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Wednesday, June 10, 2020

हिंदू-द्वेषी भारत-विरोधी सत्ता संस्थान बनाम मोदी

देश को असली ख़तरा हिंदू-द्वेषी और भारत-विरोधी सोच से है जो यहाँ के सत्ता संस्थान का करीब दो सौ सालों से अभिन्न हिस्सा है। यही सोच कम्युनिस्ट-जिहादी-इवांजेलिस्ट गठजोड़ के लिए ऑक्सीजन भी है। मोबाइल-इंटरनेट-सोशल मीडिया पर सवार नवजागृत भारत अगले 5-7 सालों में इस गठजोड़ को धराशायी कर सत्ता संस्थान को भी बदलने को विवश कर देगा। सत्ता संस्थान बोले तो न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका, मीडिया और स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय।
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इस ख़तरे की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति चीन मसले पर अभिजात वर्ग के रुख से हुई है। यह वर्ग सरकार को घुटने पर देखना चाहता था जिसके न होने के कारण पहले तो वह सरकार को कोसता रहा फिर चुप्पी लगा गया। इसके पहले यह टकराहट CAA-विरोधी  'शहीनबाग' साज़िश में चरम पर थी जिसकी परिणति दिल्ली दंगों में हुई। फिलहाल इसके अखाड़े हैं कोरोना संकट के दो हॉटस्पॉट दिल्ली और मुंबई।
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ऐसा पहली बार हुआ है कि सरकार और सत्ता संस्थान में देश को मथ रहे मुद्दों पर तनाव सालों से जारी है।कोई भी मुद्दा ले लीजिए--- रक्षा खरीद, धारा 370/35ए, राममंदिर, नागरिकता संशोधन विधेयक, शहीनबाग, दिल्ली दंगे या कोरोना संकट --- सरकार और सत्ता संस्थान की टकराहट साफ़ दिखेगी।
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इस टकराहट को जमीन पर उतारते हैं जिहादी जिनके लिए कवरफायर करते है कम्युनिस्ट और बिना देखार हुए इन दोनों की यथासंभव वित्तीय-क़ानूनी मदद करते हैं इवांजेलिस्ट यानी ईसाई मिशनरी। परिस्थिति-विशेष में कहीं-कहीं यह क्रम बदल भी जाता है जैसे पालघाट में संतों की हत्या में इवांजेलिस्ट और कम्युनिस्ट दोनों जमीन पर भी थे और ऊपर-ऊपर तो हैं ही। इस पूरे मामले में उपरोक्त गठजोड़ की God Mother अंतोनियो मायनो पर उँगली उठानेवाले पत्रकार अर्नब गोस्वामी का कार्यपालिका (पुलिस) द्वारा जबतक प्रताड़ित किया जाना और न्यायपालिका द्वारा राहत प्रदान करना सत्ता में पैदा हो रही दरार की ओर भी संकेत करता है।
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ऐसा नहीं कि सत्ता संस्थान और सरकार में पहले कभी तनाव उत्पन्न नहीं हुआ। दोनों के बीच जब भी तनाव हुए वे अंशकालिक रहे क्योंकि सत्ता संस्थान ने सरकार के ऐसे प्रमुख को ही निपटा दिया जो उसकी राह का काँटा था। आज़ादी के बाद इसके पहले बड़े उदाहरण हैं लालबहादुर शास्त्री जिनकी ताशकंद में संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत हो गई।
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इसके पहले जनसंघ प्रमुख डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी इसलिए रास्ते से हटाये गए कि वे सत्ता संस्थान से टकराहट की प्रवृत्ति को भविष्य में बढ़ावा देने में सक्षम थे हालाँकि वे सीधे तौर पर सरकार का हिस्सा नहीं थे। लेकिन लोकतंत्र में सरकार को चलाने में विपक्ष की भी भूमिका होती है जिस कारण डॉ मुखर्जी खतरनाक माने गए और कश्मीर की जेल में उनकी भी संदेहास्पद परिस्थितियों में मौत हो गई। डॉ अम्बेडकर के नेहरू मंत्रिमंडल से बाहर होने और चुनाव न जीत पाने का भी यही कारण था।
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क्या यह दिलचस्प नहीं कि भाजपा के परम लोकप्रिय नेता अटलबिहारी वाजपेयी सत्ता संस्थान और नेहरू दोनों को बड़े प्रिय थे? पार्टी में वाजपेयी की राह को निष्कंटक करने में क्या सत्ता संस्थान की भूमिका नहीं थी? डॉ मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जाने से किसे लाभ हुआ था? क्या वजह है कि आपातकाल के हीरो और जनसंघ के टिकट पर राज्यसभा के सदस्य चुने जाने वाले डॉ सुब्रमण्यम स्वामी को भाजपा में तबतक एंट्री नहीं मिली जबतक वाजपेयी सक्रिय राजनीति से रिटायर न हो गए?
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ग़ौरतलब है कि सत्ता संस्थान के उपरोक्त चरित्र की पुख्ता नींव आज़ादी से पहले ही पड़ गई थी। तभी पार्टी कार्यकर्ताओं और जनता के चहेते नेताजी सुभाषचंद्र बोस को काँग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के बावजूद देश छोड़ना पड़ा था और इसमें 'महात्मा' गाँधी की सीधी भूमिका थी। बाद में उन्हीं की 'कृपा' से पटेल को पार्टी में जबर्दस्त समर्थन के बावजूद भारत का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया। इस संदर्भ में देखें तो मोदी का दोबारा प्रधानमंत्री बनना सत्ता संस्थान के भीषण विरोध संभव हुआ है जिसका सबसे बड़ा क्रेडिट मोबाइल-इंटरनेट-सोशल मीडिया को जाता है जिसने टीवी-अख़बार के जनसंचार पर एकाधिकार और तत्जनित एजेंडा सेटिंग क्षमता को लगभग पंक्चर कर दिया है।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
नोट: अक़्ल के अजीर्ण से ग्रस्त बुद्धिजीवी इस पोस्ट पर टिप्पणी के पहले इसे एक दर्जन बार जरूर पढ़ें।
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