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Monday, April 27, 2020

हिंदुओं ने अपने संघर्ष को आउटसोर्स कर दिया है

देश के अधिकांश हिंदुओं ने अपने वाजिब अधिकारों के लिए संघर्ष को आउटसोर्स कर दिया है।
• किसको आउटसोर्स किया है? भाजपा को।
• कैसे किया है? वोट देकर।
• फिर भाजपा किससे संघर्ष करेगी? जहाँ तक राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू-हित रक्षा की बात है, जाहिर है भाजपा 'खुद से ही संघर्ष' करेगी क्योंकि पिछले छह सालों से केंद्र में उसी की सरकार है। यही बात राज्य स्तर भी लागू होगी अगर संबंधित राज्य भाजपा या उसके गठबंधन द्वारा शासित है। लेकिन जिस राज्य में वह विपक्ष में है वहाँ उस राज्य सरकार से संघर्ष करेगी जो 'ख़ुद' से संघर्ष करने से कहीं आसान है।
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अन्य पार्टियों की तरह भाजपा भी 135 साल पुरानी हिंदू-विरोधी कांग्रेस पार्टी का ही एक संस्करण है लेकिन किसी भी अन्य पार्टी से वह यानी भाजपा कम हिंदू-विरोधी है। यह भी कि इन सभी पार्टियों के हिंदू-विरोधी चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इनकी राजनीति का मूलमंत्र है: हिंदू तोड़ो मुस्लिम जोड़ो। उदाहरण स्वरुप नितांत अन्यायपूर्ण क़ानून SC -SC ACT के समाजतोड़क पहलुओं को लागू करने को लेकर कांग्रेस और भाजपा में गलाकाट प्रतियोगिता।
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गौरतलब है कि फ़िलवक़्त भाजपा एक विशिष्ट स्थिति में है क्योंकि कांग्रेस आज 1947 वाली मुस्लिम लीग बन चुकी है और अन्य सेकुलर दलों का भी यही हाल है। इन दलों का हिंदू-विरोध इतना नंगा है कि भाजपा का क़ानून सम्मत नैसर्गिक हिंदू-विरोध अक्सर पूरी तरह पहचान में नहीं आ पाता। लेकिन उत्तरप्रदेश इसका (भाजपा के नैसर्गिक हिंदू-विरोध का) इस अर्थ में आंशिक अपवाद है कि यहाँ भाजपा से ज्यादा एक हठयोगी संन्यासी आदित्यनाथ की सरकार है।
■ उपरोक्त संदर्भ में पहला सवाल है कि हिंदुओं का अपने संघर्ष को आउटसोर्स करना उचित है क्या? उत्तर है 'नहीं'।
■ दूसरा सवाल है कि आउटसोर्सिंग एजेंसी भाजपा ने अपना दायित्व ठीक से निभाया है क्या? इसका भी उत्तर है 'नहीं' ।
हालाँकि दोनों ही सवालों का उत्तर 'ना' है लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि फिलहाल 'घटले नाती दामाद' वाला मामला है।
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उपरोक्त स्थिति को समझने के लिए निम्न घटनाओं पर भाजपा के रिस्पांस का तुलनात्मक अध्ययन दिलचस्प होगा:
• लॉकडाउन के दौरान पटना के खाजेकलां में NCC कैडेट सन्नी गुप्ता की एक मुसलमान पडोसी द्वारा हत्या;
• झारखंड में एक हिंदू फल विक्रेता पर मुकदमा;
• पालघर में दो संतों और उनके सारथी की हत्या;
• पुणे में एक मुस्लिम डिलीवरी ब्वाय से संक्रमण के डर से सामान नहीं लेनेवाले हिंदू ग्राहक के खिलाफ केस;
• पालघर मामले में सोनिया गाँधी से सवाल पूछनेवाले पत्रकार अर्नब गोस्वामी की पुलिस हिरासत में घंटों पूछताछ; और,
• भारत में कोरोना जिहाद की सूत्रधार संस्था 'तबलीगी जमात' के नाम की जगह Single Source का लिखा जाना।
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हिंदुओं द्वारा अपने संघर्ष की आउटसोर्सिंग अनुचित है और यह उनके अभिजात वर्ग की बौद्धिक गुलामी का परिचायक भी है। यह भी कि भाजपा नामक BPO एजेंसी भी अपना काम ठीक से नहीं कर रही है और ऐसा वह ठसक के साथ कर रही है क्योंकि उसे पता है कि फिलहाल हिंदू अभिजात वर्ग विकल्पहीन है।
■ अब तीसरा सवाल यह है कि क्या भाजपा को लेकर हिंदू समाज की यह विकल्पहीनता सचमुच वास्तविक है? इसका भी उत्तर है 'नहीं' क्योंकि विकल्पहीनता का यह बोध हिंदू अभिजात वर्ग की बौद्धिक कायरता से पैदा हुआ है न कि ज़मीनी स्थितियों से। ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि अधिसंख्य हिंदू आबादी गाँवों में रहती है जो सैकड़ों सालों से विकट संघर्षों का वरण करती आई है और सही रास्ता दिखाने पर वह सड़क पर उतरकर संघर्ष करने में ज़रा भी नहीं हिचकेगी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि सैकड़ों सालों की इस्लामी-अंग्रेजी बर्बरता के बावजूद वह आज भी हिंदू ही है।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

Saturday, April 18, 2020

गेंद अब जनता के पाले में है

चीनी कोरोना वायरस का वैसे ही कोई मजहब नहीं होता जैसे कि किसी बम का। लेकिन पेट में बम की बेल्ट बाँधकर खुद को फिदायीन (मानव बम) बनाने वाले 80% लोग एक ही मजहब के हैं।
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इसी तरह ख़ुद को कोरोना वायरस से संक्रमित कर अपने साथ-साथ हजारों भारतीयों को कोरोना का शिकार बनाने पर अड़े लोग भी एक ही मजहब के हैं। ये लोग डॉक्टरों, नर्सों और पुलिस पर बार-बार हमले कर रहे हैं।
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ये कोरोना जिहादी हैं। ये कोरोना मानव बम हैं जिन्हें सरकारी भाषा में Single Source कहा जा रहा है जो तकनीकी तौर पर सही लेकिन सामाजिक दृष्टि से अर्द्धसत्य है। इतना ही नहीं, इस अर्द्धसत्य को बढ़ावा देना राष्ट्र-हित की दृष्टि से एक अपराध भी है। कैसे?
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किसी भी सरकार को राष्ट्रहित में क़ानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा का सहारा लेने का अधिकार होता है लेकिन जब कोई समुदाय अपनी अनुचित माँगे मनवाने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाए और राज्य सत्ता इस हिंसा के डर से उस समुदाय की पहचान छिपाने लगे तो समझ लीजिए कि राज्य सत्ता का इक़बाल हत होने लगा है।
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आज जो समुदाय सीमाओं के अंदर रहकर हिंसात्मक कृत्यों द्वारा जबतब राज्य सत्ता को घुटनों पर ला देता है, वही समुदाय कल सीमापार के दुश्मनों से खुल्लम-खुल्ला हाथ मिला ले तो क्या आश्चर्य! या फिर इसी देश के अंदर 1947 की तरह एक और 'पाकिस्तान' खड़ा करने ले लिए Direct Action ले ले!
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इसमें संदेह है क्या कि आज का शहीनबाग, दिल्ली दंगा और कोरोना जिहाद 1947 के जिहाद की पुनरावृत्ति
के रिहर्सल मात्र हैं? सनद रहे कि पाकिस्तान के लिए मुस्लिम लीग को वोट देनेवाले 80% लोग पाकिस्तान नहीं गये थे। क्यों नहीं गये थे, इसे समझना अगर मुश्किल है तो तय मानिये कि हम 'मिनी पाकिस्तानों' के अर्द्ध-सुषुप्त ज्वालामुखी पर बैठे हैं। अगर सत्य बोलने से भी डर रही राज्य-सत्ता से कोई सत्य के अनुरूप कठोर कार्रवाई की उम्मीद करे तो उसे क्या कहेंगे?
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सवाल उठता है कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार क्या कर रही है? इसका जवाब है कि हिंसक या हिंसा का मौन समर्थन देनेवाले 25-30 करोड़ Single Source आबादी के सामने सरकार भी देश की 100 करोड़ से अधिक हिंदू आबादी की तरह सुरक्षात्मक नीति पर चल रही है। जिस उसे लग जाएगा कि अगर उसने कार्रवाई नहीं की तो देश की अधिसंख्य आबादी राष्ट्रहिताय और आत्मरक्षार्थ प्रतिहिंसा पर उतारू हो जाएगी, उसी दिन सरकार भी कठोर और सीधी कार्रवाई करेगी। जाहिर है कि गेंद जनता के पाले में है न कि सरकार के।
#ChineseVirus #CoronaVirus #TablighiJamat #SingleSource #Jihad #CoronaJihad #Pakistan #Violence #StatePower

Thursday, April 16, 2020

महाभारत 2.0

हज़ारों साल से यह भूमि एक और महाभारत के लिए तरस रही है। पहले महाभारत के बाद उपनिषद् ग्रंथों, महावीर और बुद्ध का अमृत मिला था तो इस बार भी अमृत निकलेगा ही। मनुष्यता-विरोधी इस्लाम, साम्यवाद और उपभोक्तावाद तो अब भीषण वैश्विक महाभारत से ही परास्त होगा जिसकी पदचाप भारत समेत कई अन्य देशों में साफ़-साफ़ सुनाई देने लगी है।

भला हो 'चीनी वुहान वायरस' का जिसके चलते साम्यवाद और इस्लाम के गठजोड़ का पर्दाफाश हो सका और दुनिया कोरोना-जिहाद को जान और समझ पाई। दूसरी तरफ़ वैश्वीकरण ने आग में घी की तरह काम करते हुए उपभोक्तावाद की परोपजीवी
विकृति को भी उजागर कर दिया है। इसका प्रमाण है विकसित देशों का अपने भोग की ग़ैर-जरूरी पर सस्ती चीज़ों के लिए चीन पर भीषण रूप से निर्भर होना।
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दिलचस्प है कि यूरोप और अमेरिका जहाँ उपभोक्तावाद पर सवार चीनी कोरोना वायरस के ज़्यादा शिकार हैं वहीं भारत उस कोरोना-वायरस से जूझ रहा है जो जिहाद पर सवार है और जिसे सेकुलरवाद एवं कम्युनिज़्म का पूरा समर्थन है।
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जाहिर है कि यूरोप और अमेरिका की बदहाली के लिए उनकी भोग संस्कृति जिम्मेदार है तो भारत की बदहाली के लिए यहाँ की हिंदू-द्वेषी और भारत-तोड़क विचारधाराओं का गठजोड़। सनद रहे कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। भारत के विभाजन और बाद में उसके आर्थिक-सांस्कृतिक पतन के लिए भी यही गठजोड़ जिम्मेदार था।
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आज अंतर सिर्फ यही है कि रेडियो-टीवी-अख़बार नियंत्रित एकतरफा जनसंचार को मोबाइल-इंटरनेट सोशल मीडिया पर सवार गहन अन्तर्वैयक्तिक संचार (Intensive Interpersonal Communication) ने अपदस्त कर दिया है। किसी के लिए किसी अन्य के बारे में कुछ भी ढँका-छुपा नहीं है। घृणा के स्रोतों की अब वैश्विक पहचान हो जाने से विभाजन रेखा बहुत स्पष्ट हो चुकी है। कालनेमियों की कलई खुल गई है और अपने राष्ट्र रूपी राम के प्रति समर्पित करोड़ों हनुमान गदा-प्रहार के लिए उतावले हो रहे हैं।
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उपरोक्त घृणा के स्रोतों की पहचान और उसके इलाज के लिए जनमानस में पैदा हुई बेचैनी को समकालीन कालनेमी-गिरोह असहिष्णुता और घृणा का नाम देकर जनमानस को दिग्भ्रमित करने का षड्यंत्र कर रहा है जो स्वाभाविक ही है। इसी षड्यंत्र का हिस्सा है घृणा के स्रोतों (इस्लाम, साम्यवाद) की आलोचना के बजाय घृणा की पहचान करानेवाले बुद्धियोद्धाओं-बुद्धिवीरांगनाओं और उनके मंचों (फेसबुक, ट्विटर) को नियंत्रित करने की साज़िश।
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महाकवि दिनकर याद आ रहे हैं:
समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास।
तो सवाल यह नहीं कि कोरोना-उत्प्रेरित वैश्विक महाभारत होगा या नहीं बल्कि यह कि अपार सृजन की संभावनाओं वाले इस आसन्न महायुद्ध में हम कहाँ होंगे? सृजन का मार्ग प्रसस्त करते समय के सनातन बुलडोज़र पर सवार होंगे या उसके सामने खड़े होंगे? यहाँ तटस्थता का एकमात्र अर्थ होगा: सामूहिक आत्महत्या।

Wednesday, April 15, 2020

देवासुर संग्राम 2020: कोरोना वायरस और मुसलमान

एक व्यक्ति के रूप में कोई मुसलमान उतना ही निर्दोष या दोषी है जितना कि कोई ग़ैर-मुसलमान लेकिन मुस्लिम उम्मा के सदस्य के रूप में वह सिद्धान्त: स्वयं और सम्पूर्ण मानवता के लिए संभावित ख़तरा है क्योंकि उसकी मजहबी जिम्मेदारी है कि वह अपने शरीर और अर्थ को नुकसान पहुँचाकर भी काफ़िरों के ख़िलाफ़ जिहाद करे ताकि पूरी दुनिया में इस्लाम के तलवार की सत्ता स्थापित हो। इस जिहाद को किसी भी अन्य प्रकार के जिहाद से उच्चतर माना गया है (क़ुरान4:95)। मौलाना साद यही कर रहा है जिसमें उसे उम्मा का सैद्धांतिक समर्थन भी है।
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एक अन्य कारण भी है और वह है 1400 सालों से पेंडिंग क़यामत का मामला। कोरोना पर सवार जिहाद-वायरस की मदद से क़यामत के कुछ सालों में ही घटित हो जाने की ज़न्नती आशा भी बंध गई है जिस कारण पाकिस्तान में भी तबलीगी जमात के लोग कोरोना जिहाद कर रहे हैं।
निस्संदेह यह एक बीमार सोच है जिसे भारतीय सेकुलरदासों का समर्थन है। लेकिन रोग को रोग माने बिना उसका निदान और इलाज संभव है क्या?
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इस बीच चीनी कोरोना वायरस ने एक बड़ा काम कर दिया है और वह यह कि उसने उपरोक्त बीमार सोच की न सिर्फ पोल खोल दी है बल्कि उसकी क्रूर सच्चाई को घर-घर तक पहुँचा दिया है जिसे अब कोई भी गाँधी-प्रयास झुठला नहीं सकता। इस मुद्दे पर विपक्ष की गगनभेदी चुप्पी ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि कोरोना वायरस का भले ही कोई मजहब न हो लेकिन कोरोना जिहादियों का तो निश्चित ही एक मजहब है, एक ऐसा मजहब जिसका बुनियादी सिद्धांत है:
हम ही हम बाक़ी सब खतम।
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इस्लाम के आधार पर भारत के विभाजन के बावजूद यहाँ के अधिसंख्य हिंदू इस्लाम के हिंदू-हंता सिद्धांत से अपरिचित ही रहे थे लेकिन कोरोना के साथ जिहादी युगलबंदी ने इस अपरिचय से पर्दा हटा दिया है जो गृहयुद्ध की तरफ़ बढ़ रहे भारत और पूरी दुनिया के लिए आग में घी का काम करेगा।
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चाहे-अनचाहे आज हम सृजनात्मक ध्वंस के उस दौर में प्रवेश कर चुके हैं जिसमें बर्बरता और मानवता आमने-सामने है। हम इस 'देवासुर संग्राम' में सहभागी और उसके साक्षी बनने के लिए अभिशप्त हैं।
#Corona #WuhanVirus
#ChineseVirus #KoronaJihad
#Jihad #Qayamat #Islam #Quran #Civilwar

बाबा साहेब डा भीमराव रामजी अंबेडकर के नाम पाती

आदरणीय बाबा साहेब,
जय भीम जय भारत!
पता नहीं क्यों आज आपकी याद आते ही बाबू बालमुकुन्द गुप्त के 'शिवशंभो के चिट्ठे' भी याद या गए सो थोड़ी बूटी छानी और चढ़ा ली। फिर होश ही नहीं रहा कि आपको खत लिखने के पहले कंठ लंगोट  (टाई) बाँध लें।
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इसी चक्कर में एक और ब्लंडर हो गया।आप समझ ही गए होंगे कि भाँग की जगह अगर शराब पी होती तो अभी अंग्रेज़ी में लिख रहे होते और आपको वीर सावरकर की मदद से  हिन्दी में लिखी पाती पढ़ने की नौबत नहीं आती।
लेकिन मुझे विश्वास है कि लार्ड मैकाले हमें हिन्दी में खत लिखने और आपको पढ़वाकर सुनने की गलती के लिए माफ कर देंगे क्योंकि वे तो काले अंग्रेज़ों के लिए भगवान ईशु की तरह हैं और ईशु तो कन्फेशन के बाद हजार गलतियाँ भी माफ कर देते हैं।
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खैर अब आते हैं मुद्दे पर। यह पाती पाती कम और स्वयंभू  दलित चिंतकों की चुगली ज्यादा है।आप तो जानते ही हैं कि आजकल ई भाई लोग आपको भारत के एकमात्र संविधान निर्माता के रूप में मार्केट कर रहा है जबकि संविधान सभा की अंतिम बैठक (26 नवंबर 1949? ) को संबोधित करते हुए आपने साफ-साफ स्वीकार किया था कि आपका मुख्य काम संविधान-सभा द्वारा स्वीकृत बातों को कागज पर उतारना था, उस संविधान सभा की बहसों को ठोस रूप देना था जिसके पहले  सभापति डा सच्चिदानंद सिन्हा और दूसरे तथा अंतिम सभापति डा राजेन्द्र प्रसाद थे।
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मुझे तो डर लग रहा है कि जैसे पंडित वीर जवाहरलाल ने गाँधी जी से टोपी लेकर गाँधीवाद को टोपी पहना दी, नागार्जुन ने संस्कृत में बौद्ध धर्म को लिखकर भगवान बुद्ध को देशनिकाला दे दिया वैसे ही कहीं ई चिंतक भाई लोग आपकी विशालकाय मूर्तियाँ बनाकर आपके काम को जय-भीमिया न दे। चेलों ने किसको छोड़ा है कि आपको छोड़ेंगे।
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बाबा साहेब, अब आप पूछेंगे कि नेहरू जी ने गाँधीवाद को कैसे टोपी पहनाई क्योंकि वे तो गाँधी जी के स्वघोषित उत्तराधिकारी थे? तो सुनिए आगे का हवाल।आपके जमाने में ही नेहरू जी के बेटी-दामाद 'गाँधी' हो गए थे।फिर नाती राजीव और संजय भी गाँधी हुए तथा परनाती राहुल गाँधी।इतना ही नहीं, राॅबर्ट वाड्रा से शादी के बावजूद प्रियंका गाँधी प्रियंका वाड्रा के रूप में नहीं जानी जातीं।इस तरह नेहरू जी के गाँधी परिवार ने काँग्रेस को फैमिली बिजनेस पार्टी बना दिया।लो हो गई काँग्रेस भंग!
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आपको याद होगा कि आजादी के बाद नेहरू जी की किसी हरकत से आहत होकर बापू ने कहा था कि काँग्रेस को भंग कर देना चाहिए। अब आपको समझ आ गया होगा कि नेहरू जी ने कितनी उदारता और निष्ठा से बापू की अंतिम इच्छा पूरी की।
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आज के दलित चिंतक भी गाँधी के उत्तराधिकारी पंडित वीर जवाहरलाल से काफी प्रेरित लगते हैं।आपकी हर बात को ब्रह्मवाक्य मानते हैं।कहते हैं बाबा साहेब सब पढ़ चुके थे, हमें अब उसपर अमल करना है, पढ़ने-लिखने और ठोकने-ठेठाने-जाँचने-परखने का अभी टाइम नहीं है!
उनका चले तो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कानून में संशोधन करवा कर आपकी कही बातों पर तर्क-वितर्क को प्रतिबंधित करवा दें--एक दम कुराने पाक के आयतों की तरह। लोग तो दबी जुबान से यह कहने भी लगे हैं कि दलित आलोचक वो होते हैं जो अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते।
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बाबा साहेब, दलित चिंतकों की आज की दिशा के लिए एक हद तक आप भी जिम्मेदार हैं।आप अगर ईसाई या मुसलमान हो गए होते तो ये बखेरा ही नहीं खड़ा होता।आपने हिन्दू धर्म से राम-राम कर बौद्ध धर्म क्यों अपनाया? आप कहेंगे: धर्म से धर्म में जाना स्वाभाविक है न कि मजहब या रिलीजन में क्योंकि धर्म कर्तव्य और बुद्धि-विवेक पर आधारित है जबकि रिलीजन-मजहब खास किताबों पर।लेकिन यहाँ तो आपके ऑफिशियल चेले अपनी बौद्धिकता को ताक पर रख मोसल्लम ईमान के साथ विवेक और तथ्य से आँखें मूँद भारतीयता को तारतार करनेवाले इवांजेलिस्ट गिरोहों की गोद में जा बैठे हैं।
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आज पादरियों और मुल्लों का मतांतरण सिंडिकेट आपसे बदला ले रहा है।जब वे थैली भर-भर कर लाइन लगाये खड़े थे कि आप उनके रिलीजन या मजहब की शरण में जाएँ और उनके बताये रास्ते से ही हैवेन या ज़न्नत का रुख करें तब आपने निर्वाण के रास्ते को चुनकर उनका अपमान किया।आज वे सूद समेत आपसे ही क्यों पूरे देश से बदला ले रहे हैं।ऐसा सूँघनी मंत्र फूँका है कि आपके चेले उनकी थैली के थाले से चिपक गए हैं।आलम यह है कि इस देश के हर मुद्दे पर निष्कर्ष उनके होते हैं और दस्तखत दलित चिंतकों के।
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बाबा साहेब, अब आपसे क्या कहूँ क्या नहीं। पिछले दिनों मनुस्मृति जलानेवाले मित्रों से यूँ ही जानकारी के लिए पूछ लिया कि आपमें कितनों ने इस ग्रंथ को जलाने के पहले पढ़ने का कष्ट उठाया है? जवाब मिला कि इस बावत बाबा साहेब ने जो फरमाया वह फुल-एंड-फाइनल है, कोई 'भूलचूक लेनीदेनी' नहीं है।
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मैंने सोचा अब अपन ही कुछ देह हिलायें तो बात बने।पंजाब-हरियाण हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश
एम. रामा जोइस की पुस्तक Ancient Indian Laws (Universal, 2003)में उल्लिखित निम्न श्लोक पर नज़र पड़ी तो मैं भौंचक रह गया:
"परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ ।
धर्म चाप्यपिसुखोदर्कं लोकविक्रुष्टमेव च ।।"
(मनुस्मृति-IV, 176)
(धर्म विरुद्ध धनार्जन और कामना त्याज्य है, धर्म के वे नियम भी त्याज्य हैं जिनसे कुछ लोगों को दुःख होता हो या जनाक्रोश फैलता हो।)
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इससे यह साबित होता है कि यह श्लोक तो मनुस्मृति का मूल-वाक्य है जो इसके किसी भी नियम को मानवीय-सामाजिक-राजनैतिक आधार पर बदलने की छूट देता है!
ऐसा अनेक बार हुआ है कि संसद में पास कानून को सर्वोच्च न्यायालय असंवैधानिक करार देता है या फिर संविधान में ही सौ से अधिक संशोधन हो चुके चुके हैं। इससे क्या पूरा संविधान फालतू हो गया? संसद के बनाये सारे कानून फालतू हो गए? समय के साथ बेकार हो गए कुछ नियमों के आधार पर  अगर मनु स्मृति को जलाना तार्किक है तो भारतीय संविधान को तो जलाना भी एकदम तार्किक होगा, हमारे एकमात्र 'संविधान निर्माता' डा साहेब!
क्या आपका ध्यान इस ओर एकदम नहीं गया था?
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यह तो समझ में आता है कि आपको संस्कृत सीखने का अवसर नहीं मिला और मूल किताबों को आप नहीं पढ़ पाए।फिर आपके राजनैतिक जीवन की भी अपनी व्यस्तताएँ कम नहीं रही होंगी।सो आपको मूलतः एम ए शेरिंग सरीखे मतांतरण के भूखे ईसाई पादरियों के भ्रष्ट अनुवादों पर निर्भर रहना पड़ा।इलाहाबाद के डा त्रिभुवन सिंह ने अपने अद्यतन शोधों (www.tribhuvanuvach.blogspot.in) से यह साबित किया है कि '... जात,जाति, वर्ण, सवर्ण, अवर्ण,शूद्र, वर्णाश्रम, जातिप्रथा, छुआछूत आदि मामलों में डा अंबेडकर ईसाई मिशनरियों के फर्जी अनुवादों के जाल में फँस गए'।
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लेकिन बाबा साहेब, तबतक तो आपके गौरांग महाप्रभु लाॅर्ड मैकाले द्वारा भारत में अधिष्ठित देववाणी अंग्रेज़ी में भी कुछ किताबें आ गईं थीं {The Case for India (Durant, 1930) ; India in Bondage (Sunderland, 1929)} जो भारत के न सिर्फ आर्थिक और राजनैतिक बल्कि सामाजिक अधोपतन (जातिप्रथा, छुआछूत, अशिक्षा आदि) में भी अंग्रेज़ी हुकूमत और ईशाई मिशनरियों की साजिशी भूमिका का पर्दाफाश करती थीं-ऐसी साजिश जिसके तहत हिन्दू समाज को छुआछूत और ऊँचनीच के लिए वैसे ही जिम्मेदार ठहराया गया जैसे किसी बलात्कार-पीड़िता के माँ-बाप को यह कहा जाए कि 'लड़के तो बलात्कार करेंगे ही, आपकी गलती है कि आपने लड़की पैदा ही क्यों की'!
यानी 'घोड़ा खुला है घोड़ी बाँधकर रखो'।
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आपको शायद याद हो कि इन किताबों को बरतानवी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था।वैसे भारत-दुर्दशा पर 1904 में मराठी मूल के सखाराम देउस्कर द्वारा लिखित बाँग्ला पुस्तक  'देशेर कथा' की 13000 प्रतियाँ 1908 तक बिक चुकी थीं यानी आज के मुहावरे में बेस्ट सेलर! इसे भी 28 सितंबर 1910 को जब्त  कर लिया गया जिसकी खबर 30 सितंबर 1910 को 'हितवाद' समेत सिर्फ दो अखबारों में छपी।
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संभव है प्रतिबंधित होने के कारण और गौरांग महाप्रभुओं को नाहक नाराज न करने के उद्देश्य से आपने इन किताबों पर अपनी नज़र फेरना उचित नहीं समझा हो।यह भी संभव है कि दुनिया के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों से उच्चतम शिक्षा (कोलंबिया से कानून और लंदन से अर्थशास्त्र में पी.एच डी) हासिल करने के बावजूद खुद छुआछूत का शिकार होने के कारण पैदा आक्रोश का आपके चिंतन पर असर पड़ा हो।और, स्वाभाविक रूप से दो सौ साल में पैदा हुई स्थिति को सुदूर अतीत पर आपने प्रत्यारोपित कर दिया और तब के बुद्धिजीवी वर्ग यानी ब्राह्मणों को इसके लिए जिम्मेदार माना।
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लेकिन बाबा साहेब, आजादी से कुछ सालों पहले (1940) अपनी पुस्तक Thoughts on Pakistan और बाद में मतांतरण-लोभी पादरी-मुल्लों की थैलियों पर लात मारकर आपने साबित किया कि आपमें देश-दुनिया की स्वतंत्र समझ रखने की न सिर्फ क्षमता थी बल्कि उस पर अमल करने का नैतिक साहस भी।ऐसा लगता है कि जैसे-जैसे अंग्रेज़ी शासन के दिन करीब आते गए वैसे-वैसे आपका पैनापन बढ़ता गया।
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फिर भी डा साहेब, यह बात एकदम हजम नहीं होती कि 2 फरवरी 1838 को बरतानवी संसद में लाॅर्ड मैकाले के भाषण की प्रति आपके हाथ न लगी हो जिसमें उसने साफ-साफ कहा था कि भारत की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक-नैतिक समृद्धि को तहस-नहस किए बगैर इस देश को ज्यादा समय तक गुलाम नहीं रखा जा सकता; और यह महान उद्देश्य भारत की भाषाओं की जगह अंग्रेज़ी को थोपकर ही प्राप्त किया जा सकता है।
फिर भी आपने अंग्रेज़ी को 'पितृभाषा' का दर्जा दिया? वैसे मेरा मन कहता है कि आपने इसमें भी कुछ अच्छा सोचा होगा।
आप 64 विषयों के मास्टर के अलावा दो पी.एचडी समेत आठ डिग्रियों के धारक जो थे!
आपका स्नेहाकांक्षी,
एक जन्मजात अधम अपराधी कश्यप गोत्रीय सनातनी हिंदू।
© चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह
(15 अप्रैल 2016 की पोस्ट।)

Wednesday, April 1, 2020

कोरोना जिहाद से गृहयुद्ध की स्थिति पैदा होगी

धीरे-धीरे लोग समझ रहे हैं कि मजहबियों की समाजी ताक़त के सामने सत्ता भींगी बिल्ली हो जाती है। CAA का विरोध, दिल्ली दंगे-20 और निज़ामुद्दीन-कोरोना-जिहाद तीनों सिर्फ यह बताते हैं कि मजहबियों के लिए इस्लाम सबसे ऊपर और देश या उसका संविधान ठेंगे पर।
इस्लाम कहता है कि गज़वा-ए-हिंद यानी जिहाद के द्वारा हिंदुस्तान को इस्लामी  देश बनाना है और इस काम में कोरोना वायरस की वही भूमिका है जो किसी फिदायीन या मानव-बम के लिए विस्फोटक पदार्थ की होती है।
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इस पूरी प्रक्रिया में सत्ता अक्सर मिमियाती नज़र आती है और इससे जिहादियों को जिहाद करने का बल मिलता है। दूसरी तरफ देश और धर्म की रक्षा के लिए एक आम गैर-मुसलमान का राजसत्ता पर विश्वास कम होता जाता है जो उसे सड़क पर उतरने का नैतिक बल देता है। इस साल दिल्ली दंगों के पीछे का एक कारण यह भी रहा कि CAA के विरोध में पूरी दिल्ली को ठप करने वाले जिहादियों पर काबू पाने में पुलिस असहाय दिख रही थी।
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सत्ता की इस असहायता पर अधिसंख्य हिंदुओं का विश्वास का बढ़ता जाना उनके लिए क़ानून को हाथ में लेने का निमंत्रण है जो अंततः गृहयुद्ध को जन्म देगा। यह एक निर्णायक युद्ध होगा जो राजनैतिक सत्ता पर सामाजिक सत्ता के अंकुश को स्थापित करेगा।
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एक बात और। वह यह कि यह एक वैश्विक परिघटना होगी क्योंकि वैश्विक जिहाद से निपटने में दुनियाभर का वोटबैंक-आश्रित लोकतंत्र विफल साबित हो रहा है। निष्कर्ष यह कि वैश्विक जिहाद से निपटने में वैश्विक लोकतंत्र की विफलता से वैश्विक राष्ट्रीय उभार होगा जो वैश्विक गृहयुद्ध को जन्म देगा जिसकी चपेट में हर वह देश आएगा जहाँ की मुस्लिम आबादी 4-5 % या उससे ज्यादा है।
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एक अनुमान के अनुसार इस वैश्विक गृहयुद्ध में 35-40 करोड़ लोग मारे जाएँगे जिसमें 5-6 करोड़ भारतीय हो सकते हैं और भारत इसके केंद्र में भी हो सकता है क्योंकि किसी भी गैर-इस्लामी देश की तुलना में भारत की मुस्लिम आबादी (25-30 करोड़) अधिक है और इंडोनेशिया के बाद सर्वाधिक मुसलमान भारत में ही रहते हैं। दूसरी बात यह कि भारत का दारुल उलूम, देवबंद (सहारनपुर, उत्तरप्रदेश) का स्थान जिहाद की सैद्धांतिक ट्रेनिंग के मामले में वैश्विक स्तर पर नम्बर दो और गैर-इस्लामी देशों में नंबर वन है। निज़ामुद्दीन मरकज़ से पूरे देश में कोरोना जिहादियों को भेजने को लेकर चर्चा में आई तबलीगी जमात इसी देवबंदी इदारे से संचालित है।
@ चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह