर ख़ान की छाप न हो। तब भी यह फिल्म 75% आमिर ख़ान की एक्टिंग ही है और वह भी लाजवाब। आमिर ऐसी दस फिल्में बनायें और उनकी पत्नी किरण राव हमलोगों को हमारी 'असहिष्णुता' की याद दिलाती रहें, हमें मंज़ूर हैं। गाँव में एक कहावत है:
दुधारू गाय के लातो भली!
2. फिल्म के शुरू और आख़िरी दोनों बार राष्ट्रगान 'जनगणमन' के लिये बच्चों के नेतृत्व में खड़ा होना और गान के सुर में ओठ फड़फड़ाना कहीं अंदर तक धँस गया। लगा हम भले ही अगली पीढ़ी को जागृत भारत न दे पाए हों लेकिन देश अब अपने जागृत युवक-युवतियों के हाथों में सुरक्षित है।

#Dangal #Bhakt #ModiMangalGaan #Modi
#दंगल #भक्त #मोदी_मंगलगान #मोदी
25।22।16

शुभ क्रिसमस! शुभ तुलसी पूजन!! शुभ मालवीय जयंती!!! शुभ ये शुभ वो...

हम आज क्रिसमस मना रहे हैं,
हम आज तुलसी पूजन कर रहे हैं और
हम आज मालवीय जी और अटल जी के जन्मदिन मना रहे हैं।
यह सब जानते हुए कि ईसा मसीह का असली जन्मदिन कुछ और है, हम घनघोर रूप से उत्सवधर्मी हैं और सबकी ख़ुशी में खुश होना चाहते हैं और जानते हैं जो अपने को ईसाइयत के केंद्र होने का दावा करनेवाले पश्चिमी गोरे कत्तई नहीं जानते। नहीं तो ईसा मसीह के जन्म-मृत्यु की असलियत बतानेवाले ओशो को रीगन प्रशासन थेलियम ज़हर देकर देशबदर नहीं करता।

ईसा मसीह को बौद्ध परम्परा में बोद्धिसत्व माना जाता है, उनके सरमन ऑन द माउंट में बुद्ध के सारनाथ-उपदेश देख लीजिये। वे मरे भी लंबी आयु में कश्मीर में, उनके बचपन के महत्वपूर्ण साल भी यहाँ बीते।

वैसे यह बात जर्मन मजहब-शास्त्री Holger Kirsten ने अपनी पुस्तक Jesus Lived in India (Penguin, 1984) में भी कही थी। लेकिन कहाँ वो गोरा जर्मन और कहाँ एक ग़रीब देश का साधू ओशो। फिर गोरो ने तो अश्वेतों को सभ्य बनाने का बोझा (Whiteman's Burden) भी उठाया था : उन्हें जन्म लेने के पाप से मुक्ति दिलाकर, उन्हें ईसाई बनाकर! वैसे ईसा के मूल प्रवचन में यह नहीं है, ईसाई उपनिवेशवादियों ने पूरी  दुनिया पर चर्च के मार्फत बौद्धिक राज करने के लिये यह साज़िश रची थी। लेकिन यह सोच ईसाइयत का हिस्सा आज भी है और लंबे समय से है।

क्या यह बताने की भी जरुरत है कि महात्मा बुद्ध ईसा से लगभग छह सौ साल पहले हुये थे और ईसा भई भारत  के कम्युनिस्ट एक ज़माने में 15 वीं सदी के कबीर को मार्क्सवादी (मार्क्स 19 वीं सदी में थे) कहने का रिकॉर्ड बना चुके हैं!

शुभ क्रिसमस!
शुभ तुलसी पूजन!!
शुभ मालवीय जयंती!!!
शुभ अटल जयंती!!!!
शुभ ये शुभ वो...
*
ओशो के उस प्रवचन के महत्वपूर्ण अंश का लिंक भी जो हमें श्री Ravishankar Singh सौजन्य से प्राप्त हुआ है:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=627919664046938&id=100004867300433

25।12।16

विमर्श-जिहाद के तीन चरण हैं...

गुरु, यह कहीं किसी अंतिम किताब में किसी अंतिम पैग़म्बर ने अपना इल्हाम दर्ज़ किया है कि पत्रकारिता, राजनीति और शिक्षण के पेशों से जुड़े लोग सिर्फ़ जिहाद करेंगे, विमर्श-जिहाद नहीं?
*
विमर्श-जिहाद के तीन अन्तरगुंथित चरण हैं:
1. तथ्य,
2. ट्रेंड (प्रवृत्ति) और
3. विचार।
*
इन तीनों पर अपनी बातों को कसकर देखिये, आनंदानुभूति होगी।
त्वरित टिप्पणी के चक्कर में पड़ियेगा तो इस आनंद से वंचित रहियेगा।
*
शुभ क्रिसमस!

#शुभ_क्रिसमस #विमर्श_जेहाद #जिहाद #जेहाद #पैग़म्बर #अंतिम_किताब
#MerryChristmas #Love #Jesus
#FactTrendsIdeas #Information #Trends #Ideas #Dialogues

25।12।16

पेट मसरूफ़ है क्लर्की में, दिल है ईरान और टर्की में: अकबर

पेट मसरूफ़ है क्लर्की में
दिल है ईरान और टर्की में।
                                    ---अकबर इलाहाबादी

सैफ़ (जिहाद की तलवार) के पुत्र 'तैमूर'(फ़ौलाद, शेर)  को लेकर ये हुआँ-हुआँ क्यों है?
विमर्श के दो पहिये हैं सहमति-असहमति। यहाँ शास्त्रार्थ की हज़ारों साल पुरानी परम्परा रही है। हम प्रतीकों, सभ्यता गत दृष्टि और समाज-मनोविज्ञान के सन्दर्भ में विमर्श करना चाहते हैं जिसके खिलाफ सामी मतावलंबी खेमों ने मोर्चा बाँध लिया है।

इसका कारण उनका डीएनए है। ईसाइयत-इस्लाम-साम्यवाद ने पिछले दो हज़ार सालों में विरोध करनेवाले करोड़ों को मौत के घाट उतार दिया फिर भी अपने पंथ के भीषण नारसंहारियों को ये महानायक मानते: माओ, स्टालिन, पोल पॉट, तैमूर, चंगेज़ ख़ान, बिन क़ासिम, अब्दाली, नादिर शाह, ग़ज़नी, ग़ौरी आदि।

भारत से लेकर यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका तक हिंसा को जिहाद और क्रान्ति के रूप में महिमामंडित करनेवाले इन  दर्शनों का प्रतिकार हो रहा है और वामपंथी-इस्लामी गठजोड़ को बेनकाब किया जा रहा है।
भारत ने बहुत पहले ही इसकी काट निकाली।

अशोक को महान तब माना गया जब उसने हिंसा को छोड़ बौद्ध धर्म अपनाया। यह है सभ्यतागत  दृष्टि। लेकिन इस दृष्टि को यहाँ के वामी-इस्लामी और तथाकथित उदारपंथी कायरता मान बैठे और 'कश्मीर', बंगाल', 'केरल', और 'भारत -की -बर्बादी -तक वाला जेएनयू' खड़ा कर दिया।

विमर्श में असहमति-विरोधी इस दृष्टि का पुख़्ता प्रमाण है सेकुलर-वामी-इस्लामी लोगों की फेसबुक वाल जहाँ से 'कश्मीर', 'बंगाल', 'केरल' , 'जेएनयू' और 'तैमूर' सिरे से ग़ायब हैं। दूसरी तरफ़ भारत-विभाजन का इस्लाम-सम्मत अलतकिया (झूठा) पाठ पेश किया जाता है जिसे वामपंथी स्वीकृति प्राप्त है। हिंदुओं पर विभाजन की
उतनी ही जिम्मेदारी थोप जी जाती है जितनी कि मुसलमानों पर जबकि मुस्लिम लीग ने मजहब -आधारित द्विराष्ट्र सिद्धान्त दिया था जो इक़बाल की काव्य कोख़ में पैदा हुआ:

हो जाए ग़र शाहे ख़ुरासान का इशारा
सजदा न करूँ हिन्द की नापाक ज़मीं पर।

यही इक़बाल आज भी वामी-लिबरल-इस्लामी चिंतकों के वैचारिक नायक हैं। लेकिन इसे कूड़ा करार देनेवाले अकबर इलाहाबादी को हम क्यों न याद करें जो हमारे सभ्यतागत विमर्श के बेज़ोर स्तम्भ हैं?
अकबर ने इक़बाल से पहले ही आगाह कर दिया था:
पेट मसरूफ़ है क्लर्की में
दिल है ईरान और टर्की में।
25।12।16

Saturday, December 24, 2016

The agenda of Kashmiri Jehadis is the same as that of ISIS in Iraq-Syria

The agenda of Kashmiri Jehadis is the same as that of ISIS in Iraq-Syria: Nizame Mustafa or ISLAMIC Rule by annihilating the rest if necessary.

Good that the OIC has voiced its support for Jehadis. This is an unintended diplomatic win for India.
Has OIC ever discussed the strategy to deal wih the Syrian refugee crisis? No. Why? They are unanimous on the command of the Allah to turn the Darul Harab (non-Islamic states) into Darul Islam (Islamic states) through Jehad including Kafir Wajibul Qatl (killing of Kafirs is justified).

Had it not been so, they wouldn't have had engaged in the Ethnic Cleansing of Kafirs (Kashmiri Pandits) in the valley.

 Valley Muslims have completely lost their moral rights of putting the blame on  Alienation until what they mean by this is :
non-cooperation of the government in their efforts to bring the valley under Islamic Rule.
24।8।16

एक लड़ाई जिसे 1200 सालों से देसी व्याकरण का इंतज़ार है

बौद्धिक वर्ग की मानसिक ग़ुलामी का डीएनए टेस्ट

असली लड़ाई मन की थी और है... ये वो लड़ाई है जिसे 1200 सालों से देसी व्याकरण का इंतज़ार है
महान संत कबीर और योद्धा-संत गुरुगोविंद सिंह में इस्लामी हिंसा और कट्टरता को टक्कर देने का सऊर था।

सिखों में किताब को ही अंतिम गुरु मानना और सामरिक चुनौती के मद्देनजर पंथ को ढाल लेना आकस्मिक नहीं था। जो नागा लगभग समाज-बहिष्कृत रहे उन्हें सिख पंथ के तर्ज़ पर समाज का जरूरी और नियमित हिस्सा क्यों नहीं बनाया जा सका।

बुद्ध की अहिंसा को पटखनी देने के चक्कर में 'धर्मो रक्षति रक्षितः' वाला वैदिक ब्राह्मण 'अहिंसा परमो धर्म: ' के अपने ही चक्रव्यूह में मकड़े की तरह फँस गया और फँसा गया।
जबतक वर्णव्यवस्था और वांछित हिंसा को ब्राह्मणों ने नहीं छोड़ा तबतक वे समाज के अगुवा रहे। नक़ल में मारे गए गुलफ़ाम।

10 करोड़ से ज़्यादा लोगों को मौत के घाट उतारने वाले स्टालिन-लेनिन-माओ-पोल पॉट -चे गवारा-फिदेल कास्त्रो पैग़म्बर से कम नहीं हैं;
दीन के केंद्र में हिंसा को रखने वाले मुहम्मद इस धरती के अंतिम पैग़म्बर हैं;
ईसाई -मुसलमान बनाने के लिए सीधे या छिपाके  खूब हिंसा करने-करानेवाले संत और सूफ़ी हैं;
जबकि आत्मरक्षा में हथियार उठानेवाले प्रताप-शिवाजी-गुरुगोविंद सिंह और नागा साधू ठग-लुटेरे हो गए!

असली लड़ाई तो मन की थी और है। एक लड़ाई जिसे 1200 सालों से देसी व्याकरण का इंतज़ार है।
25।8।16

Santa: Is there any economics of marriage?

Santa: Is there something called economics of marriage?
Banta: Sure.
Santa: But it's not clear to me.
Banta: Divorce is the key to understanding this economics.
26।8।16

वेश्यावृत्ति को शिक्षण या चिकित्सा जैसा सम्मान क्यों नहीं?

जिस दिन से भारत का समाज एक पेशे के रूप में वेश्यावृत्ति को वही सम्मान देना सीख जाएगा जो शिक्षण या चिकित्सा का है, उसी दिन से इसके अच्छे दिन बहुरने लगेंगे।
27.8.16

Friday, December 23, 2016

Kashmir: It's the fight for the rule of Shari'a, not Azadi

Some of my Muslim and Secular friends are wailing over how the Kashmiri Muslims would be living their life in the five districts wherein curfew has been clamped for 50 days in a row?

Dear friends, do you bother to imagine how Kashmiri Pandits were thrown out of their homes in 1990s?
Do you remember the exact deadline by which they had to leave the valley? If they exceeded this deadline, they were asked to leave back their womenfolks in their forced exile to places they had never even thought of ?
Do you imagine the conditions under which they lived?
Do you imagine how many were raped, killed or kidnapped?
No, you don't want to imagine. The Kafirs must be made to bite the dust, so commands the Almighty Allah.

The situation in Kashmir is akin to that in Iraq-Syria. It's the fight for the rule of Shari'a at both the places. No mistake in this. Not many Muslims except the ilks of Tufail Ahmad or Tarek Fatah or Hassan Nisar will have the guts to accept this. Most of them are silently praying for the heaven that Islamic Rule is! And why not so? A practising Muslim is above the law of the land, so says the Holy Book. Please refer to the following concepts:

■Kafir (Non-believers)
■Darulislam( House of Islam or Believers)
■Darulharab (House of Non-believers)
■Ghazwa-e-Hind (Islamization of India
   through Jehad)
■Qattal Fee Sabeelillah(Killing in the Way
   of the Almighty Allah)
■Jehad Fee Sabeelillah (Jehad in the Way
   of the Almighty Allah)
■Kafir Wajibul-qatl (Killing of Kafirs is
   Appropriate)


Kashmiri Muslim neighbors were hands-in-glove with Jehadis who promised Nizame Mustafa and also control over the property of the Kafirs(KPs). Holding KPs responsible for their ethnic cleansing tantamounts to holding Yazidi women responsible for their gang-rape by ISIS shantidoots! In Islam, this is known as ALTAKIYA and is HALAL too. No one except the bigots will buy this logic.

We now know all this because your MUSLIM BROTHERHOOD is doing the same globally.
Some wonderful studies are also in place:
* A God Who Hates by Wafa Sultan
* Slavery, Terrorism and Islam by Peter
   Hammond
* Allah is Dead: Islam is not a Religion
  by Rebecca B.

28।8।16

भगवा मुल्ले बनाम राष्ट्रवादी

भगवा मुल्ले बनाम राष्ट्रवादी

अनेक राष्ट्रवादी लोगों में निराशा है। भगवा मुल्लों के ज़्यादा प्याज खाने से वे दुःखी हैं। मोदीभक्तों की कमबख्ती उन्हें परेशान कर रही है।

तो भई, आप भगवा मुल्लों की ताक़त का इस्तेमाल करिये। जिस दिशा में गेंद जा रही है उसको बस उसी दिशा में अपनी सुविधा से डिफ्लेक्ट करिये। विपरीत दिशा में मारने पर लाभ कम और मेहनत ज्यादा।

नींव भवन से गुस्सा थोड़े न होती है ! वह तो भवन की हक़ीक़त को भवन से भी ज़्यादा जानती है।
30।8।16

"पटना नगरी छार दिहिन अब बेदिल चले बिदेस"..

"पटना नगरी छार दिहिन अब बेदिल चले बिदेस'...

बिहार से निकल आज दिल्ली के 'विहारों' में बसे लगभग 50 लाख प्रवासियों की टीस पर मानों 250 साल पहले लिखी यह पंक्ति कितनी सटीक बैठती है।अपना घर-बार गली-मोहल्ला छोड़ परदेस का रुख करनेवालों के दर्द और सपनों को बयां करती यह लाइन मानों महाकाव्यात्मक गहराई लिए हमें निमंत्रण दे रही है:
खड़ी बोली की कोई ऐसी लाइन हो तो दिखाओ!

जानकार कहते हैं कि यह पंक्ति मगही की कविता का हिस्सा है जिसे 18वीं सदी में फ़ारसी के बहुत बड़े शायर बेदिल ने रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली रवाना होने के पहले लिखी-कही थी।

दिल्ली तब भी 'बेदिल' की ना हुई, दिल्ली आज भी बेदिल के हमवतनों से दूर है। लेकिन दिल्ली से आशनाई तब भी थी, आज भी है। दिल्ली के पास दिल नहीं है, इसीलिए इसे दिलवाले चाहिएँ। दिल्ली दिल देती नहीं , दिल को भकोसती है। इसके बाद भी आप बच जाएँ तो आप बहुत बड़े दिल-वाले हैं, हिम्मती हैं।

बेदिल ने भी हौसला नहीं छोड़ा। प्रगति मैदान के पास मटकापीर के सामने उनकी मज़ार है।बिहारियो, कभी मत्था टेक अइयो।
30।8।16

नेहरू और इन्दिरा ने धृतराष्ट्र-दृष्टि सम्पन्न विद्वानों की एक फौज जुटायी

भारत के इतिहास का पुनर्लेखन करने के लिए नेहरू और उनकी बेटी इन्दिरा नेहरू गाँधी ने धृतराष्ट्र-दृष्टि सम्पन्न विद्वानों की एक फौज जुटायी।
बहुत मेहनत करके इन इतिहासकारों ने खोज निकाला कि औरंगज़ेब नेहरू जी की तरह ही सेकुलर था और राणा प्रताप-शिवाजी -गुरुगोविंद सिंह कम्युनल , ठग और लुटेरे थे। फिर यह भी साबित पाया गया कि नेहरू वंश के हाथ में काँग्रेस और भारतीय लोकतंत्र दोनों का भविष्य सुरक्षित है। आजतक किसी ज्योतिषी ने इतिहाकारों की इस भविष्यवाणी को चुनौती नहीं दी है।
31।8।16

भीष्म बनाम परसुराम

महान त्यागी पर सत्तानिष्ठ भीष्म पितामह को माफ़ नहीं किया गया। मातृहंता और घोर क्रोधी परशुराम को राम का अवतार माना जाता है, उनकी पूजा होती है। क्यों?
1।9।16


जेएनयू की देशतोड़क छवि को बदला कैसे जाए?

जेएनयू की देशतोड़क छवि को बदला कैसे जाए?
कौन करेगा और क्यों?
इससे किसको डायरेक्ट फ़ायदा होगा?

जेएनयू के छात्र-छात्राओं को लोग देशतोड़क मानने लगे हैं। ट्रेन-बस में लोग संदेह करने लगे हैं, उनके साथ मारपीट की भी खबरें हैं।वहाँ से पास आउट लोगों को मकान किराये पर मिलने में दिक्कत हो रही है। नौकरी के लिए इंटरव्यू में लोग उनसे उल्टे-सीधे सवाल पूछते हैं और अंत में नौकरी भी नहीं देते।


जेएनयू की देशतोड़क छवि का नुकसान सिर्फ़ वहाँ के वामपंथी लोगों को नहीं हो रहा क्योंकि बाहरवालों के लिए तो वहाँ का हर व्यक्ति वामपंथी ही है, देशतोड़क ही है। लेकिन क्या यह सच है?

मुश्किल से 10-15 % लोग वामपंथी होंगे , और वह भी समाजविज्ञान और साहित्य-भाषा विभागों में। विज्ञान विभागों के तो ज्यादातर लोग जाने-अनजाने राष्ट्रवादी सोचवाले हैं ।ऐसा इसलिये कि मानसिक ग़ुलामी का परचम लहरानेवाले समाजविज्ञान और भाषा-साहित्य विभागों के शिक्षकों और उनकी किताबों से उनका लंबा साबका नहीं पड़ता और वे हर फ़ैसले को विचारधारा से ज़्यादा तथ्यों के सन्दर्भ में तौलने के आदि हो जाते हैं। फ़िर अन्य सामान्य लोगों की तरह कॉमन सेंस का इस्तेमाल करते हैं और देशप्रेम उन्हें शर्म नहीं गर्व का विषय लगने लगता है।

तो असली चुनौती यह है कि जेएनयू की जो देशतोड़क छवि बनी है उसको कैसे बदला जाए। वैसे तो यह दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा होना चाहिए लेकिन छात्रसंघ चुनाव का अगर सही इस्तेमाल हो तो जेएनयू की छवि को हुए नुकसान की बहुत हदतक भरपाई हो सकती है।

यानी अगर छात्रसंघ चुनाव में वामपंथी संगठनों को करारी शिकस्त मिले तो पूरे देश में यह सन्देश जाएगा कि जेएनयू के ज्यादातर पास आउट न पहले देशतोड़क रहे न अब हैं। ये तो कुछ वामी शिक्षक हैं जो उनका गलत इस्तेमाल करते रहे हैं। और सही भी यही है कि भोले-भाले छात्र-छात्राओं को शिक्षक जैसे चाहते अपने इशारों पर नचाते हैं।
2।9।16

JNU and the Left Academic Lumpenism

JNU and the Left Academic Lumpenism

Lumpenism and genocides of the worst kind are preserves of the left icons globally: Stalin(2.5 crore killings), Mao(4.5 crore killings); back home WB tops the  lumpenism chart in India, thanks to more than 30 years of the left rule there.

The left in JNU killed the basic spirit of social science enquiry and produced academic mediocres who concluded before collecting data. The academic prestige of JNU is sustained by sciences, NOT social sciences, humanities etc that are dominated by the left. Isn't it an act of  lumpenism that you stop a PM (Indira Gandhi) from speaking to the students?

 You welcome the Breaking India forces and oppose the entry of a Home Minister (P Chidambaram) or a renowned academic (Subramanian Swamy or Arun Shourie) to talk to the students and still want to be known as intellectually vibrant?

Diversity of views is key to intellectualism and JNU Social Sciences and Humanities Professors are known to have only prevented the opposing views from being articulated in the campus. Is this less than ACADEMIC LUMPENISM?

Just try to list five Social Science  journals published by JNU and five social scientists known for their seminal contribution from indigenous perspective. Indian Express or for that matter any newspaper is no authority to certify a university on academics.

The LEFT has failed globally as it has delivered only poverty and genocides. What's the reason for its romantic sustenance in JNU? Has any professor contributed substantially to the evolution of even socialist thought?

Just a natural question: what attracts you to the left and what global and national data you have to justify your association?

The Social Sciences(SS) Lumpenism in JNU hides behind the Sciences' Good Work. Hence, the academic fraud and anti-intellectualism of SS and allied subjects need to be exposed.

Anti-intellectualism of the Left is a proven fact globally. Science can/should research on Gomutra (or for that matter anything that comes as a scientific challenge) and come out with verifiable findings.

Rejecting research on a matter with ritual significance makes science itself a victim of ritualism by nullyfying the process of enquiry. I may not like a few things but that doesn't mean that my dislike should stop me from subjecting those things to enquiry. This is what turned Hitler, Stalin, Mao and Pol Pot into mass-murder machines.
2।9।16

जेएनयू के छात्र अगर इसबार चूके तो गए काम से

जेएनयू के छात्र अगर इसबार चूके तो गए काम से

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव-2016 में वोटरोंं के पास दो ही विकल्प हैं:
■ पहला, वे भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखनेवालों को वोट देकर कैंपस के बाहर बसे भारत से लात-जूते खाएँ , बेरोजगारी झेलें और गद्दार कहलायें।

■ दूसरा, वे भारत की बर्बादी के सपने देखनेवालों को करारी शिकस्त देकर जेएनयू की 'गद्दारों का अड्डा' वाली छवि को बदल डालें; अपना खोया सम्मान वापस पाएँ, बेरोज़गारी झेलने से बचें और अपना तथा देश का भविष्य सुधारें।

■ पहला विकल्प 99 प्रतिशत छात्रों के भविष्य को ख़राब करनेवाला है और देशतोड़क है। दूसरा विकल्प 99 प्रतिशत छात्रों के भविष्य को बचानेवाला है और देशजोड़क है।
■ याद रहे जेएनयू से पास होने के बाद ज्यादातर लोग नौकरी ढूँढते हैं, नौकरी सृजित नहीं करते; और एक गद्दार भी ईमानदार को ही नौकरी देना चाहता है, गद्दार को नहीं।
■ इसलिये जेएनयू के शिक्षक-कर्मचारी-छात्र सबका कर्त्तव्य है कि वे समय की माँग को समझें और अपने विश्वविद्यालय के माथे पर लगा जयचंदी दाग मिटा दें।
■ इसमें सबसे बड़ी जिम्मेदारी विज्ञान और भाषा विभागों के छात्र-छात्राओं की है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बिना बंद किये ही जेएनयू के SSS, SIS और SLL& CS बंद हो जाएँगे क्योंकि वहाँ धीरे-धीरे ADMISSION होना बंद हो जाएगा जब वहाँ के pass out को नौकरी नहीं मिलेगी।

■ हरियाणा में 25000 करोड़ की लागत से एक  विश्वविद्यालय खोला जा रहा है जहाँ से सालाना एक लाख छात्र पास होकर निकलेंगे और जिन्हें बेहतरीन स्तर की ट्रेनिंग मिलेगी। ऐसे में 'देशतोड़कों के अड्डे' जेएनयू से निकले लोगों को कौन पूछेगा?
4।9।16

1991 में कितनों को मालूम था कि USSR ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा?

1991 में कितने लोगों को मालूम था कि USSR ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा?

कुछ लोग कह रहे हैं कि जेएनयू छात्रसंघ चुनाव परिणाम से साफ़ हो जाएगा कि यह विश्वविद्यालय देशतोड़कों का अड्डा है या नहीं। परन्तु ऐसा कहना सिर्फ़ एक राजनीतिक तर्क है, रणनीतिक नहीं।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चुनाव का क्या परिणाम होता है। जेएनयू की वर्तमान स्थिति जो है वो है। जयचंद और मीरज़ाफ़र को भी किसी ने या उसके विवेक ने आगाह ज़रूर किया होगा। उन्होंने अपनी प्रचण्ड आत्महंता मूर्खता के आगे किसी की कुछ न सुनी और परिणाम भारत आजतक भुगत रहा है।

गाँठ बाँध लीजिये, अगले दस सालों में भारत के शीर्ष दस विश्वविद्यालयों में जेएनयू का शायद नाम भी ना हो। नाम होगा तो विज्ञान विभागों का जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग का दुनिया के शीर्ष विभागों में नाम था लेकिन विश्वविद्यालय का टॉप 225 में भी नहीं।

इसलिये सवाल यह है ही नहीं कि आप सही कि मैं, सवाल है कि हमारी (जेएनयू की) असल स्थिति क्या है।

1991 में कितने लोगों को मालूम था कि USSR ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा?

  • 4।9।16

संता: गाँधी और नेहरू में अच्छा बाप कौन था?

संता: गाँधी और नेहरू में अच्छा बाप कौन था?
बंता: दोनों बहुत अच्छे बाप थे।
संता: कैसे?
बंता: बापू ने राष्ट्र के लिए अपनी संतानों की परवाह नहीं की और नेहरू ने संतान के लिए राष्ट्र की।
5।9।16

जेएनयू में भारत की बर्बादी के नारों के क्या निहितार्थ हैं?

जेएनयू में भारत की बर्बादी के नारों के क्या निहितार्थ हैं?
यह वैचारिक श्मशान बनने के कगार पर खड़े जेएनयू का सूचक है या फिर श्मशान के ही बस्ती समझे जाने का भ्रम?
जेएनयू छात्रसंघ का चुनाव ज़िंदा लाशों की जुंबिश है या आत्मविस्मृति (Amnesia) के शिकार लोगों के ज़िंदा होने की कोशिश?
6।9।16

आप या तो मुसलमान हैं या उदार, दोनों एक साथ सम्भव है क्या?

आप या तो मुसलमान हैं या उदार।दोनों एक साथ तो इस्लाम-विरोधी है या अलतकिया?
6।9।16

भारतीय नवजागरण-सीजन 2: आहिस्ता, आहिस्ता पर पक्का

भारतीय नवजागरण-सीजन 2: आहिस्ता, आहिस्ता पर पक्का

भारत के दिल की देहरी पर एक नवजागरण दस्तक दे रहा है...आहिस्ता, आहिस्ता पर पक्के तौर पर ।

अगर आप खबरची हैं तो आपने इसके दर्शन कर लिए होंगे मगर क्या अखबारों और खबरिया चैनलों की नज़र से?

नहीं , क्योंकि वहाँ तो तथ्यों की रेलमपेल है और सत्य के लिए किसी के पास टाइम है नहीं...

तो फिर आपने कैसे किया सत्य का साक्षात्कार?

पहला, मैं खबर लिखता हूँ, पढ़ता या देखता नहीं । दूसरा, अपने दोस्तों से संवाद बनाए रखता हूँ फेसबुक, मेल और ट्वीटर पर।तीसरा, किसी भी ज्यादा पढ़े-लिखे फारेन रिटर्न से बौद्धिक दूरी बनाए रखता हूँ ।

कमाल के आदमी हो यार!

कमाल ही तो हो रहा है...किताबों के चौखटे को लाँघ भारत घूमने निकल पड़ा है- नगर-नगर, डगर-डगर, चौक-चौराहा, गाँव-देहात, खेत-खलिहान,बाग-बगीचे, ताल-तलैया, नदी-नाले-पहाड़, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-गिरिजाघर-मठ, धरती-आसमान, खुदा-भगवान, हिन्दू-मुसलमान, सिख-ईसाई-पारसी-जैन-बौद्ध-कबीरपंथी... कुछ नहीं बचा।सबकी अपनी-अपनी जुबान पर राग है एक ही।

कौन सा राग है भाई?

देशराग...जिसे भक्त संतों ने गाया, जिसे आजादी के दिवानों ने गाया, जिसे मजदूर-किसानों ने गाया...
यानी, बोल अनेक, पर राग है एक?

हाँ जी । बोल अनेक पर राग है एक ।

पर ये सब हुआ कैसे?

बाबू, अभी हुआ कहाँ? बस शुरू हुआ है। हाँ, इसकी सवारी है मोबाइल, इंटरनेट और भारत की सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ।

इससे क्या होगा?

होगा नहीं, शुरू हो चुका है--नवजागरण । भारत बोल रहा है, हिन्दुस्तां बोल रहा है, इसकी संतानें एक-दूसरे से बिना बिचौलिये की मदद के गुफ्तगू कर रहीं हैं...आहिस्ता, आहिस्ता पर पक्के बतौर पर ।
7।9।16

जेएनयू के सेकुलर नायक बख़्तियार खिलजी!

जेएनयू के वामी-झामी गिरोह ने यह अफवाह फैला दी है कि अगर वे फ़िर नहीं जीते तो जेएनयू को Shut Down कर दिया जाएगा। कोई इनसे पूछे कि भई जहाँ-जहाँ आपके पाँव पड़े वहाँ तो शिक्षा और उद्योग का शटर डाउन हो गया। कैंपस में भी ये लोग उनके कट्टर समर्थक हैं जिनके नायक बख़्तियार ख़िलजी ने विश्वप्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय को ही जला दिया था यह कहते हुए कि वहाँ क़ुरआन की प्रति नहीं थी। वैसे चाहता तो वो क़ुरआन की दर्जनों प्रतियाँ विश्वविद्यालय को गिफ्ट भी कर सकता था।

आज का नारा:
देशद्रोहियों बाहर जाओ जेएनयू हमारा है...
7.9.16

अंग्रेज़ी मानसिक ग़ुलामी और अज्ञान पर पर्दा डाल देती है

संता: हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ी लिखने-बोलने का क्या लाभ है?
बंता: यह यहाँ के लोगों की मानसिक ग़ुलामी और अज्ञान पर पर्दा डाल देती है।
7.9.16

Thursday, December 22, 2016

क्या इस छवि को बदला नहीं जा सकता?

आज जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों को लोग जयचंद और मीरज़ाफ़र के रूप में देख रहे हैं। जब से वहाँ 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' का नारा लगानेवालों का पर्दाफाश हुआ तब से पूरे देश में जेएनयू की छवि एक देशतोड़क अड्डे की बन गई है।
क्या इस छवि को बदला नहीं जा सकता?
कौन और कब करेगा?
क्या छात्रसंघ चुनाव एक ऐसा ही मौका नहीं है?
8।9

जीते कोई भी, जेएनयू के माथे का जयचंदी दाग़ मिटाये तो बात बने

जीते कोई भी, जेएनयू के माथे का जयचंदी दाग़ मिटाये तो बात बने

लोग कह रहे हैं कि जेएनयू छात्रसंघ चुनाव परिणाम से साफ़ हो जाएगा कि यह विश्वविद्यालय देशतोड़कों का अड्डा है या नहीं। परन्तु ऐसा कहना सिर्फ़ एक राजनीतिक तर्क है, रणनीतिक नहीं।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चुनाव का क्या परिणाम होता है। जेएनयू की वर्तमान स्थिति जो है वो है। जयचंद और मीरज़ाफ़र को भी किसी ने या उसके विवेक ने आगाह ज़रूर किया होगा। उन्होंने अपनी प्रचण्ड आत्महंता मूर्खता के आगे किसी की कुछ न सुनी और परिणाम भारत आजतक भुगत रहा है।

गाँठ बाँध लीजिये, अगले दस सालों में भारत के शीर्ष दस विश्वविद्यालयों में जेएनयू का शायद नाम भी ना हो। नाम होगा तो विज्ञान विभागों का जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग का दुनिया के शीर्ष विभागों में नाम था लेकिन विश्वविद्यालय का टॉप 225 में भी नहीं।

इसलिये सवाल यह है ही नहीं कि आप सही कि मैं, सवाल है कि हमारी (जेएनयू की) असल स्थिति क्या है।

1991 में कितने लोगों को मालूम था कि USSR ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा?

#JNUSUElections #JNU
9।9।16

जेहादी-वामपंथी-चर्च-अमेरिकी गठजोड़ पर दस सालों के अंदर शोकगीत लिखा जाएगा

जेहादी-वामपंथी-चर्च-अमेरिकी गठजोड़ पर दस सालों के अंदर शोकगीत लिखा जाएगा

वामपंथियों को जो मदद पहले सोवियत संघ से मिलती थी वह अब अमेरिकी और पाकिस्तानी संगठनों तथा चर्च से मिलती है। पता करिये आईएसआई एजेंट फ़ई ने कितने वामियों की अमेरिका में मेहमाननवाज़ी की है? CPI के चेनॉय को तो एकाधिक बार। कन्हैया बाबू भी इन्हीं की पार्टी के हैं।यही हाल माओवादियों और नक्सलियों का है।

कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश का कोई भी मुद्दा ले लीजिये, जेहादी और वामी आपको एक ही पायदान पर खड़े मिलेंगे। यहाँ के वामपंथी या तो जंगली इलाक़ों में अपहरण- फ़िरौती के कारोबार में लगे हैं या केरल-त्रिपुरा-जेएनयू में उनके साथ चट्टान की तरह खड़े हैं जिनका नारा है:
भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह।

वैसे एक दशक के भीतर भारत के लोग वामपंथियों का मर्सिया (शोकगीत) भी लिखेंगे।
सो कैसे?
चीन और भारत ज़्यादातर मुद्दों पर आमने-सामने होंगे।चीन की पाकिस्तान से गहरी दोस्ती है। भारत के अधिकांश वामपंथी चीनपरस्त हैं। इसलिये अवाम की निगाह में इन वामपंथियों की पोल खुलती रहेगी। उधर वामियों को मिलनेवाली अमेरिकी सहायता भी धीरे-धीरे घटेगी क्योंकि भारत पर अमेरिकी दाँव चीन-पाकिस्तान से कहीं ज़्यादा होगा।

#China #Pakistan #USA #India #IndianCommunists #Maoists #Naxalites #Church #Jehadis #JNU #Kerala #Tripura #CPI #CPIM #CPIML #Extortion #Kidnapping
9।9।16

जेहादियों की गोद में बैठे वामपंथी?

जेहादियों की गोद में बैठे वामपंथी?

जेएनयू के चुनाव परिणाम अगर वामपंथियों के पक्ष में जाते हैं तो यह बात निस्संदेह साबित होगी कि भारत-विरोध जेएनयू के समाज विज्ञान-भाषा-साहित्य-अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्रों के डीएनए में है और जिसकी जेनेटिक रिइंजिनीअरिंग ज़रूरी है। लेकिन यही बात पूरे देश के विश्वविद्यालयों पर लागू होती है क्या?

जनसमर्थन या वोट अगर एकमात्र पैमाना हो तो हिटलर और लालू को भी सही मानना पड़ेगा। कॉमरेड चंद्रशेखर और चंदाबाबू के तीन बेटों के हत्यारोपी  शहाबुद्दीन को भी सही मानना पड़ेगा।

और तो और, दिल्ली विश्वविद्यालय में 'सांप्रदायिक' ताक़तों की जीत को देश के मूड का बड़ा मानक मानना पड़ेगा क्योंकि वहाँ लगभग ढाई लाख छात्र हैं जबकि जेएनयू में मुश्किल से दस हज़ार। 'दस हज़ार ने चुने गद्दार और ढाई लाख ने खुद्दार' क्या खूब नारा बनेगा! वैसे यह भी सच है कि दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव में धनबल का जबर्दस्त इस्तेमाल होता है और वहाँ देशतोड़क विचारधारा को तवज़्ज़ो नहीं दी जाती।

हवाल यह है कि इसी दस हज़ार छात्रों वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अमेरिका में आईएसआई एजेंट फ़ई के बार-बार मेहमान बने और उसके बदले में सारे तथ्यों को ताक पर रखते हुए उन्होंने फ़रमाया: कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है।
ऐसे विश्वविद्यालय के डीएनए की पड़ताल ज़रूरी हो जाती है। आख़िर बलात्कारियों से लेकर भारत की बर्बादी के नारे लगानेवालों के समर्थन तक इसी या इस जैसे विश्वविद्यालय में क्यों?

एक दिलचस्प बात यह भी है कि जेएनयू में देश की बर्बादी के जिन नारों से पूरा देश दुःखी और अचंभित हुआ, वह जेएनयू के लिए आम बात है।
◆अफ़ज़ल की तीसरी बरसी पर ही जिहादी गोद में बैठे वामियों का देश को पता लग सका।
◆इसके पहले देश-विरोधी मुशायरे में दो सैनिकों की वहाँ पिटाई हो चुकी थी।
◆चीन के थिअनमान स्कवेयर में अप्रैल 1989 में 20000 छात्रों पर टैंक चलाने की घटना को पूँजीवादी साज़िश करार दिया जा चुका था।
◆छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा सीआरपीएफ के दर्ज़नों जवानों की हत्या पर जश्न मनाया जा चुका था।          ◆नेताजी को जापान के सम्राट तोजो का कुत्ता कहनेवाली पार्टी सीपीआई के कन्हैया कुमार को छात्रसंघ का अध्यक्ष चुना जा चुका था।
◆ बांग्लादेश की हिन्दू छात्रा से बलात्कार करनेवाले मुसलमान प्रोफेसर के पक्ष में वामपंथी गिरोह अपनी चट्टानी एकता साबित कर चुका था।
◆आज वहाँ उन शिक्षक और छात्रों दबदबा है जिनके आकाओं ने भारत पर चीनी हमले को "पूरब से आती लाल किरण" कहकर स्वागत किया था; और वे ही लोग कश्मीर-केरल-बंगाल की आज़ादी का राग अलापनेवाले जेहादियों से अपनी गोदभराई करवा रहे हैं।

असली चुनौती यह नहीं है कि जेएनयू के वामपंथी शिक्षक और छात्र जेहादियों की गोद में जाकर बैठ गए हैं। सवाल यह है कि वामपंथियों और जेहादियों में समानता क्या है और क्यों है? जेएनयू की घटनाएँ तो महज लक्षण (Symtom) हैं, असली बीमारी तो कुछ और ही है जिसकी जड़ में जेएनयू की स्थापना के उद्देश्य और वहाँ के शिक्षक तथा उनके द्वारा बनाये सिलेबस हैं।और वह बीमारी है आलोचनात्मक पढ़ाई के नाम पर भारत-विरोध और बहुसंख्यक-विरोध की अकुंठ स्वीकृति।
10।9

संता: जनवादियों के लिए कौन सी जगह सबसे उपयुक्त है?

संता: जनवादियों के लिए कौन सी जगह सबसे उपयुक्त है?
बंता: चीन,पाकिस्तान और उत्तर कोरिया।
संता: सो कैसे?
बंता: जनवादियों की तरह ये तीनों देश भी लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते।
10।9।16

संता: बिहार में शराब पीने पर जेल और लोगों का ख़ून पीने पर बेल है!

संता: बिहार में शराब पीने पर जेल है।
बंता: और लोगों का ख़ून पीने पर बेल है।

नोट: इस पोस्ट का चंदन कुमार के सुराज में भुजंग प्रसाद की पार्टी के सर्वहारा नेता सेकुलरुद्दीन के जेल से छुटने से कोई संबंध नहीं है।

(श्री Tarun Kumar Tarun की पोस्ट से प्रेरित। )
10।9।16

काॅमरेड और शेरू

काॅमरेड और शेरू

संताः जेएनयू के कुत्ते आजकल बहुत चिंतित हैं।
बंताः क्यों?
संताः उनके पिल्ले कह रहे हैं कि जब जेएनयू के क्रांतिकारी लोग खाते भारत का और गाते पाकिस्तान का हैं तो फिर वे क्यों नहीं?
बंताः अरे भई, कुत्तों पर से भरोसा उठ गया तो हिन्दुस्तान के बुजुर्गों, महिलाओं, पुलिस, सेना और बच्चों का क्या होगा!
संताः पिल्ले तो टीवी चैनलों से एकदम से चिपके रहते हैं और खरका धत्त-अंधीप बोंसाई के फैन हो गए हैं।
बंताःभई, देखो ये कोई टीवी-अखबार में सेकुलर-सेकुलर और वामी-सामी खेलने का मामला थोड़े न है जो मन में आए बक जाए?
संताःतो कुत्ते अपने पिल्लों को कैसे समझाएँ?
बंता: उन्हें बताओ कि इन क्रांतिकारियों में कुछ मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट है।
संता: मतलब?
बंता: पहले भी वे अंग्रेज़ों, पाकिस्तान और चीन पर अपनी जान न्यौछावर कर चुके हैं ।एक-दो दशक में अपनी गलती भी मान लेते हैं और लोग उन्हें माफ भी कर देते हैं।
संताः लेकिन इससे तो और नमकहरामी और काहिली की प्रेरणा नहीं मिलेगी?
बंताः वाह! अब तो ये बोल दो: भई, नमकहराम कामरेड बनना है कि देश का वफादार कुत्ता, यह खुद तय कर लो।
11।9

वामपंथ और इस्लाम भाई-भाई हैं

वामपंथ और इस्लाम भाई-भाई हैं
पवित्र किताब इधर भी है उधर भी
पैग़म्बर इधर भी हैं उधर भी
अन्य का संहार इधर भी है उधर भी।

सही मायने में साम्यवाद इस्लाम का ही विस्तार है। ऐसा नहीं होता तो उसपर आधारित साम्यवाद महज 55 सालों में 10 करोड़ के नरसंहार का कारण नहीं बनता , न ही लेनिन-स्टालिन-माओ-पॉल पॉट महानायक होते। ये महानायक तो हिटलर खलनायक कैसे?

सिर्फ़ जिहाद, दारुल इस्लाम, दारुल हरब , मुसलमान, काफ़िर के साथ वर्ग संघर्ष, वर्गविहीन समाज, वर्गविभक्त समाज, सर्वहारा और बुर्ज़ुआ की तात्विक तुलना करके देख लीजिये।

समय मिले तो क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह, जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह, काफ़िर वाजिबुल क़त्ल और ग़ज़वा-ए-हिन्द को चे ग्वारा-स्टालिन-माओ आदि के विरोधी-संहार कार्यक्रमों से मिलाकर देखिये।
11।9।16

बिहार से जेएनयू तक भइया सेकुलर नगारा बजा

बिहार से जेएनयू तक भइया सेकुलर नगारा बजा
बाजा बजा रे बाजा बजा, ई देसवा के बाजा बजा।

बिहार में सेकुलरुद्दीन को जो सामाजिक गरिमा मिली है वही सम्मान देशतोड़कों को जेएनयू में भी मिला है।बिहार की जनता अगर समझदार है तो जेएनयू वाले तो पढ़ेलिखे समझदार हैं। अब न बिहार के लोगों को देश-दुनिया से शिकायत होगी न ही जेएनयू में भारत की बर्बादी की कसमें खानेवालों को।

कहा जा रहा है कि हजारों गाड़ियों का जो काफ़िला भागलपुर जेल से सीवान के लिए चला और मंत्रियों-विधायकों का जो हुजूम अपने नायक के स्वागत में पेश हुआ उसके सामने लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी पानी भरें।

बात भी सही है। भुजङ्ग प्रसाद और चन्दन कुमार हैं तो लोकनायक के ही चेले।सो अब उन्होंने अपने लिए नया लोकनायक खड़ा कर लिया है। जेपी को गए हुए 35 साल से ज़्यादा हो गए। शून्य तो भरना ही था सो सेकुलरुद्दीन आ गए। अब देश को बिन क़ासिम, तैमूर या नादिरशाह की कमी नहीं खलेगी।

उधर अफ़ज़लप्रेमी गैंग का दिल भी गार्डेन-गार्डेन हो गया है। अलगाववादियो और कश्मीरी हिंदुओं के जातिनाश के जिम्मेदार पाकपरस्तों की सुरक्षा पर अरबों रुपये बहाये जा रहे हैं। अफ़ज़ल गुरु की बरसी पर "भारत तेरे टुकड़े होंगे" का नारा लगानेवालों के साथ जेएनयू जैसे इलीट विश्वविद्यालय के छात्र और शिक्षक चट्टान की तरह खड़े हैं।

भारत में 1947 में पहली क्रान्ति हुई थी जब देश का मजहब के आधार पर दिव्य-विखण्डन हुआ था। वैसी ही क्रांति आज मगध से लेकर इंद्रप्रस्थ तक हो रही है।हज़ार सालों के अनुभव को यह देश फ़िर से जी रहा है।
जयचंद, राणा सांगा, मीरज़ाफ़र, मान सिंह, जिन्ना, जोगेन्द्र मंडल आदि की आज धरती और स्वर्ग दोनों में ताजपोशी हो रही है। जहाँ इसका राजनैतिक नेतृत्व किया है महानन्द के मगध -सुराज ने वहीं बौद्धिक कमान संभाली है धृतराष्ट्र के इंद्रप्रस्थ-स्थित एक आश्रम (जेएनयू) ने।

नोट: इस नाचीज़ का मगध-सुराज और इंद्रप्रस्थ-आश्रम दोनों से गहरा सम्बन्ध है। दोनों पर गर्व है। तो आइये, आप भी मेरे साथ नारे लगाइये:
● भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह...
● भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी...
● ग़ज़वा-ए-हिन्द, ग़ज़वा-ए-हिन्द
   इंशाल्लाह इंशाल्लाह...
● निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा, निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा
   इंशाल्लाह इंशाल्लाह...
11।9।16

सेकुलर झूठ की रणनीति टंच है

संता: सेकुलर झूठ की रणनीति टंच है
बंता: और राष्ट्रवादी सच की रणनीति घंट है।
11।9।16

सॉफ्टवेयर बनाम हार्डवेयर

सॉफ्टवेयर बनाम हार्डवेयर

■ अगर आप सिर्फ़ मुसलमान बनाम काफ़िर , ईसाई बनाम पगान, बुर्जुआ बनाम सर्वहारा, फटना बनाम फाड़ देना, जलना बनाम जला देना, औरत बनाम मर्द या प्रकृति बनाम आदम की भाषा समझते हैं तो यह आपके सॉफ्टवेयर का प्रॉब्लम है जिसपर आपका कोई वश नहीं। आप तो महज हार्डवेयर हैं, आपका कोई दोष नहीं।
■ उसी तरह तालिबान, अलक़ायदा, बोकोहराम, लश्करे तोइबा, आईएसआईएस आदि का भी कोई दोष नहीं। यज़ीद, बिन क़ासिम, तैमूर, तुग़लक़, ग़ौरी, ग़ज़नी, नादिरशाह, औरंगज़ेब, हिटलर, लेनिन, स्टालिन, माओ, पोल पॉट और चे ग्वारा सब के सब सॉफ्टवेयर के मारे थे। वे तो हार्डवेयर थे। उनका क्या दोष!
■ कोई सॉफ्टवेयर दो हज़ार साल पुराना है तो कोई चौदह सौ साल। जो लेटेस्ट है वह डेढ़ सौ साल का है। प्रत्येक कमोबेश अंतिम प्रोग्रामर द्वारा अंतिम सॉफ्टवेयर है। अब आप ही लोग बताइये, दुनिया के लोग कहाँ जाएँ, क्या करें।
11।9।16

संता: इंशाल्लाह यहाँ देशतोड़क मिलते हैं!

संता: दिल्ली के ITO पुल के पास लिखा है: यहाँ हाथी मिलते हैं।
बंता: तो?
संता: जेएनयू गेट पर क्यों नहीं लिखा कि इंशाल्लाह  यहाँ देशतोड़क मिलते हैं?
बंता: जयचंद और मीरज़ाफ़र साइनबोर्ड के मोहताज़ नहीं होते।

( श्री  Raj Kishor Sinha की पोस्ट से प्रेरित।)
13.9.16

संता: प्राजी, राशनकार्ड के लिए कोई और नाम बताओ

संता: प्राजी, राशनकार्ड के लिए कोई और नाम बताओ।
बंता: दानापानी कार्ड कैसा रहेगा?
संता: आगे का पता नहीं पर अभी तो दौड़ेगा।
बंता: पर तुम्हें राशनकार्ड से क्या दिक्कत है?
संता: यह शब्द बलात्कार का पर्याय होता जा रहा है।

(नोट: इस पोस्ट का 'आप' या इस पार्टी के किसी मंत्री से कोई सम्बन्ध नहीं है।)

#RationCard #DanaPaniCard #Rape #Kejriwal #AAP
13.9.16

मार्क्स, मार्क्सवादी लोग और उनकी गालियाँ

मार्क्स, मार्क्सवादी लोग और उनकी गालियाँ

एक मार्क्सवादी का पूरा विज्ञान सामान्यत: गालियों पर टिका होता है। इसलिये गाली-विरोध में भी मार्क्सवादी गाली देते हैं और जहाँ गाली नहीं होती वहाँ भी गाली ढूँढ़ लेते हैं। गाली उनके बौद्धिक डीएनए का हिस्सा है।  हालाँकि अकादमिक गालियों का भरपूर इस्तेमाल करनेवाले मार्क्स ऐसे नहीं थे।

चूँकि उनके चेलों ने उनके पैग़म्बरी रूप को ही ज़्यादा अपनाया, इसलिए एक औसत मार्क्सवादी और डाटा-ट्रेंड-आईडिया के बीच छत्तीस का आँकड़ा होता है।
14.9

हिन्दी दिवस को भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाने में क्या हर्ज़ है?

हिन्दी दिवस को भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाने में क्या हर्ज़ है?

#हिन्दीदिवस #14सितम्बर #हिन्दी_दिवस 
#साहित्य_अकादेमी #अशोक_चक्रधर #सुभाष_चंद्रा 
#HindiDay #14September #HindiDiwas #SahityaAkademi #SubhashChandra #AshokChakradhar #ZeeNews #ZMedia
14.9.16

जहाँ माँ ने संतान को और संतान ने माँ को निगलना अपना धर्म समझा

जहाँ माँ ने संतान को और संतान ने माँ को निगलना अपना धर्म समझा...

अरब में तीन मजहब पैदा हुये और तीनों बर्बरता और नरसंहार में एक से बढ़कर एक। हर एक मजहब ने उस कोख को उजाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसमें वह पैदा हुआ। यहूदियों को ईसाइयों ने और ईसाइयों-यहूदियों को मुसलमानों ने मिटाने के लिय ज़मीन-आसमान एक कर दिया। इतना ही नहीं, हरेक कोख ने भी अपनी संतान को वैसे ही निगलना जारी रखा जैसे कहते हैं कि साँप अपने अंडे को।

सबसे बाद में पैदा हुआ मजहब है साम्यवाद जिसका भूगोल भले ही यूरोप हो लेकिन उसकी मानसभूमि तो अरब ही है। यहाँ तक कि भविष्य के समाज की परिकल्पना और उसकी प्राप्ति के रास्ते के मामले में तो वह इस्लाम की ही ईश्वर-विरोधी संतान(God-less progeny) लगता है।

आपकी क्या राय है? क्यों ऐसा हुआ होगा? क्या इसका अरब की संस्कृति से कोई रिश्ता है? इसमें उसके भूगोल की भी कोई भूमिका है क्या? यहूदी और ईसाई तो नए ज़माने में लगभग ढल गए लेकिन मुसलमान और साम्यवादी दोनों नरसंहार और दमन के महत्व से अबतक चिपके हैं?

15.9.16

It is Jehad in the name of Azadi in Kashmir

◆ In Kashmir, in the name of Azadi it's Jehad being waged for Nizame Mustafa(the rule of Shari'a) the first stage of which was achieved through the ethnic cleansing of Kashmiri Hindus.
◆ Now they want the rule of Shari'a- in place of a democratic constitution- for which Pakistan , as an Islamic State, is duty-bound to extend help.
◆ In this sense, there is no difference between stone pelters and terrorists as both are doing their religiously sanctioned duties:
Stone  pelters(Jehad Fi Sabeelillah--Jehad justified in the way of the Allah) and Terrorists (Qattal Fi Sabeelillah--murders justified in the way of the Allah). More SHABAB is added to it as in Kashmir the Jehad is being waged as Ghazwa-e-Hind (Jehad against Kafirs inhabiting Hindustan) and the BOOK justifies killings of  Kafirs (Kafir Wajibul Qatl).
19।9

इसे कहते हैं कश्मीरियत!

■ 2015 में दुनियाभर में 452 आतंकवादी हमले हुए जिनमें 450 की कमान उनके हाथ में थी जिनके नाम मुसलमानों जैसे थे। नाम का क्या? कोई भी हमलावर अपना नाम मुसलमान जैसा रख लेता है।
■ उरी हमले में भी कौन जानता है किसी ने इस्लाम को ख़तरे में डालने के लिए यह साज़िश रची हो।पिछले चौदह सौ सालों से इस्लाम ख़तरे में है।पाकिस्तान बेचारा कितना और कबतक इस्लाम पर ख़तरे को अकेले झेलता रहेगा।
■ जो भी हो, इस्लाम का आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है। तभी तो पाकिस्तान इतने शांतिपूर्ण तरीके से बना। फिर बांग्लादेश भी उसी राह पर चला। कश्मीर के अमनपसंद लोगों ने पड़ोसी हिंदुओं को अपने पुरखों के पुराने घरों को छोड़कर घाटी से शांतिपूर्वक बाहर जाने दिया ताकि वे नई जगह नए घरों में रहें। इसे कहते हैं कश्मीरियत!
19।9

मीरज़ाफ़र और जयचंद तो बिना दाम के कोई काम नहीं करते

मीरज़ाफ़र और जयचंद तो बिना दाम के कोई काम नहीं करते

दोस्तो,एक कन्फ्यूजन है। अमन-की- आशा वाले पाकिस्तान-परस्त लोग कह रहे हैं कि अब बहुत हो गया, हमें ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिये। अफ़ज़लप्रेमी गिरोह और अवार्डवापसी गैंग भी उनकी हाँ- में -हाँ- मिला रहा है। मोदी को हटाने वास्ते पाकिस्तान की मदद माँगनेवाले और उनकी माता-श्री और बेबी-बाबा सब एक सुर से पाकिस्तान पर हमले की बात कर रहे हैं। यहाँ तक कि वो लोग भी रातोरात देशभक्त हो गए हैं जिनका कलतक नारा था:
"भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी"।

इस हृदय परिवर्तन का क्या कारण है? मीरज़ाफ़र और जयचंद तो बिना दाम के कोई काम नहीं करते।
20।9

सेकुलर कथाकार प्रोफेसर Asghar Wajahat की पोस्ट

सेकुलर कथाकार प्रोफेसर  Asghar Wajahat की पोस्ट:

कुछ फ़ेसबुकिया मित्र, जो मेरे नाम के कारण मुझे वैसा ही मुसलमान मानते हैं जैसा वो चाहते हैं,यह पूछ रहे हैं कि मैंने 17 शहीद सैनिकों को शद्धांजलि पेश क्यों नहीं की।उनका शायद यह मानना होगा कि उनके अनुसार मुसलमान होने के नाते मैं शहीद सैनिकों को  शद्धांजलि नहीं पेश कर सकता या चाहता।पहले तो यह सोचना ग़लत है।मैं शहीद सैनिकों को पूरी आस्था के साथ शद्धांजलि पेश करता हूँ ।और इसके साथ साथ उन फ़ेसबुकिया मित्रों से  यह भी पूछना चाहता हूँ कि क्या मैं कश्मीर में शहीद हुए सैनिकों के साथ साथ उन भारतीय नागरिकों को भी शद्धांजलि पेश कर सकता हूँ जिन्होंने पिछले महीनों कश्मीर में अपनी जानें गवाँई है?

मेरा जवाब:
आप बेशक उन नागरिकों को भी श्रद्धांजलि दीजिये जिन्होंने अपनी जानें गवाईं हैं। सिर्फ़ यह ध्यान रहे कि आतंकवादियों को कवर देने वाले और सेना तथा आतंकवादियों के बीच कूदकर सेना पर बम, ग्रेनेड और पत्थर फेंकने वाले शरीया के हिसाब से नागरिक भले होंगे , वस्तुतः वे आतंकवादियों के एक्सटेंशन हैं क्योंकि कश्मीर में आज़ादी की आड़ में असली लड़ाई निज़ामे मुस्तफ़ा के लिए है जिसका वैचारिक आधार है:
जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह
क़त्ताल फ़ी सबीलिल्लाह
काफ़िर वाजिबुल क़त्ल
ग़ज़्वा-ए-हिन्द, दारुल इस्लाम और दारुल हरब।

इसका पहला चरण था काफ़िरों (कश्मीरी हिंदुओं) का जातिनाश।

■ मेरा पूरा विश्वास है कि कश्मीरी हिंदुओं को भी  आप नागरिक मानते होंगे और उनके जातिनाश पर भी आपने श्रद्धांजलि जरूर दी होगी। कोई एक हज़ार लोगों का संहार, इससे भी ज़्यादा बलात्कार और अपहरण। लाखों का पलायन। आप तो कथाकार और स्क्रिप्ट राइटर हैं। उनपर कुछ लिखा भी होगा। कृपया लिस्ट पोस्ट कर दीजियेगा, खरीदकर पढ़ने का मज़ा ही कुछ और है।
■ वैसे आपका दर्द हाल में मारे गए कश्मीरी गैर-सैनिक मुसलमानों के लिये है जो मनसा-वाचा-कर्मणा इस्लामी राज्य पाकिस्तान के नागरिक हैं लेकिन दुर्भाग्य से काग़ज़ पर हिन्दुस्तान में रहते हैं।
आपसे क्या शिकायत जनाब जब "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा" लिखनेवाला अल्लामा इक़बाल ही मोसल्लम ईमान वाला निकला:
"हो जाए ग़र शाहे ख़ुरासान का ईशारा
सज़दा न करूँ हिंद की नापाक ज़मीं पर।"
20।9।16

जिन्हें दैनिक जागरण- ज़ीन्यूज़ कम्युनल लगते हैं

जिन्हें दैनिक जागरण- ज़ीन्यूज़ कम्युनल लगते हैं

जो लोग शाहबानो को गुज़ारा भत्ता के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते हों;
जो तीन तलाक़ के साथ खड़े हों;
जो चार शादियों का विरोध नहीं कर पाये;
जो राममंदिर को तोड़ बनी बाबरी मस्जिद को सेकुलरिज़्म का प्रतीक मानते हैं;
जो काशी-मथुरा-क़ुतुब मिनार में नंगी आँखों से दीख रहेे मंदिर-ध्वंस के प्रमाण से नज़र चुरा लेते हैं;
जो कश्मीरी आतंकवादियों के पाक-समर्थक सरगना बुरहान वानी की एनकाउंटर में मौत पर मानवाधिकार का सवाल उठाते हैं;
जो घाटी में लाखों कश्मीरी पंडितों के जातिनाश (नरसंहार, बलात्कार, घाटी से निर्वासन) पर चुप रहते हैं; और
जो लोग घाटी में आज़ादी के नाम पर निज़ामे मुस्तफ़ा के लिये शरीया-सम्मत जिहाद को लोकतंत्र का निर्लज्ज जामा पहनाते हैं,
वे लोग और उनके सेकुलर- पैरोकार #दैनिक_जागरण और #ज़ीन्यूज़ को साम्प्रदायिक करार देते हैं।
ऐसे लोगों को हिन्दू कम्युनल और मुसलमान सेकुलर लगते हैं; मतलब यह देश अल्पसंख्यक मुसलमानों की वजह से सेकुलर है, बहुमत हिंदुओं के बावजूद।
ऐसे लोगों से कोई पूछे कि भारत का विभाजन क्यों हुआ था?  पाकिस्तान बनने का क्या आधार था? आज पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं का क्या हाल है? क्यों न पाकिस्तान में जितनी अच्छी स्थिति अल्पसंख्यक हिंदुओं और ईसाइयों की है उतनी ही अच्छी स्थिति में भारत के भी मुसलमान रहें?
20।9

उनसे घिन-सी होने लगी है

धीरे-धीरे लेकिन पक्के तौर पर उन लोगों से
घिन-सी होने लगी है जो अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत को ज्ञान एवं विवेक का पर्याय मानते हैं; मजहब और धर्म में अंतर नहीं करते; और, बौद्धिक रूप से इतने कायर हैं कि ख़ुद की निग़ाह से ख़ुद को नहीं देख सकते।इसमें प्रोफेसर और पत्रकार अव्वल हैं। क्या करें ऐसे फेसबुकिया मित्रों का, मार्गदर्शन कीजिये।
22।9

अमेरिका और चीन को पाकिस्तान से डिकोड करिये

अमेरिका और चीन को डिकोड करना है तो उन्हें  पाकिस्तान से उनके रिश्तों के मार्फ़त समझिये। इन दोनों देशों ने पाकिस्तान को किस काम के लिए कितनी आर्थिक मदद दी और वह असल में कहाँ-कहाँ और कब ख़र्च हुई।
22।9

हिन्दुस्तान-वासी मुसलमान का मन

हिन्दुस्तान-वासी मुसलमान का मन

ऐसा अक्सर कहा जाता है कि
बँटवारे  बावजूद मुसलमानों ने यहाँ रहने का फैसला किया, इसलिए उनपर किसी तरह का संदेह अनुचित
और विभाजनकारी है।
तार्किक रूप से यह एकदम सही है।
वस्तुगत स्थिति क्या थी?
* मजहब के आधार पर देश दो हिस्सों में बँटा था।भारी खून-खराबा हुआ।नरसंहार वहाँ ज्यादा हुए थे जहाँ मुसलमान ज्यादा थे क्योंकि जिन्ना ने उन्हें  'सीधी कार्रवाई' का फतवा दिया था।
* और, बिहार और उत्तर प्रदेश के खाते-पीते और शिक्षित मुसलमानों के बड़े तबके ने नवसृजित पवित्र भूमि यानी पाकिस्तान का रुख किया था।
* बचे कौन? मुट्ठी पर शिक्षित-समृद्ध और ज्यादातर वो जो कहीं अपरिचित दूर देश जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।फिर भी पवित्र भूमि की कसक ज्यादातर के मन में तब भी थी और अब भी है।
* इसी कसक का पूरा लाभ उठाते हैं राजनेता उनका भयादोहन कर।
* बहरहाल, यह सब जानते हुए बहुमत ने  मुसलमानों को स्वीकारा ,  यह इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मुसलमानों के एक बड़े तबके ने भारत में रहना स्वीकार किया क्योंकि इस स्वीकार में लाचारगी ज्यादा है और स्वेच्छा कम।

यह बात तीन बातों से ज्यादा साबित हुई।
* मुसलमानों ने अलग पहचान यानी पंथनिरपेक्ष राष्ट्र में अपनी पंथीय यानी इस्लामी पहचान को संविधान में मान्यता दिलवाई और समान नागरिक संहिता का विरोध किया।

* 1980 के दशक में जब शाहबानो केस में औरतों को संविधान की मूल भावना के तहत गुजारा भत्ता देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो मुसलमान सड़क पर उतर आये और संसद से कोर्ट के आदेश के खिलाफ कानून पारित करवा लिया।यानी मुस्लिम महिलाओं को देश की बाकी महिलाओं के बराबर अधिकार देने का विरोध किया और संविधान के रास्ते समाज सुधार का एक मौका गँवाया।
* दूसरे, कश्मीर के बहुमत मुसलमानों ने आतंकवादियों को मूक समर्थन दिया हिन्दुओं को वहाँ से भगाने के जेहाद में।क्यों, पूरे देश में यही एक क्षेत्र है जहाँ उनको लगा कि देर-सबेर इस्लामी शासन लागू किया जा सकता है।

* इसके बावजूद किसी भी हिन्दू बहुल राज्य से मुसलमानों को हत्या, लूट और अपहरण की धमकी देकर कश्मीर की तर्ज पर नहीं भगाया गया है।

* तीसरी बात, यह सर्वज्ञात है कि दिल्ली सल्तनत से लेकर मुगलिया शासन के दौरान हजारों मंदिर राजाज्ञा से तोड़े गए लेकिन आजादी के लगभग सात दशक बाद भी हिन्दुओं के तीन तीर्थ स्थलों-काशी, मथुरा और अयोध्या-के मंदिर परिसरों में मंदिरों को तोड़कर बनाई मस्जिदें बरकरार हैं और मुसलमान नेतृत्व ने मामलों के हल को हर स्तर पर उलझाया है।
इन तीनों बातों के मद्देनजर कुछ और प्रवृत्तियों पर भी गौर करना जरूरी है।
* औसत शिक्षित मुसलमान के लिए खुसरो, रहीम, अकबर, दारा शिकोह,  अब्दुल कलाम और आरिफ मोहम्मद खान आदर्श नहीं हैं क्योंकि वे उदार और समावेशी हैं।
तो फिर कौन उनके आदर्श हैं?
*मथुरा-काशी के मंदिरों के ध्वंश को सुनिश्चित करनेवाला औरंगजेब--
जिसने दशवें सिख गुरू तेगबहादुर की आरे से चीरकर इसलिए हत्या करवा दी थी कि उन्होंने इस्लाम कबूलने से इनकार कर दिया था;
*दाऊद इब्राहीम --
जो 1993 के मुंबई बम धमाकों का मास्टर माइंड था और जो फिलवक्त पाकिस्तान में रह रहा है;
*ओवैशी और आज़म--
जिनका एकमात्र एजेंडा है मुसलमानों की बुनियादी अलग मजहबी  पहचान को बनाए रखने के लिए समाज सुधार और हमाहंगी की संभावनाओं को पंक्चर करना।
* ऐसा नहीं कि हिन्दुओं में आजम और ओवैशी नहीं हैं लेकिन वे मुख्यधारा के नेता नहीं हैं क्योंकि गैरमुसलमानों का मध्यवर्ग मुखर है जबकि मुसलमानों ने मध्यवर्ग को उभरने ही नहीं दिया है।
* इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं में  'मुसलमान' जरूर पैदा होना शुरू हो गए हैं जो सिर्फ नाम के हिन्दू लगते हैं लेकिन उनकी सोच मजहबी ज्यादा और सनातनी या धार्मिक कम लगती है । यानी उनमें सर्वपंथ समभाव से ज्यादा मजहबी विशिष्टता की जबरदस्ती  तलाश का भाव है क्योंकि उनके  समावेशी स्वभाव को एक कमजोरी के रूप में परोसा गया है और हिन्दू होने पर शर्म करना सिखाया गया है।
* इस कारण एक औसत पढ़ा-लिखा हिन्दू अपने को बौद्धिक दुनिया में मनोवैज्ञानिक रूप से अल्पसंख्यक जैसा महसूस करता था जो कि देश और समाज के लिए ख़तरनाक संकेत है ।
* आजतक इन बातों पर कभी भी बड़े स्तर पर विमर्श को बढ़ावा नहीं होने दिया गया, वजह थी वोटबैंक की राजनीति।
लेकिन आज संचार तकनीक ने सबको सबकुछ उपलब्ध करा दिया है और लोग सबकुछ समझ-बूझ कर सवाल पूछ रहे हैं जिनके जवाब सेकुलरबाज़ राजनीतिज्ञों के पास नहीं हैं ।

(22 सितम्बर 2015 को अपनी ही वाल पर मेरा कमेंट।)
22।9।16

आख़िर जाति क्यों नहीं जाती?

आख़िर जाति क्यों नहीं जाती?

मेरे मित्र Gunjan Sinha जी का कहना है कि "हमारी पीढ़ी नाम से जातिसूचक सरनेम नही हटा सकी . जेपी के समय एक आन्दोलन शुरू हुआ था लेकिन जातीय राजनीति ने उसे खत्म कर दिया. कानून बना कर सभी जातिसूचक सरनेम खत्म करना जरुरी."

इस उपसंहार का यह मतलब हुआ कि जाति हर प्रकार से त्याज्य है। कुछ सवाल:
1. जाति, जात और वर्ण क्या एक ही हैं?
2.जाति को जिस रूप में आज हम जानते हैं और जिस रूप में अंग्रेज़ों और उनकी मानस संतानों ने हमें इसके बारे में बताया है, क्या जाति हमेशा ऐसी ही थी?
3. जाति के वर्तमान स्वरूप में इस्लामी हमलावरों और अंग्रेज़ों की क्या भूमिका थी?
4. जाति की वो कौन सी ताक़त है जिस कारण वह अबतक टिकी हुई है?
5. क्या हमारा संविधान जाति को ख़त्म करना चाहता है?
6. क्या किसी भी घटना के सारेे पहलुओं के बारे में पक्की जानकारी न होने का मतलब उन पहलुओं की अनुपस्थिति का प्रमाण है ( Does absence of evidence mean evidence of absence) ?

डॉ त्रिभुवन सिंह
डॉ Surendra Solanki
24।9।16

पाकिस्तान महज एक मुल्क है या मानसिकता?

पाकिस्तान महज एक मुल्क है या मानसिकता?

दुनियाभर में इस्लाम और दहशतगर्दी जैसे एक-दूसरे का पर्याय बन गए हैं और पाकिस्तान दहशतगर्दी का सबसे बड़ा निर्यातक देश बनकर उभरा है। उसकी अर्थव्यवस्था में दहशतगर्दी के निर्यात से हुई आय का एक अहम रोल है, ठीक वैसे ही जैसे भारत में आईटी सॉफ्टवेयर, योग ,आयुर्वेद और सर्वसमावेशी आध्यात्मिकता का।

भारत में भी लोगों के मन में सवाल उठ रहे हैं कि हमारे हमवतन-मुसलमानों का दहशतगर्दी पर क्या रुख है। इसे स्पष्ट समझने के लिए निम्न सवालों के उत्तर खोजने की कोशिश करिये:

1. कश्मीर से हिंदुओं के जातिनाश का विरोध कश्मीर और शेष भारत के मुसलमानों ने कब, कितना और कहाँ किया?

2. मुसलमानों के नायक कौन हैं:

● जावेद अख़्तर या ज़ाकिर नाइक ?
● दाऊद इब्राहिम या अज़ीम प्रेमजी?
● याकूब मेमन या अब्दुल कलाम?
● ओवैसी या आरिफ़ मोहम्मद ख़ान?
● औरंगज़ेब या दारा शिकोह?
● संत कबीर या सिकंदर लोदी?
● बाबा बुल्लेशाह या अहमद शाह अब्दाली?
● अब्दुल बिन क़ासिम या अकबर?

3. हिन्दू-बहुल हिन्दुस्तान में दो दशकों से बॉलीवुड के सुपरस्टार शाहरुख़ ख़ान, आमिर ख़ान और सलमान ख़ान क्यों हैं? दुनियाभर में और कहाँ-कहाँ ऐसे उदाहरण हैं?

4. क्या यह सच है कि 1947 से लेकर अबतक हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों में ज़्यादातर की शुरुआत मुसलमानों ने की? अगर हाँ तो क्यों?

5. दंगों के बाद कितने हिन्दू-बहुल इलाक़ों से मुसलमानों को हमेशा के लिए अपना घर-बार छोड़कर जाना पड़ा?

6. देश में कितने मुस्लिम बहुल इलाक़ों में हिन्दू और दूसरे गैरमुसलमान ससम्मान रह रहे हैं?

7. जिस गुजरात में दंगा होना आम बात थी वहाँ 2002 के बाद दंगे क्यों नहीं हुए?

8. 'योग' साम्प्रदायिक और 'तीन तलाक़' कैसे सेकुलर हो गया?

9. सनातन धर्म पर चर्चा स्वामी दयानंद, विवेकानंद, गाँधी, महर्षि अरविन्द, महेश योगी जैसे नामों से जुड़ती है जबकि इस्लाम पर चर्चा का कारण बनते हैं ओसामा बिन लादेन, मुल्ला उमर, मसूद अज़हर और अबू अल बग़दादी। ऐसा क्यों?

10. भारत के मुसलमान किस आधार पर समान नागरिक संहिता का विरोध करते हैं?

11. पाकिस्तान महज एक मुल्क है या मानसिकता?
27।9।16

बिहार: 1950 से 2016 तक

बिहार -1950: सर्वाधिक विकसित राज्यों में एक
बिहार-2016: गाली, ग़रीबी, अपराध का पर्याय

■ ३/४ दशको से पहले बिहारी शब्द गाली नही था. इधर बना. पहले ये मजदूरों  का पर्याय हुआ फिर बेबसी  और गरीबी का. बची कसर लालू ने पूरी कर दी.
■ लालू कालमें ही बिहारी मखौल का पात्र बना. फिल्मों ने लालूशैली को मूर्खता और रंगदारी के प्रतीक के रूप में पेश करना शुरू किया और लालू रबरी ही बिहार के रोल माडल बन गए. बिहारी अस्मिता लगातार आहत होती रही. किसी ने कोई प्रतिरोध नही किया.
■ बिहारी नेता, राजेन्द्र बाबू, जेपी और श्रीकृष्ण सिंह गाँधी के प्रिय शिष्य नेहरु को  अपने प्रतिद्वंदी नजर आते थे. गांधी ने नेहरु के लिए सुभाष बोस को किनारे कर दिया था, आजादी के समय भारत की सत्ता किसके हाथ दी जाए -  इस प्रश्न के दो विकल्प नजर आते  थे-  नेहरु और राजेन्द्र बाबू. राजेन्द्र बाबू  को कांग्रेस में ज्यादा समर्थन था लेकिन गांधी को तो नेहरू ही पसंद थे. सो सत्ता उन्हें मिली लेकिन साथ ही बिहार के प्रति एक द्वेष भी कहीं न कहीं नेहरू के मन में रह गया. उसका परिणाम बिहार को भुगतना पड़ा. और आज भी भुगतना पड़ रहा है.
■ आजादी के समय उद्योग के मामले में बिहार देश का पहला राज्य था. डालमियानगर,  जमशेदपुर जैसे औद्योगिक शहर यहीं थे. इस बहाने बिहार को सबसे विकसित मानते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही बिहार को प्रतिव्यक्ति विकास राशि नेशनल एवरेज से चार रूपए प्रति व्यक्ति कम दी गई.  यानी हर बिहारी पहली पञ्च वर्षीय योजना के पांच वर्षों में शेष भारत से २० रूपए पीछे हो गया. ये बीस रूपए आज के बीस रुपयों की उलना में सौ गुना ज्यादा मूल्य के थे.
■ बाद में ये आर्थिक/विकास फासला घटने के बदले हर पञ्च वर्षीय योजना में बढ़ता गया. एक तो विकास राशि का कम आवंटन ऊपर से यहाँ के चोर नेता और जातिवादी समाज - बिहार लगातार पिछड़ता गया. पिछड़ेपन के असली कारकों की पहचान कभी नही की गई. और अब ये दिन हैं कि बिहारी शब्द मजदूर, अपराधी, गरीब और शरणार्थी का पर्याय हो गया है.
■ बिहार के  लोगों ने  कभी ये हिसाब किया ही नही कि उनका कितना रुपया इस देश पर बकाया है. वो बस पंजाब, हरियाणा, गुजरात, असम में मजूरी कर के खुश हैं. हम जाग्रत नही हैं लेकिन इसका मतलब ये भी नही कि कोई भी ऐरा गैर हमे गालियाँ देकर  निकल ले और हम सहन करते रहें.

( श्री Gunjan Sinha की वाल से।)
27.9

भारत के मुसलमानों से जुड़े दस सवाल

भारत के मुसलमानों से जुड़े दस सवाल

भारत के मुसलमानों के मन को समझने के लिए हमें निम्न सवालों के उत्तर खोजने की कोशिश करनी चाहिए:

1. कश्मीर से हिंदुओं के जातिनाश का विरोध कश्मीर और शेष भारत के मुसलमानों ने कब, कितना और कहाँ किया?

2. मुसलमानों के नायक कौन हैं:

● जावेद अख़्तर या ज़ाकिर नाइक ?
● दाऊद इब्राहिम या अज़ीम प्रेमजी?
● याकूब मेमन या अब्दुल कलाम?
● ओवैसी या आरिफ़ मोहम्मद ख़ान?
● औरंगज़ेब या दारा शिकोह?
● संत कबीर या सिकंदर लोदी?
● बाबा बुल्लेशाह या अहमद शाह अब्दाली?
● अब्दुल बिन क़ासिम या अकबर?

3. हिन्दू-बहुल हिन्दुस्तान में दो दशकों से बॉलीवुड के सुपरस्टार शाहरुख़ ख़ान, आमिर ख़ान और सलमान ख़ान क्यों हैं? दुनियाभर में और कहाँ-कहाँ ऐसे उदाहरण हैं?

4. क्या यह सच है कि 1947 से लेकर अबतक हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों में ज़्यादातर की शुरुआत मुसलमानों ने की? अगर हाँ तो क्यों? (आज़ादी के बाद के चारों भारत-पाक युद्धों की शुरुआत भी पाकिस्तान ने ही की थी।)

5. दंगों के बाद कितने हिन्दू-बहुल इलाक़ों से मुसलमानों को हमेशा के लिए अपना घर-बार छोड़कर जाना पड़ा?

6. देश में कितने मुस्लिम बहुल इलाक़ों में हिन्दू और दूसरे गैरमुसलमान ससम्मान रह रहे हैं?

7. जिस गुजरात में दंगा होना आम बात थी वहाँ 2002 के बाद दंगे क्यों नहीं हुए?

8. 'योग' साम्प्रदायिक और 'तीन तलाक़' कैसे सेकुलर हो गया?

9. सनातन धर्म पर चर्चा स्वामी दयानंद, विवेकानंद, गाँधी, महर्षि अरविन्द, महेश योगी जैसे नामों से जुड़ती है जबकि इस्लाम पर चर्चा का कारण बनते हैं ओसामा बिन लादेन, मुल्ला उमर, मसूद अज़हर और अबू अल बग़दादी। ऐसा क्यों?

10. भारत के मुसलमान किस आधार पर समान नागरिक संहिता का विरोध करते हैं?

11. पाकिस्तान महज एक मुल्क है या मानसिकता?
29.9.16

सेकुलर-वामी ब्रिगेड के अगुवा लोगों की खुशी का लेवेल क्या है

पाक अधिकृत कश्मीर के आतंकवादी ट्रेनिंग शिविरों पर सेना की कार्रवाई से पूरा देश खुश है। लेकिन असली खुशी तो यह जानने में है कि सेकुलर-वामी ब्रिगेड के अगुवा लोगों की खुशी का लेवेल क्या है। खासकर मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह, बरखा दत्त, रवीश कुमार जैसे बुद्धिजीवी। कुछ पता चले तो बताइयेगा, आलस्य मत करियेगा।
29.09

फेसबुकिया जुलूस में शामिल हों और नारे लगाएं

आइये हमसब मिलकर फेसबुकिया जुलूस में शामिल हों और नारे लगाएं:

■ पाकिस्तान के टुकड़े होंगे चार
    इंशाल्लाह इंशाल्लाह...

■ आतंक-फैक्ट्री की बर्बादी तक
    जंग रहेगी जंग रहेगी...

आपलोग अपने-अपने नारे जोड़िये और देखिये आपकी देशभक्ति कितनी सर्जनात्मक हो सकती है!
29.09.16

संता: हमलों के बाद भारत जवाबी कार्रवाई की चेतावनी देता था

संता: पहले आतंकवादी हमलों के बाद भारत
        जवाबी कार्रवाई की चेतावनी देता था।
बंता: आतंकी-शिविरों पर सर्जिकल स्ट्राइक
        के बाद अब यही काम पाकिस्तान करेगा।

#SurgicalStrike #UriAvenged #IndianArmyRocks #ModiInAction
29.09.16

हर हर भारत, घर घर भारत

हर हर भारत, घर घर भारत
दिल-दिल भारत, तिल-तिल भारत
आज है भारत, कल भी भारत
अपना भारत ,सबका भारत
किसान भारत, जवान भारत।

जयचंद को धिक्कारे भारत
मानसिंह को फटकारे भारत
मीरज़ाफ़र को दुत्कारे भारत
नेहरून्ना को पुनर्विचारे भारत
किसान भारत, जवान भारत।

राणा-शिवा को अपनाये भारत
दशम गुरु को सर नवाये भारत
बिरसा को न बिसराये भारत
झाँसी की बिंदी सजाये भारत
किसान भारत, जवान भारत।

कुँवर का जोश जो पाये भारत
पाण्डे मंगल हुंकार लगाये भारत
नेताजी को फिर-फिर बुलाये भारत
कबीर-वो-कलाम पर इतराये भारत
किसान भारत, जवान भारत।

अहिंसा से न भरमाये भारत
हिंसा से न चकराये भारत
रणचंडी को सर चढ़ाये भारत
जैसे को तैसा बताये भारत
किसान भारत, जवान भारत।

बुद्धिपिशाची माया नसाये भारत
वोटबैंक पर ताला लगाये भारत
वीणा-पुस्तक में मन रमाये भारत
हाथ तलवार पर जमाये भारत
किसान भारत, जवान भारत।

नवजागरण में नहाये भारत
अब है खुद को पाये भारत
ॐ नमः शिवाय भारत
शाह बाबा बुल्लाय भारत
किसान भारत, जवान भारत।
30.09.16

बीबीसी से उम्मीद मत करिये...

बीबीसी से उम्मीद मत करिये,
सेकुलर-वामी-कसाई-सलीबियों से भी नहीं।
खुद को बुलंद करिये, तथ्य और तर्क से इन पर सर्जिकल स्ट्राइक कीजिये।
इनके भेजे में इतने छेद करिये कि ये बिलबिला उठें और इनपुट-आउटपुट डिवाइस का अंतर भूल जाएँ। नितान्त झूठे, कायर, बिकाऊ, कुपढ़ और नक्काल होते हैं ये।
1।10।16

माया के गुलाम गीदड़ का जाने बंदगी

माया के गुलाम गीदड़ का जाने बंदगी...

POK में सर्जिकल स्ट्राइक पर तब से असली खबरें आना शुरू हुई हैं जब से सेकुलर-वामियों का पाक-सेना से डायरेक्ट संपर्क हुआ है। वे कह रहे हैं कि पाकिस्तान सीमा में सर्जिकल स्ट्राइक की बात झूठी है।

2011 में पाकिस्तान के ही अब्बोटाबाद में अमेरिकी सर्जिकल स्ट्राइक में ओसामा बिन लादेन की मौत के बारे में भी पाक-सेना को कहाँ पता था।

फिर POK है तो हिन्दुस्तान का ही हिस्सा। मतलब ये कि स्ट्राइक-फेस्ट्राइक हुआ है तो सीमापार नहीं, सीमा के अंदर हुआ है। अब LoC को भी इसी हिसाब से एडजस्ट कर लेना चाहिये।

आपलोग नवाज़ शरीफ़ की बातों पर ध्यान न दें। उन्होंने बिना जाने ही सर्जिकल स्ट्राइक की निंदा की है। पाकिस्तान में सेना का शासन है, विश्वसनीय शासन है। हमारे सेकुलर-वामी उनपर विश्वास भी करते हैं।

पाक-सेना का चीन से गहरा रिश्ता है। हमारे सेकुलर-वामी भी चीन पर विश्वास करते हैं, इतना विश्वास कि उनके एक बड़े तबके ने तो 1962 के हमले का 'क्रान्ति की लाल किरण' कहकर स्वागत किया था।
सीपीएम महासचिव सीताराम यचुरी ने तो 1989 के थिअनमान स्क्वायर काण्ड को ही पूंजीवादी साज़िश करार दिया था।
नेहरू जी ने हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा देते हुए आयुध फैक्टरियों में हथियार उत्पादन को ही बेकार कह दिया था।

ये पढ़े-लिखे लोग हैं, विश्वास ही इनकी पूँजी है। इनको तथ्य, तर्क और सत्य से कब्ज़ियत होती है। मूर्ख भक्तों को यह बात थोड़े न समझ आएगी। वे क्या जाने पाक-चीन की सेकुलर-वामी आराधना के लाभ?
कबीरदास कह गए हैं:
माया के गुलाम गीदड़ का जाने बंदगी।
1।10।16

युद्ध चाहे दिमाग का हो या जमीन का, बिना युद्ध शांति नहीं

युद्ध चाहे दिमाग का हो या जमीन का, बिना युद्ध शांति नहीं

■ बिना युद्ध शांति नहीं। 1947 से पाकिस्तान भारत पर चार हमले कर चुका है । ऐसा उसने इस्लामी आदेश ग़ज़वा-ए-हिन्द के तहत किया है। ख़लिस्तान आन्दोलन और कश्मीर में कश्मीरियत को मार वहाबी सुन्नत को जगाना और कश्मीरी हिंदुओं का जातिनाश भी इसी के हिस्से हैं।

■ पाकिस्तान के हिंदुओं का भी जातिनाश हो चुका है, एकदम शांतिपूर्वक। इसपर मैंने किसी सेकुलर-वामी-इस्लामिस्ट-इवांजेलिस्ट को कलम चलाते नहीं देखा। स्टालिन और माओ के सामने तो  हिटलर भी पानी भरें। उसके पहले की कल्ला मीनारों (मानव खोपड़ियों से बनी मीनारें) को तो आप जानते ही होंगे जिन्हें इस्लामी हमलावरों ने बनवाईं थी।

■ भारत के सेकुलर-वामी-इस्लामिस्ट तभी तक शांति के कबूतर उड़ाते हैं जबतक सत्ता से बाहर हों या हिंसा बरपा करने में सक्षम नहीं हों। बंगाल, कश्मीर, केरल इसके उदाहरण हैं।

■ अब एटमी हथियार की बात हो जाए। अमेरिका अगर जापान में एटम बम नहीं गिराता तो न द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होता न ही दुनिया में इतने समय तक शांति रहती। दूसरी बात, युद्ध अपने दम और हिम्मत से लड़े जाते हैं, दूसरों की बदौलत और बौद्धिक कायरता से नहीं।

■ पाकिस्तान सिर्फ और सिर्फ मामूली लड़ाई लड़ेगा। उसको मालूम है भारत ने इस्राइल से जाना है कि जेहादियों से कैसे लड़ते हैं। असली लड़ाई मन की है।

■ आईएसआईएस का बग़दादी भारत, यूरोप और अमेरिका को तो बर्बाद करने की धमकी देता है लेकिन पड़ोसी इस्राइल को नहीं। क्यों? क्योंकि उसे पता है कि इस्राइल इस्लामी जिहाद को डिकोड करना जानता है और दशकों से उसकी भ्रूणहत्या करता रहा है। POK में जेहादी शिविर पर सर्जिकल स्ट्राइक कर भारत ने वैसी ही भ्रूणहत्या की है। और इसको सार्वजनिक कर पाकिस्तान की इस्लामी ग़ाज़ी सेना का मनोबल तोड़ा है।

■ ये सर्जिकल स्ट्राइक भारतीय अभिजात की बौद्धिक नपुंसकता और मुस्लिम बुद्धिजीवियों के मन में पल रहे 'पाकिस्तान' पर भी है। भारत बदल रहा है। जिसे न दिख रहा हो वह आँखों का ऑपरेशन करा ले।

■ आत्मघाती हमलों को पचाने के लिए भारत को तैयार रहना चाहिये। ये और बढ़ेंगे। पाकिस्तान का सबसे बड़ा, एटम बम से भी बड़ा, हथियार है यह।
1।10।16

सर्जिकल स्ट्राइक: उदार चरित बुद्धिजीवी क्या कहते हैं?

सर्जिकल स्ट्राइक: उदार चरित बुद्धिजीवी क्या कहते हैं?

"देश के कुछ नामी 'बुद्धिजीवियों' की वॉल्स से अद्भुत नज़राने इकट्ठा किये हैं। स्वयं पढ़िए और तय कीजिये कि क्या ये लोग आपके 'ओपिनियन मेकर्स' होने के लायक हैं?

"1.सर्जिकल स्ट्राइक पहले भी होते थे, मीडिया में आ के गाए नहीं जाते थे.
2.इन्होंने तो म्यांमार में भी दावा किया था, सुबूत तो नहीं दिखा पाए.
3.वीडियो बनाया है तो रिलीज़ क्यों नहीं करते? है हिम्मत तो करें सार्वजनिक!
4.सर्जिकल स्ट्राइक सेना ने किये हैं, इसमें मोदी-मोदी क्या है?
5.सुन लिया न? पाकिस्तान ने एक जवान पकड़ लिया है, ये सरकार यही कराएगी.
6.बीबीसी ने अब तक भारत के कथित सर्जिकल स्ट्राइक की पुष्टि नहीं की है.
7.पुष्टि तो करे कोई! डीजीएमओ से क्या प्रेस कांफ्रेंस करा रहे हैं, रक्षा मंत्री क्यों नहीं ज़िम्मेदारी लेता?
8.पाकिस्तान ने साफ़ कह दिया है ऐसा कोई सर्जिकल स्ट्राइक नहीं हुआ, ये इंडियन मीडिया का जिंगोइज़्म है.
9.बंसल केस में अमित शाह को बचाने के लिए पाकिस्तान पे हमले की खबर प्लांट करा दी.
10.मोदी ने खुद ट्वीट क्यों नहीं किया फिर सेना के जवानों की हौसला अफजाई के लिए?"

(डॉ प्रदीप सिंह की फेसबुक वाल से साभार। उन्होंने श्री प्रकाश भूषण सिंह की पोस्ट को शेयर किया है।)
1।10।16

सर्जिकल स्ट्राइक और मुस्लिम बुद्धिजीवी

सर्जिकल स्ट्राइक और मुस्लिम बुद्धिजीवी

■ मज़े की बात है कि भारत के अधिसंख्य मुसलमानों के जो नायक हैं उनके नाम पर पाकिस्तान की मिसाइलों के भी नाम हैं: बिन क़ासिम, अहमद शाह अब्दाली, मुहम्मद ग़ौरी। क्या यह संयोगमात्र है?

■ सर्जिकल स्ट्राइक पर भारत के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने आमतौर पर चुप्पी साध रखी है या फिर बेमन से उसकी बड़ाई की है। कुछ ने शांति के कबूतर भी उड़ाये हैं, बिना यह सोचे कि  मुम्बई, संसद, पठानकोट और उरी हमलों में पाकसमर्थित जेहादियों का उतना ही रोल है जितना कश्मीर में आज़ादी के नाम पर निज़ामे मुस्तफ़ा के लिए।

■ ये लोग शाहबानो, तीनतलाक़, कश्मीर में हिंदुओं के जातिनाश, गोधरा नरसंहार, बुलंदशहर में जिहादी बलात्कार, कैराना से हिन्दू पलायन आदि पर भी चुप ही रहते हैं जबकि याकूब मेमन- अफ़ज़ल गुरु को फाँसी, गुजरात दंगे, समान-नागरिक संहिता-विरोध आदि की माला जपते रहते।

■ वैसे इनको डिकोड करने का सबसे अच्छा तरीका है कि आप एक सर्वे करिये जिसमें सिर्फ यह पूछिये कि इनके नायक कौन हैं:

● जावेद अख़्तर या ज़ाकिर नाइक ?
● दाऊद इब्राहिम या अज़ीम प्रेमजी?
● याकूब मेमन या अब्दुल कलाम?
● ओवैसी या आरिफ़ मोहम्मद ख़ान?
● औरंगज़ेब या दारा शिकोह?
● संत कबीर या सिकंदर लोदी?
● बाबा बुल्लेशाह या अहमद शाह अब्दाली?
● अब्दुल बिन क़ासिम या अकबर?

■ मेरे सर्वे के अनुसार 80 प्रतिशत से भी ज़्यादा शांतिदूतों के नायक हैं: ज़ाकिर नाइक, दाऊद इब्राहिम, याकूब मेमन, ओवैसी, औरंगज़ेब, सिकंदर लोदी, अब्दुल बिन क़ासिम और अहमद शाह अब्दाली। ये वही अब्दाली है जिसको लेकर पंजाब में लोकोक्ति है:
खादा पीता लाहे दा
बाकी अहमद शाहे दा।
(जो खा-पी-पहन लो वही तुम्हारा है, बाकी तो अहमद शाह अब्दाली लूटकर ले ही जायेगा।)

■ उपसंहार: पाकिस्तान महज एक मुल्क नहीं है, वह एक मानसिकता भी है।
1।10।16

शास्त्री जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ!

शास्त्री जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ!

आज़ाद भारत को नेहरू-प्रदत्त आत्मघृणा से उबारकर आत्मसम्मान के मार्ग पर आरूढ़ करनेवाले पहले नेता थे लालबहादुर शास्त्री जिन्हें जनता का प्रधानमंत्री भी कहा जाता था।

1965 के पाकिस्तानी हमले का मुँहतोड़ जवाब देनेवाले इस गुदड़ी के लाल ने नारा दिया था:

जय जवान जय किसान।

किसान-मजदूरों के घरों से ही तो जवान आते हैं। देश के सम्मान के दो मूलाधार हैं:
भोजन पर आत्मनिर्भरता जो किसान देगा
और
सीमा पर सुरक्षा जो जवान देगा।
*
2।10